
- निखिल नाज
टीम इंडिया के कप्तान रोहित शर्मा एशिया कप में भारत की जोरदार जीत के बाद प्रेस के सवालों का जवाब देना अभी शुरू कर ही रहे थे कि बाहर पटाखों की कानफोड़ू आवाज ने उन्हें बीच में ही रोक दिया. वे ठहरे, शोर थमने का इंतजार किया, और फिर एकाएक स्वभाववश बोल पड़े, ''वर्ल्ड कप जीतने के बाद फोड़ो, यार!" रोहित ने यह बात मजाक में कही थी, पर इसमें क्रिकेट के दीवाने देश का मिजाज समाया है, जो एम.एस. धोनी की अगुआई में भारतीय टीम के 2011 का विश्व कप जीतने के बाद विश्व स्तर पर कोई खिताब न जीत पाने की तकलीफ महसूस कर रहा है.
उस तकलीफ को खत्म करने के लिए ओडीआई (वन-डे इंटरनेशनल) विश्व कप के 2023 संस्करण से बेहतर वक्त और जगह दूसरी नहीं हो सकती. धोनी के धुरंधरों ने जब कप जीता और जब कपिल के जांबाजों ने 1983 में पहली बार कप जीता था, दोनों के बीच अगर 28 साल का लंबा फासला था, तो उम्मीद यह है कि 'रोहित के रंगदार' इसी संस्करण में यह गतिरोध तोड़ देंगे. ओडीआई विश्व कप को क्रिकेट का जी20 माना जाता है, यानी सफेद गेंद से खेले जाने वाले खेल के सीमित ओवरों के संस्करण का शिखर.
1975 में एकदिवसीय क्रिकेट की शुरुआत के बाद से ही विश्व कप क्रिकेट के शानदार और आकर्षक आयोजन की तरह उभरा है, जिसे विश्वव्यापी स्वीकृति मिली और इनाम की धनराशि भी सबसे ज्यादा है. 2023 के संस्करण में इनामों के बटुए में कुल 1 करोड़ डॉलर या 83.3 करोड़ रुपए हैं. पिछला संस्करण दुनिया भर में कुल मिलाकर 1.6 अरब दर्शकों ने लाइव देखा. इस बार कम से कम 40 फीसद बढ़ोतरी की उम्मीद की जा सकती है, जब विश्व कप का कारवां 10 जगहों से गुजरेगा और जिसमें 54 दिनों में कुल 48 मैच खेले जाएंगे.
भारत की ताकत
तो क्या भारतीय टीम यह कमाल कर सकती है? सच कहें तो 2011 की फतह के बाद से ही वे सबसे बड़े मंच पर और खासकर अहम मौकों पर कमतर पाए गए हैं. कहा जाने लगा था कि भारत को हराया जा सकता है और अनेक तरीकों से हराया जा सकता है. पिछले महीने एशिया कप के लिए भारत की टीम ढेरों सवालों के साथ श्रीलंका पहुंची. ओपनर चल नहीं रहे थे.
विराट कोहली का ओडीआई में रनों का सूखा लंबा खिंच गया था. केएल राहुल और श्रेयस अय्यर की मैच फिटनेस शक के दायरे में थी. ऑलराउंडर हार्दिक पांड्या ने लंबे वक्त से गेंदबाजी नहीं की थी. गेंदबाज शार्दुल ठाकुर और अक्षर पटेल टीम में थे तो अपने प्रदर्शन के दम पर नहीं बल्कि महज इसलिए कि खेलने वाले ग्यारह खिलाड़ियों में संतुलन की खातिर ऑलराउंडरों की जरूरत थी.

