भ्रष्टाचार पर नियंत्रण रखने के लिए केंद्रीय लोकपाल विधेयक अपनी पैदाइश से पहले ही इतने झंझटों में फंसा कि लगता है, उसने अब महिला आरक्षण विधेयक वाली राह पकड़ ली है. दूसरी ओर राज्य स्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ गठित की गई लोकायुक्त की संस्था को भी हमारे नेता धूल चटाने में जुट गए हैं.
अब तक सिर्फ 19 राज्यों ने लोकायुक्त का गठन किया है. इनमें अधिकतर मरणासन्न स्थिति में हैं. तमिलनाडु जैसे राजनैतिक रूप से जागरूक राज्य, जहां विपक्ष लगातार सत्ता पक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप मढ़ता रहता है, वहां भी राजनीति के संघीय ढांचे का हवाला देते हुए लोकायुक्त को बड़ी सफाई से किनारे लगा दिया गया. केरल, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में जरूर कुछ कामयाबियां गिनाई जा सकती हैं. हालांकि इन राज्यों में भी सजा देने का अधिकार, बुनियादी ढांचे और स्टाफ की कमी के काले बादल लोकायुक्त पर मंडरा रहे हैं. कर्नाटक में जस्टिस एन. संतोष हेगड़े की सक्रियता के चलते मुख्यमंत्री बी.एस. येद्दियुरप्पाऔर पर्यटन मंत्री जी. जनार्दन रेड्डी की गिरफ्तारी के बाद राज्य के नेता नए लोकायुक्त की नियुक्ति की फाइल दबाकर बैठ गए हैं.
देश भर में लोकायुक्तों की बदहाली बताती है कि किस तरह जान-बूझकर इस संस्था की उपेक्षा की गई है. पश्चिम बंगाल, गुजरात और कर्नाटक का उदाहरण लें. तीनों राज्यों में लोकायुक्त कानून है. लेकिन लोकायुक्त नहीं है. पश्चिम बंगाल के कोलकाता में भवानी भवन स्थित लोकायुक्त के दफ्तर में ग्रुप डी स्तर के सिर्फ दो कर्मचारी सुमन हालदार और सौरीन ब्रह्मचारी बैठते हैं. गुजरात में पिछले आठ साल से कोई लोकायुक्त नहीं है. इसका संज्ञान लेते हुए जब यूपीए की ओर से नियुक्त राज्यपाल कमला बेनीवाल ने 26 अगस्त, 2011 को इस पद पर जस्टिस आर.एस. मेहता को नियुक्त करने का आदेश दिया, तो नरेंद्र मोदी की सरकार ने तुरंत इसका विरोध करते हुए कहा कि राज्यपाल का यह कदम असंवैधानिक है. मामला तब से अदालत में फंसा है.
कहा जाता है कि कर्नाटक में देश का तथाकथित सबसे मजबूत लोकायुक्त कानून मौजूद है. लेकिन वहां भी चार महीने से यह पद खाली पड़ा है. यह संस्था मुख्यमंत्री पर भी नजर रखती है. इसे नख-दंत विहीन बना दिया गया है. इसकी पुलिस विंग में आइपीएस के अधिकतर पद खाली पड़े हैं. इसे आसानी से समझा जा सकता हैः चार पूर्व मुख्यमंत्रियों के मामले लोकायुक्त के पास लंबित हैं. तत्कालीन लोकायुक्त हेगड़े ने 2011 के उत्तरार्द्ध में देश के सबसे बड़े खनन घोटालों में एक का पर्दाफाश किया था. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में इस घोटाले का आकार 12,228 करोड़ रु. बताया और इसके समर्थन में मजबूत सबूत दिए, जिसके बाद 16 अक्तूबर, 2011 को येद्दियुरप्पा को 21 दिन के लिए जेल जाना पड़ा. हेगड़े 3 अगस्त, 2011 को रिटायर हो गए और उनके बाद जस्टिस शिवराज पाटिल ने यह पद संभाला, लेकिन उन्हें 19 सितंबर को ही अपने पद से इस्तीफा देना पड़ गया जब उन पर बंगलुरू में गैर-कानूनी तरीके से एक आवासीय स्थल कब्जाने का आरोप लगा. तब से यहां के राजनैतिक प्रतिष्ठान ने जान-बूझकर लोकायुक्त की संस्था को दरकिनार किया हुआ है और 'उपयुक्त' न्यायाधीश के अभाव का हवाला देते हुए नए लोकायुक्त की नियुक्ति को लटका दिया है.
