हज़रत-ए-बुद्धू भी गांधी के साथ हैं
ज़र्रा-ए-खाक हैं मगर आंधी के साथ हैं
उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के नामी व्यंग्यकार-शायर अकबर इलाहाबादी उर्दू में अपने लिखे हुए का अगर अंग्रेजी में तर्जुमा देखते तो उनके माथे पर बल पड़ जाते. एक अजनबी संस्कृति को आप यह कैसे समझाइएगा कि किसी पाक-साफ/आदरणीय व्यक्ति के लिए इस्तेमाल होने वाला संबोधन ह.जरत किसी ढोंगी-पाखंडी के लिए तल्ख़ जुमला भी बन जाता है? व्यंग्यकार के कहने का साफ तौर पर आशय यह है कि अदने से अदना आदमी भी गांधी के साथ आ गया है; भले कोई राख का .कतरा हो तो वह भी आंधी के साथ हो लिया है.
इलाहाबादी ने यह शेर उस वक्त लिखा था, जब 1919 और 1922 के बीच गांधी ने स्वराज के लिए पहला बड़ा जनांदोलन छेड़ा था. उन दिनों उतना बड़ा आंदोलन एक हैरत की बात थी. ब्रिटिश राज तो आंखें फाड़े देखता ही रह गया कि इमाम-ए-हिंद मौलाना आ.जाद और मौलाना अब्दुल बारी की अगुआई में मुस्लिम धर्मगुरुओं ने खिलाफ़त जिहाद का नेतृत्व किस तरह एक दुबले-से गुजराती बनिये के हाथ में सौंप दिया.
16 नवंबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
ब्रिटिश गोरों ने पूरी एक सदी तक अपनी सलियत के हिसाब से हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया. ऐसे निर्णायकों की तरह, जो अपने फैसले के माकूल नियम-कायदे बदलते रहते थे. सांप्रदायिक दंगे इस खेल की तीखी धार की तरह हुआ करते थे. स्थितियों को भांप लेने वाले जिन्ना ने तो 1918 में वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड से कहा भी था, ''मुझे अच्छी तरह पता है कि भारतीय राज्यों में आपको शायद ही कभी हिंदू-मुस्लिम दंगों के बारे में सुनने को मिलता होगा.'' (ब्रिटिश राज और राजाओं की रियासत वाले दिनों में होने वाले दंगों के तुलनात्मक अध्ययन को हमें अपने पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाना चाहिए).
उन तीन शानदार वर्षों के दौरान गांधी की प्रेरणा से हिंदू-मुस्लिम एकता ने एक बड़ी ताकत अख्तियार की. अफवाहों और निहायत ऊहापोह से भरे माहौल में उन्होंने स्वराज का नारा बुलंद किया, जो तूफान में तब्दील हुआ और जिसने अडिग-से ब्रिटिश शासन की चूलें हिलाकर रख दीं. लेकिन आंधी उसे एक बड़ी ताकत बनाने वाले धूल के .जर्रों को भेदभाव के साथ नहीं चुनती.
यह व्यक्तियों और विचारधाराओं के मतभेदों को दूर करके अंतर्विरोधों को भी शांत करती है क्योंकि इसके पीछे एक बड़ा और एकमात्र मकसद होता है, जो निजी और जातिगत स्वार्थों से कहीं ऊपर होता है. इसीलिए एक ओर जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने मुसलमानों को गांधी के पक्ष में एकजुट किया तो हिंदू महासभा ने अपने हिसाब से इसे अंजाम दिया क्योंकि दोनों ही चाहते थे कि मुल्क औपनिवेशिक दासता से मुक्त हो.