तेज गेंदबाज जसप्रीत बुमराह चोट के लंबे वक्त बाद वापसी कर रहे थे और इस बात का कोई सबूत नहीं था कि उन्होंने फॉर्म वापस पा लिया है या 10 ओवरों का कोटा पूरा करने तक गेंद फेंकने की ताकत उनमें लौट आई है. चार हफ्ते बीतते-बीतते तमाम संदेहों पर विराम लग गया. भारतीय एकादश ने महाद्वीपीय चैंपियनशिप में दबदबा कायम करके और फिर कप से पहले छोटी-सी वनडे सीरीज में पूर्ण शक्ति संपन्न ऑस्ट्रेलिया को मात देकर सारे सवालों का जोरदार जवाब दे दिया.
क्रिकेट खेलने वाली बाकी दुनिया को भी खतरे के संकेत भेज दिए गए. इस कैलेंडर साल में भारत के लिए ओडीआई में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले शुभमन गिल के रूप में भारत के पास क्रिकेट की दुनिया के सबसे होनहार युवा बल्लेबाजों में से एक है.
उनके अवाक कर देने वाले स्ट्रोक प्ले के अलावा इस 24 वर्षीय बल्लेबाज की अच्छी शुरुआत को मजबूत पारी में बदलने की क्षमता इस बात का जोरदार सबूत है कि उनके पास अपनी उम्र से ज्यादा परिपक्व दिमाग है. हाल ही में वनडे में क्रिकेट में 10,000 रनों का शिखर छूने वाले रोहित शर्मा को भी अंतत: आक्रमण और बचाव के बीच वह संतुलन मिल गया लगता है जिसकी तलाश में वे थे. इसी तरीके के बूते एशिया कप में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले छह बल्लेबाजों में उनका स्ट्राइक रेट सबसे शानदार रहा.
विराट कोहली की क्षमता में अगर कभी किसी को शक था, तो दिल्ली के इस बेहद कामयाब और उत्साही क्रिकेटर ने पाकिस्तान के खिलाफ अहम गेम में मैच-जिताऊ शतक ठोककर ओडीआई में अपनी महारत की याद दिला दी. वे अब वनडे में सचिन तेंडुलकर के 49 शतकों के सदाबहार रिकॉर्ड से महज दो शतक दूर हैं और यह बात विश्व कप से पहले उनकी रनपिपासा को भड़काने के लिए काफी है.

केएल राहुल भी कहावत के फीनिक्स पक्षी की तरह राख से फिर उठ खड़े हुए हैं. पीठ की गंभीर चोट से ध्वस्त और बाहर रहने के बाद इस एवजी विकेटकीपर और मध्य क्रम के बल्लेबाज ने भारत की शुरुआती एकादश में अपनी जगह फिर हासिल कर ली है. वापसी के बाद उनके शानदार 93 के बल्लेबाजी औसत ने एकाधिक तरीकों से भारत की मदद की, और वह भी तब जब वे सभी मैचों में लगातार विकेटकीपिंग भी करते रहे. बल्लेबाज हार्दिक पांड्या को लेकर तो वैसे भी कोई परेशानी नहीं थी.
टी20 के गेंदबाज के तौर पर भी हार्दिक पांड्या भी प्रमाणित पूंजी हैं. एशिया कप ने एक और दो टूक फैसला सुना दिया. वह यह कि उपकप्तान ने जिस खालिस गति और नियंत्रण के साथ गेंदबाजी की, वह ओडीआई के पूर्णकालिक गेंदबाज के मुआफिक थी, न कि छठे गेंदबाज के विकल्प के मुआफिक, जो उन्हें अक्सर समझा जाता है.
दरअसल, भारत की एकजुट गेंदबाजी भी इस तरह उभरी कि चर्चा का विषय बन गई. बुमराह इस तरह गेंदें फेंक रहे हैं मानो वे कभी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से दूर नहीं रहे और खालिस गति और चतुर जमावट के जोड़ के बल पर शीर्ष क्रम के बल्लेबाजों को उसी तरह आउट कर रहे हैं जैसे 11 महीने लंबी चोट के चलते मैदान से बाहर रहने से पहले करते थे.