सरकार ने राज्य के कम-से-कम आधे जिलों में पुलिस अधीक्षक की नियुक्ति रोककर वैसे ही संस्था को कमजोर कर दिया था, दूसरी ओर सिर्फ एक सरकारी वकील के होने के चलते सैकड़ों शिकायती फाइलें धूल चाट रही हैं.
केरल और उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों सक्रिय लोकायुक्त की संस्था ने कुछ हद तक भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में कामयाबी पाई थी. हालांकि यहां भी उसके हाथ बांधे जाने की कहानी कुछ ऐसी ही है. केरल में लोकायुक्त को मुख्यमंत्री समेत समूचे राजनैतिक और प्रशासनिक अमले पर निगरानी के अधिकार हैं, लेकिन वह खुद संज्ञान लेकर कार्रवाई नहीं कर सकता. लोकायुक्त का स्टाफ और उसका काम राज्य की विधायिका से स्वायत्त नहीं है. इसके बावजूद लोकायुक्त के जाल में बड़ी मछलियां फंस चुकी हैं, जिनमें संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) सरकार के एक मंत्री के.के. रामचंद्रन हैं जिन्हें 6 जनवरी, 2006 को भ्रष्टाचार का आरोपी पाए जाने पर इस्तीफा देना पड़ा था.
उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त जस्टिस एन.के. मेहरोत्रा पिछले साल खास तौर से सक्रिय रहे जिसकी गाज मायावती सरकार के नौ मंत्रियों पर गिरी. वे 19 अन्य मंत्रियों की भी जांच कर रहे हैं. मेहरोत्रा ने इंडिया टुडे को बताया कि उनके पास कार्रवाई के अधिकार नहीं हैं और उनके तहत जांच करने वाली टीम में भी स्टाफ की कमी है. इसके अलावा लोकायुक्त की रिपोर्ट सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है.
कुछ अन्य राज्यों ने भी कमजोर लोकायुक्त कानून बनाया है. इसके दायरे में सारे विधायक या मुख्यमंत्री नहीं आते. सन् 1972 में पहली बार लोकायुक्त का गठन करने वाले महाराष्ट्र में भी लोकायुक्त के पास सिर्फ जांच के अधिकार हैं, पूछताछ के नहीं. उसके तहत अलग से कोई जांच एजेंसी काम नहीं करती. महाराष्ट्र ने लोकायुक्त की मदद के लिए अलग से राज्य सतर्कता आयोग का भी गठन नहीं किया है.
आदर्श सोसायटी घोटाले की भी जांच लोकायुक्त ने नहीं की, इसके लिए राज्य सरकार ने अलग से जांच आयोग बैठाया था. राजस्थान ने 1973 में लोकायुक्त का गठन किया जो सिर्फ सेवारत लोकसेवकों के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है. लोकायुक्त के पास यहां अलग से कोई जांच एजेंसी नहीं है, न उसके पास दंडात्मक अधिकार हैं. राजस्थान के लोकायुक्त जस्टिस जी.एल. गुप्त कहते हैं, ‘यहां और दूसरी जगहों पर लोकायुक्त कानून में कई खामियां उजागर हुई हैं लेकिन उन्हें दुरुस्त करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए.’ असम में मौजूदा लोकायुक्त डी. बिस्वास असल में उप-लोकायुक्त हैं क्योंकि वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी हैं. मध्य प्रदेश में हुए डंपर घोटाले से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को आरोप-मुक्त करने संबंधी लोकायुक्त की रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण बताकर उसकी आलोचना की जा रही है.
तमिलनाडु को लोकायुक्त का गठन करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. एक-दूसरे की कट्टर विरोधी द्रमुक और अन्ना द्रमुक ने एक स्वर में केंद्र के लोकपाल विधेयक में लोकायुक्त का प्रावधान शामिल किए जाने का विरोध किया था. द्रमुक के संगठन सचिव टीकेएस इलंगोवन कहते हैं, ‘लोकायुक्त के ढांचे और नियमों को बनाने का काम राज्य सरकारों के जिम्मे छोड़ दिया जाना चाहिए.’ अन्ना द्रमुक के सांसद एम. थंबी दुरै उनका समर्थन करते दिखते हैं, ‘राज्य सरकार के अधिकारों का अतिक्रमण हमारे लोकतंत्र के सिद्धांत के खिलाफ है.’ राज्य में भ्रष्टाचार के अधिकतर मामले राज्य सरकार के तहत काम करने वाली एजेंसी सतर्कता और भ्रष्टाचार निरोधक निदेशालय (डीवीएसी) दर्ज करती है, लेकिन राज्य की मंजूरी के बगैर यह एजेंसी कार्रवाई नहीं कर सकती.
