चार दरवेश
हृदयेश
भारतीय ज्ञा्पीठ, लोदी रोड,
नई दिल्ली-3,
कीमतः 170 रु.
विषय उम्दा पर ट्रीटमेंट नहीं: हृदयेश
भारतीय समाज में जैसे-जैसे पूंजी की भूमिका निर्णायक होती गई, एक-एक करके हमारे सारे मूल्य अप्रासंगिक होते गए. हमारे सोचने के तरीके और प्रतिमान बदल गए. प्रतिमान बदलते ही व्यक्ति के गुण दोष बन गए. सामाजिक व्यक्ति की जगह आत्मकेंद्रित व्यक्ति का उदय हुआ, जिसके लिए रिश्ते-नाते देश-समाज आदि का मतलब सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति करना रह गया. ऐसे माहौल में अपने मानवीय मूल्यों के साथ जीने और चलने वाले लोगों की नियति त्रासद होनी तय है. वरिष्ठ कथाकार हृदयेश का उपन्यास चार दरवेश त्रासद नियति वाले ऐसे ही चार बुजुर्गों की कथा है.
रामप्रसाद, शिवशंकर, दिलीपचंद और चिंताशरण शर्मा नाम के चार बूढ़ों की कथा के जरिए हृदयेश ने एक तरह से भारतीय समाज में मूल्यों के विघटन की कथा कही है. ये चारों बूढ़े एक जैसे न होकर अपनी प्रकृति और मि.जाज में एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं. लेकिन अलग-अलग जीवन स्थितियों में रहते हुए भी उनकी नियति एक है.
रामप्रसाद अपने घर में बेटी-दामाद के साथ रहते हैं. धीरे-धीरे स्थिति यह हो जाती है कि अपने ही घर में वे एक निर्वासित और उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. अपने ही घर में मर्जी के मुताबिक न जी पाना और अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं-जरूरतों की भी पूर्ति न होना उनकी त्रासदी के मूल में है. कुत्ते के काटने से अंततः एक दिन उनकी मौत हो जाती है.
शिवशंकर बेटे के कहने पर घर-बार बेचकर अपना अच्छा-खासा सामाजिक जीवन छोड़ उसके यहां रहना स्वीकार कर लेते हैं. उनकी असल त्रासदी यहीं से शुरू होती है. वे अपने जीवन के एकाकीपन और शहर के अजनबी माहौल में लगातार घुट रहे थे. स्थिति यह है कि पहले उनका फोन स्विचऑफ बता रहा था, अब उधर से संदेश आता है कि दिस नंबर डस नॉट एक्.जिस्ट. स्पष्ट है कि उपेक्षित और अकेला जीवन जीते-जीते वे काल-कवलित हो गए हैं.
दिलीप चंद की कथा और कारुणिक है. शादी तो हो जाती है लेकिन उनका वैवाहिक जीवन शुरू ही नहीं हो पाता. पत्नी कहती है कि वह किसी और से प्रेम करती है और उसके पास जाने की इजाजत मांगती है. वे इजाजत दे देते हैं और स्वयं जीवन भर अविवाहित रहते हैं. बुढ़ापे में अपनी मौसी के साथ हैं, जो स्वयं अपने ब-बेटे से प्रताड़ित होकर उनके पास आ गई हैं.
मूल्यहीन समय में अपने को मिसफिट पाकर वे आत्महत्या की ओर अग्रसर होते हैं. इन तीनों की अपेक्षा चिंताशरण का व्यक्तित्व अधिक जीवंत है. वे समय के दांव-पेंच को भी समझ्ते हैं और बहुत हद तक अपनी मर्जी से जीने की कोशिश भी करते हैं. लेकिन उनका एक दिन अपहरण हो जाता है और उनके बेटे उन्हें छुड़ाने में कोई सक्रियता नहीं दिखाते.
इन सत्तर पार चार बुजुर्गों की कथा के माध्यम से हृदयेश ने भारतीय समाज में हो रहे बदलावों को रेखांकित करने की कोशिश की है. उपन्यास बताता है कि बाजारवाद और उपभोक्तावाद के इस लोलुप-लंपट समय में मानवीय गरिमा के मूल्यों के साथ जीना लगभग असंभव है. उपन्यास प्रकारांतर से वर्तमान विकास के पीछे की उस असली सचाई को उजागर करता है, जहां मानवीय मूल्यों की हत्या एक अनिवार्य तत्व है.
पूंजी से संचालित इस समय की क्रूरता, भयावहता और मूल्यहीनता को एक रचनात्मक कृति के माध्यम से सामने लाने में हृदयेश बहुत हद तक सफल रहे हैं. कथा विन्यास को संयोजित करने में उन्होंने एक परिपक्व लेखकीय दृष्टि दर्शाई है. पुरानी और नई पीढ़ी की जीवनस्थिति और सोच को उन्होंने साथ-साथ रख दिया है, जिससे मूल्यों के विघटन की पूरी तस्वीर खुद-ब-खुद उभरकर सामने आ जाती है. इस दृष्टि से यह उपन्यास हृदयेश की एक रचनात्मक उपलब्धि है.
यह उपलब्धि और बड़ी हो सकती थी अगर पुरानी-नयी पीढ़ी का द्वंद्व भी वे उजागर कर पाते. यह उपन्यास बहुलांश में एक सपाट रचना है, तभी महत्वपूर्ण विषयवस्तु के होते हुए भी हमारी संवेदना को छू नहीं पाता. रचना को प्रभावकारी बनाने के लिए जिस रचनात्मक कसाव की दरकार होती, उसका अभाव है यहां.
कई बात ऐसा महसूस होता है कि बात को जबरन आगे खींचा-बढ़ाया जा रहा है. कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक समय की कुरूपता और विडंबना को उजागर करने के लिए हृदयेश ने विषय तो बहुत बढ़िया उठाया है पर उसे बेहतर ट्रीटमेंट नहीं दे पाए हैं.