एशिया कप में मैन ऑफ द टूर्नामेंट रहे चाइनामैन कुलदीप यादव ने पूरे क्रिकेट जगत को उनकी गुगली को समझने की कोशिश में सिर खुजलाने पर मजबूर कर दिया. हमेशा उत्साह से लबालब मोहम्मद सिराज ने अपनी लड़खड़ाती सीम और अतिरिक्त उछाल से विपक्षी टीम के बल्लेबाजों को हाथ-पैर पटकने को मजबूर कर दिया (एशिया कप के फाइनल में उनके छह विकेट इसका सबूत थे).
करीब महीने भर पहले अपनी आदर्श एकादश का अता-पता तक न होने से वनडे की आदर्श एकादश बनने तक यह भारतीय टीम का काफी नाटकीय कायापलट है. मैच विजेताओं के इसी जमावड़े की बदौलत भारत ने हाल के कुछ एकदिवसीय मैचों में शानदार जीत हासिल की, जिनमें ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ तीन मैचों की सीरीज भी है.
पहले वनडे में केएल राहुल और सूर्य कुमार यादव की मध्यक्रम की जोड़ी ने जी-जान से जूझते हुए जीत पक्की की, तो गिल और अय्यर की आतिशी पारियां दूसरे मैच में भारत को 399 के रिकॉर्ड स्कोर पर ले गईं. साफ है कि अगर भारत को क्रिकेट का सबसे बड़ा इनाम झोली में डालना है तो यह बहुआयामी अटैक एक्स फैक्टर हो सकता है.
भारत की कमजोरियां
मगर बाहर से मजबूत दिखती भारतीय टीम को समग्रता में समझने की कोशिश करें और बारीकियों की पड़ताल करें, तो उसके शस्त्रागार में कुछ दरारें दिखाई देने लगती हैं. एक तो ऑलराउंडरों की कमी है. आज के कॉर्पोरेट दफ्तरों की तरह, जहां मल्टीटास्किंग का चलन जोरों पर है, क्रिकेट में भी बहुआयामी खिलाड़ी जरूरत बन गए हैं.

वनडे में तो और भी, जहां ऐसे बल्ले से भी योगदान दे सकने वाले गेंदबाजों और गेंदबाजी में भी कारगर बल्लेबाजों को तवज्जो दी जाती है. यही 2011 में भी भारत की कामयाबी का राज था, जब वीरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह, सुरेश रैना और इरफान पठान सरीखे खिलाड़ियों ने- जो सभी अच्छे-भले बल्लेबाज थे- गेंद से भी अहम कामयाबियां हासिल कीं. लेकिन यह एडवांटेज मौजूदा भारतीय टीम को नसीब नहीं है, क्योंकि शीर्ष क्रम का उनका कोई भी बल्लेबाज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार गेंदबाजी नहीं कर रहा है.
उसका दोष पावर-प्ले के नए नियमों- 11 से 40 ओवरों के बीच 30 यार्ड के घेरे के बीच पांच फील्डर- को दे सकते हैं. बीच के 'उबाऊ' दौर के फॉर्मेट से निजात पाने के लिए 2015 में लाया गया यह नियम गेंदबाजों को कोई राहत नहीं देता. नियमों में एक और बदलाव दोनों छोर से दो नई गेंद की इजाजत है, जबकि पहले पूरे 50 ओवरों के लिए केवल एक गेंद का इस्तेमाल किया जाता था.
दोनों को साथ रखकर देखें तो वनडे का फॉर्मेट 2011 के बाद जबरदस्त ढंग से बदल गया है. नई गेंद स्ट्रोक खेलने के लिए उस घिसी-पिटी गेंद के मुकाबले अपेक्षाकृत ज्यादा मुनासिब होती है, जो पिच पर धीमी आती है. खेल में इन नियमों का नतीजा यह हुआ कि टीमों ने ओडीआई में भी टी20 सरीखा बेतकल्लुफ बल्लेबाजी का रवैया अपना लिया, जो 50 ओवर के फॉर्मेट में टीमों के लगातार बढ़ते स्कोर से भी पता चलता है. ओडीआई क्रिकेट में 25 मौकों पर 400 से ज्यादा का स्कोर खड़ा किया गया और इनमें से 15 ऐसे मौके 2011 के विश्व कप के बाद आए.