आंध्र प्रदेश लोकायुक्त का दफ्तर एक खूबसूरत-सी पुरानी इमारत में स्थित है, लेकिन उसके मुखिया जस्टिस एस. आनंद रेड्डी के पांवों में बेड़ियां हैं. उनके पास तलाशी और जब्ती की ताकत ही नहीं क्योंकि 133 कर्मचारियों के इस दफ्तर में सिर्फ 20 पुलिसकर्मी हैं. जस्टिस रेड्डी और उनके कनिष्ठ उप-लोकायुक्त एमवीएस कृष्णजी राव ज्यादा से ज्यादा प्रक्रियागत खामियों और प्रशासनिक देरी से संबंधित शिकायतों पर ही कार्रवाई कर पाते हैं. गंभीर अपराध के दोषियों पर उनकी नहीं चलती. बिहार ने हाल ही में संशोधित लोकायुक्त विधेयक पारित किया है. मुख्यमंत्री तथा उप-मुख्यमंत्री को उसके दायरे में लाया गया है, लेकिन इसका क्रियान्वयन देखा जाना अभी बाकी है. वैसे, बिहार के मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ खुद भी धावा बोल रखा है.
राजनैतिक टिप्प्णीकार चो. रामास्वामी कहते हैं, ‘लोकपाल या लोकायुक्त के गठन से कोई मदद नहीं मिलने वाली. आखिर लोकपाल सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट से बेहतर कैसे होगा? जब तक हिंदुस्तान और उसके मतदाता लोकतांत्रिक रूप से परिपक्व नहीं हो जाते, यह कुछ भी काम नहीं करेगा.’ जस्टिस हेगड़े कहते हैं, ‘इस पद पर ऐसे शख्स की जरूरत है जिसे अपने भविष्य की चिंता न हो. तभी यह असरकारी होगा. यदि एक अनुपयुक्त व्यक्ति को इस पद पर रखा जाता है तो लोग उसका विरोध कर सकते हैं.’
संसद में सूचना के अधिकार (आरटीआइ) का कानून पारित करने की राह प्रशस्त कराने वाले सफल राष्ट्रीय अभियान का हिस्सा रहे निखिल डे कहते हैं कि लोकपाल और लोकायुक्त को लाने के लिए वैसे ही एक अभियान की जरूरत है. उनका मानना है कि लोकायुक्तों की कामयाबी से जुड़े मामलों को प्रचारित किया जाना चाहिए ताकि लोगों को इसकी जरूरत समझ में आ सके. वे कहते हैं, ‘जैसा हमने आरटीआइ के लिए किया, वैसे ही हमें इस कानून को पारित कराने के लिए आम आदमी को जोड़ना होगा. उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह कानून नागरिक चार्टर, शिकायत निवारण विधेयक, व्हिसलब्लोवर प्रोटेक्शन बिल और न्यायिक जवाबदेही बिल के साथ कैसे मिलकर काम करता है. भले ही लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक में गड़बड़ियां हों, लेकिन मौजूदा स्वरूप से तो यह बेहतर ही होगा.’
टीम अण्णा का हिस्सा बन चुके जस्टिस हेगड़े कहते हैं, ‘लोकपाल और लोकायुक्त का मॉडल 1962 से मौजूद है जब पंडित नेहरू ने स्कैंडिनेवियाई देशों के मॉडल के अध्ययन के लिए एक कमेटी बनाई थी. उन देशों में ऐसी संस्था पिछले 200 साल से है, जबकि यहां का राजनैतिक वर्ग अब तक इसे स्थापित करने से बचता रहा है.’
टीम अण्णा कहती है कि लोकायुक्त के बगैर लोकपाल मंजूर नहीं है. तृणमूल कांग्रेस कहती है, लोकपाल को देखो, लोकायुक्त को मत छेड़ो. ऐसा लगता है कि हमारे नेताओं को सबसे ज्यादा खुशी इससे मिलेगी कि केंद्र और राज्य कहीं भी उनके ऊपर निगरानी रखने वाला कोई न हो.
-अमरनाथ के. मेनन, रोहित परिहार, एम.जी. राधाकृ ष्णन, कौशिक डेका, किरण तारे, लक्ष्मी सुब्रमण्यम, पार्थ दासगुप्ता और आशीष मिश्र