सभी बड़े आंदोलनों में अंदरूनी मतभेदों से ऊपर उठने की ताकत होती ही है. 1975 से 1977 के बीच माकपा आपातकाल विरोधी आंदोलन का बायां हाथ थी तो जनसंघ दायां. दोनों को कोई दिक्कत न हुई. संसद में दो साल तक तालमेल के बाद 1989 में माकपा और भाजपा ने वी.पी. सिंह की अल्पमत सरकार को न सिर्फ समर्थन दिया बल्कि अपने प्रधानमंत्री के साथ साप्ताहिक रात्रिभोज का भी सुख उठाया. वी.पी. सिंह को किसी ने सांप्रदायिक नहीं कहा. बोफोर्स रिश्वत कांड ने दो विरोधी विचारधाराओं को एक साथ आने और वी.पी. सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की जमीन तैयार की.
9 नवंबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
2 नवंबर 201: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि सिंह की कैबिनेट के सभी लोगों को मदर टेरेसा से ईमानदारी का प्रमाणपत्र प्राप्त था? आधा दर्जन ऐसे मंत्रियों के जो कि एक हाथ से और इतने ही ऐसे मंत्री जो कि दोनों हाथों से नोट बटोर रहे थे, इनके नाम तो मैं गिना सकता हूं. हर आंदोलन में अच्छे और बुरे लोग सब मिले होते हैं; यहां तक कि मशर अली बंधुओं-मुहम्मद और शौकत-जैसे खिलाफत आंदोलन के नेताओं पर भी खर्चे के नाम पर उगाहे गए चंदे पर हाथ साफ करने के आरोप लगे थे. क्या इससे लोगों पर कोई असर पड़ा? और अगर पड़ा भी तो एक बड़े साझा मकसद के मुकाबले यह असर मामूली-सा था.
जो लोग मानते हैं कि अण्णा हजारे के सहयोगियों पर कीचड़ उछालकर वे उनके असर को कम कर देंगे, वे न तो अण्णा को समझते हैं और न ही हिंदुस्तान को. साथी तो कोई है ही नहीं; उनके पास तो एक मुद्दा है, भ्रष्टाचार. इस कैंसर ने उनके अंदर के चिकित्सक को अगर झ्कझेरा न होता तो वे परिधि में मौजूद दूसरे लोगों जैसे ही होते. कोई सियासी पार्टी वे चलाते नहीं. राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब उन्होंने देखा नहीं. यह बात बेमानी है कि बाबरी मस्जिद मुद्दे पर उन्होंने क्या रुख अपनाया था.
कुछेक उर्दू अखबारों ने मुस्लिम जनमानस का ध्यान उनसे हटाने की मंशा से इस बारे में टिप्पणियां लिखी हैं. वे धर्मनिरपेक्षता के अभिभावक नहीं हैं. इस बात का कतई कोई महत्व नहीं है कि उनकी रैली में भगवा झंडे वाले शामिल हुए या हरे झंडे वाले. उन्हें बिल्ली निहार रही है या रानी, क्या फर्क पड़ता है? वे चाहते हैं कि जनता के पैसे के प्रति दोनों ईमानदारी बरतें. उनकी कोर टीम, या बाहरी परिधि के या उससे भी बाहर के दायरे के लोगों को लेकर विवाद का मतदाता के लिए कोई मायने नहीं. उसकी दिलचस्पी तो बस भ्रष्टाचार के कैंसर के इलाज में है.
19 अक्टूबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
12 अक्टूबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
5 अक्टूबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
सत्ता प्रतिष्ठान का मानना है कि ज़र्रा-ए-खाक में से कुछ हज़रत-ए-बुद्धू छांट, उनके खिलाफ माहौल बनाकर वह अण्णा हजारे से लोगों का ध्यान हटा सकती है. यह खामखयाली है. भ्रष्टाचार के खिलाफ गुबार बार-बार उठता और फिर शांत हो जाता है. एक दरख्त आपको बता देगा कि तूफान से बचने का एक ही उपाय है, झुक जाओ. हमें भी जल्दी ही पता चल जाएगा कि दिल्ली कुदरत और इनसानी प्रकृति को समझती है या नहीं.