बल्ले और गेंद के बीच असंतुलन की चाहे जो वजहें रही हों, सच्चे ऑलराउंडरों की कमी के चलते लचीलापन भारतीय एकादश के हाथ से जाता रहा और इससे उसकी संभावनाएं गंभीर रूप से खतरे में पड़ गईं. ऐसे टूर्नामेंट में जहां शीर्ष दावेदार नंबर 10 तक की गहराई तक बल्लेबाजी करते हैं, भारत शार्दूल, अक्षर और अश्विन सरीखे ऑलराउंडरों को बुलाकर ज्यादा से ज्यादा नंबर 8 तक बल्लेबाजों को रख सकता है. फिर 'नाकामी के डर' का आरोप भी है जिससे टीम को हमेशा जूझना पड़ता है.

इसकी जड़ बड़े और सबसे अहम दिन अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन न कर पाने की भारत की जाहिरा अक्षमता में है, जिसे खासकर विश्व कप के नॉकआउट चरणों में देखा गया है. सच तो यह है कि विश्वस्तरीय टीमें बेधड़क और निर्भीकता से खेलते हुए उस खास कयामत के दिन अपने प्रदर्शन को दो-एक पायदान और ऊंचा उठाने के लिए जानी जाती हैं. दूसरी तरफ भारत इसी चरण में औसत क्रिकेट खेलता पाया जाता है.
क्या ये 1.44 अरब भारतीयों की उम्मीदें हैं जो उन्हें पस्त और परेशान कर देती हैं? हाल में स्काइ स्पोर्ट्स के एक प्रसारण में न्यूजीलैंड के पूर्व क्रिकेटर साइमन डल ने इसकी व्याख्या यूं की, "भारतीय आंकड़ों से प्रेरित क्रिकेट खेलते हैं. वे अपने आंकड़ों को लेकर काफी चिंतित रहते हैं. वे जोखिम लेने से इतना डरते हैं, इसलिए कि पता नहीं क्या कहा और छापा जाएगा." क्या यह 'कमजोर होना' इस तथ्य से और बढ़ जाएगा कि भारत मेजबान है, क्योंकि इसका मतलब है दबाव और ज्यादा दबाव.
घर में खेलने का फायदा
इसके उलट 'होम एडवांटेज' या घर में खेलने का फायदा भारत के लिए सबसे बड़ा मौका भी लेकर आया है. यह तथ्य कि पिछले तीन संस्करणों में मेजबान वन-डे का खिताब अपनी झोली में डालते देखे गए अहम कहानी बयान करता है. इसमें कोई शक नहीं कि परिस्थितियों का जाना-पहचाना होना घरेलू टीमों को जीत में बढ़त देता है. इस लिहाज से भारत में भारत से बेहतर कोई नहीं ठहरता.
2019 में पिछले विश्व कप से अब तक के बीच के वक्त में घरेलू मैदानों पर भारत का जीत-हार का अनुपात असाधारण 3:33 (20 मैच जीते और केवल 6 हारे) है. 2019 से भारत में खेले गए ओडीआई मैचों में सीधी तुलना करने पर कोई टीम आगे नहीं ठहरती. इस बात में हालांकि कुछ दम है कि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में खेलने से विदेशी खिलाड़ियों को भारतीय परिस्थितियों का अभ्यस्त होने में मदद मिली है, वहीं आंकड़े गवाह हैं कि घरेलू मैदानों पर खेलने से भारत को मिलने वाला फायदा अब भी ज्यादातर टीमों के लिए परेशान करने वाली सच्चाई है.
भारतीय टीम के पूर्व सदस्य हरभजन सिंह घर में खेलने से भारत को मिलने वाले तकनीकी फायदों के बारे में विस्तार से बताते हैं. 2011 के विश्व कप विजेता कहते हैं, "भारतीय बल्लेबाज दूसरी टीमों के मुकाबले गैप बेहतर खोज लेते हैं. ऐसा मुख्यत: इसलिए है क्योंकि वे घरेलू मैदानों पर गति और उछाल का बेहतर इस्तेमाल करते हैं."
वे यह भी कहते हैं, "ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड सरीखी दूसरी टीमों को भारत में बाउंड्री की तलाश करते हुए जोखिम लेना पड़ता है, वहीं मैदान की परिस्थितियों से वाकिफ हमारे बल्लेबाज जोखिम लिए बिना रन बनाने की गति बढ़ा सकते हैं." ग्रुप स्टेज के दौरान भारतीय कारवां नौ जगहों पर जाएगा. अपनी मौजूदा नंबर 1 वनडे रैंकिंग और पिछले महीने दिखाए गए फॉर्म की बदौलत भारत हर गेम में जीत की बेहतर संभावना के साथ शुरू करेगा.
आयोजन स्थलों से भी मदद मिलेगी. तेज और सीम गेंदबाजी की परिस्थितियों में विकसित इंग्लैड और ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज क्रमश: लखनऊ और चेन्नै की स्पिन के अनुकूल पिचों पर भारत का सामना करेंगे. अपनी पेस बॉलिंग की ताकत और थोड़ी अनुभवहीन बल्लेबाजी के साथ पाकिस्तान कम स्कोर वाले खेल को तरजीह देगा ताकि उसे भारत को हराने का बेहतरीन मौका मिल सके. लेकिन उम्मीद है कि भारत-पाकिस्तान मैच के आयोजन स्थल अहमदाबाद के ट्रैक पर काफी रन बनेंगे, जिससे भारत को बल्लेबाजी की ताकत को फायदा मिलेगा.
केवल न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका क्रमश: धर्मशाला और ईडन गार्डन में भारत के होम एडवांटेज को कुछ हद तक बेअसर कर सकती हैं, क्योंकि इन जगहों पर सीम के अनुकूल परिस्थितियां दोनों ही विरोधी टीमों को रास आएंगी. हालांकि यहां भी बुमराह, शमी, सिराज और पांड्या के भारतीय पेस गेंदबाजी आक्रमण के अपनी पूरी ताकत लगा देने के साथ भारतीय टीम कुछ आगे ही होगी.
मगर भारत केवल घरेलू हालात पर ही भरोसा करना नहीं चाहेगा. कोच राहुल द्रविड़ के रूप में, जिन्होंने खिलाड़ी के तौर पर हमेशा अपनी पद्धति और प्रक्रिया में भरोसा किया, उनके पास एक ऐसा शख्स है जो 360 डिग्री रोडमैप तैयार करेगा और डेटा के आधार पर बनाई गई रणनीतियां और मुकाबले अभियान का अभिन्न हिस्सा होंगे.
महान बल्लेबाज और 1983 विश्व कप के विजेता सुनील गावस्कर ने इंडिया टुडे से कहा, "मेरी राय में यह बिल्कुल साफ है कि भारतीय जनता को विश्व कप की जीत से कम कुछ भी रास नहीं आएगा. द्रविड़ और यहां तक कि रोहित शर्मा के लिए भी कोच और कप्तान के तौर पर उनकी विरासत इस बात से तय होगी कि इस विश्व कप में भारत का अभियान कहां खत्म होता है."
खतरे बरकरार
'आईसीसी टूर्नामेंट में न्यूजीलैंड को कमजोर समझने की गलती कतई न करें', 'पाकिस्तान कभी भी खतरनाक साबित हो सकता है', और 'दक्षिण अफ्रीका को तो अपने जोखिम पर नजरअंदाज करें', ये लाइनें हमने न जाने कितनी बार सुनी होंगी. ये चुनौतियां तो हैं ही, इससे इतर दो खतरों के तौर पर भारत को ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड का भी सामना करना होगा. उसमें भी, इंग्लैंड ने रेड बॉल क्रिकेट को लेकर अपने बदले तौर-तरीकों की वजह से ज्यादा ध्यान खींचा है.
उसकी यह खास शैली बैजबॉल कहलाती है, जिसका नाम इंग्लैंड टीम के टेस्ट कोच ब्रेंडन मैकुलम पर रखा गया है. बैजबॉल यानी ऐसा टेस्ट क्रिकेट जिसमें बल्लेबाज एकदिवसीय मैच के अंदाज में गेंदबाजों की धुनाई के इरादे से मैदान में उतरते हैं और आक्रामक ढंग से खेलते हुए बेहतरीन स्ट्राइक रेट के साथ कप्तानों को फील्डिंग का दायरा बढ़ाने पर बाध्य कर देते हैं (आप चाहें तो ऐसे सोच सकते हैं कि एक ही बल्लेबाजी क्रम में कई वीरेंद्र सहवाग खेल रहे हों तो नजारा कैसा होगा). यही नहीं, व्हाइट बॉल क्रिकेट में इंग्लैंड के अंदाज ने भी खेल की सूरत बदल दी है. नतीजे इसके गवाह हैं, इंग्लैंड वनडे और टी-20 में विश्व चैंपियन है. हालांकि उसने वर्ल्ड कप फाइनल अब तक नहीं खेला है और एशेज सीरीज आखिरी बार 2015 में जीती थी.
निडर अंदाज ही थ्री लायंस के लिए सबसे कारगर मंत्र साबित हुआ है- मैच की स्थिति चाहे जैसी हो, हाथ में विकेट बचा हो या नहीं लेकिन अंग्रेज बल्लेबाज कभी आक्रामकता नहीं छोड़ते. एकदम यही बात ऑस्ट्रेलिया पर भी लागू होती है. स्पष्ट रूप से, कई हरफनमौला खिलाड़ियों की मौजूदगी का इसमें अहम योगदान है, इसी वजह से दोनों टीमें पूरी तरह खुलकर बैटिंग का साहस जुटा पाती हैं. यही नहीं, इससे उन्हें बल्लेबाजी पारी के दौरान लगातार दबाव झेलने की ताकत भी मिलती है.
अब, इसकी तुलना जरा भारत जैसी टीम के साथ करें, जो वर्ल्ड कप से महज कुछ दिन पहले एक स्पिन-गेंदबाजी ऑलराउंडर तलाश रही है. अक्षर पटेल के चोटिल होने से टीम में 37 वर्षीय अश्विन की वापसी हुई, जिन्होंने घरेलू मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सीरीज में वापस बुलाए जाने से पहले 20 महीने तक कोई एकदिवसीय मैच नहीं खेला था. इससे बड़ा अंतर और क्या हो सकता है.
भारत 1983 और 2011 जैसा करिश्मा दोहरा पाए, यह बहुत हद तक ऐसे फैक्टर पर निर्भर करेगा, जो क्रिकेट खेल क्षमता से एकदम परे हैं. अक्टूबर-नवंबर के महीने में देर शाम की गिरने वाली ओस की बूंदें मैच के नतीजे तय करने में टॉस जीतने को बेहद महत्वपूर्ण बना देती हैं. फिर बारी आती है- कौन कितना खुशकिस्मत रहा. मसलन, कौन अजीब तरीके से रन आउट हुआ, किसे कैच छूटने से जीवनदान मिला, या फिर बेमौसम बरसात ने खेल बाधित किया.
बहरहाल, किस्मत के बिना किसी टीम के लिए क्रिकेट में सफलता की गारंटी नहीं है. और ऐसी ही खूबसूरत अनिश्चितताएं ही क्रिकेट विश्व कप को सबसे महान खेल आयोजनों में से एक बनाती हैं.
क्रिकेट वर्ल्ड कप में बारीक अंतर की लड़ाई
क्रिकेट वर्ल्ड कप में भारत को बढ़त
>निखिल नाज इंडिया टुडे टीवी, स्पोर्ट्स के कंसल्टिंग एडिटर हैं