scorecardresearch

2012 में जिसकी यूपी 2014 में उसका देश

पीढ़ीगत बदलाव के साथ हो रहे यूपी चुनाव में राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस-भाजपा की साख दांव पर, तो माया-मुलायम जैसे क्षत्रपों का भी वजन तय होगा.

कांग्रेस की बैठक‍
कांग्रेस की बैठक‍
अपडेटेड 3 जनवरी , 2012

उत्तर प्रदेश के सियासी मैदान में गूंजने वाली आवाज की धमक दिल्ली तक पहुंचना लाजिमी है. यह पहला मौका है जब राज्य विधानसभा के चुनाव में सिर्फ पार्टियों की नहीं, व्यक्तियों की साख भी दांव पर है, जिनकी सियासी हनक चुनावी नतीजे से तय होंगे. भाजपा-कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए तो यह चुनाव पीढ़ीगत बदलाव के इम्तिहान के तौर पर होंगे, जबकि मायावती के लिए जनता की उम्मीदों पर खरा उतर 2007 का करिश्मा दोहराकर खुद को केंद्रीय राजनीति में स्थापित करने की चुनौती है.

04 जनवरी 2012: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

राजनैतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, ''यह चुनाव साधारण चुनावों के मुकाबले बेहद महत्वपूर्ण है. मुख्य पार्टियों का भविष्य इससे तय होगा क्योंकि इस बार नई पीढ़ी मैदान में है.'' उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनावों का पहला असर अप्रैल-मई 2012 में होने वाले राज्यसभा के 58 सीटों और जून-जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव पर पड़ेगा.

राजनीति के जानकारों का मानना है कि देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे 2014 में आम चुनाव का रुझान दर्शाएंगे. सियासी दलों को भी इसका बखूबी अंदाजा है. युवाओं का आदर्श बनने की कोशिश में जुटे कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी ने अपनी साख दांव पर लगा दी है. फिलहाल, रा'ल की कोशिश का असर होता दिख रहा है, लेकिन लोग यह नहीं भूले हैं कि बिहार चुनाव में उनकी मेहनत जाया हो गई थी. राज्‍य में कांग्रेस के 22 विधायक हैं और इतनी मेहनत के बावजूद अगर यह आंकड़ा सम्मानजनक स्तर या चौथे से दूसरे-तीसरे स्थान तक नहीं पहुंचा, तो राहुल का कद छोटा होना तय है.

28 दिसम्‍बर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

चौधरी कहती हैं, ''अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में सत्ता में आती है, तो डेढ़ साल से बचाव की मुद्रा में रहने वाली पार्टी को हमलावर होने का मौका मिलेगा और 2014 के आम चुनाव में राहुल की भूमिका बड़ी होगी. लेकिन हार की स्थिति में राहुल के नेतृत्व पर सवालिया निशान लगेगा और विपक्ष उन्हें असफल नेता के तौर पर प्रचारित करेगा.'' तब जनता में भी उनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरना तय है. ऐसे में पार्टी उत्तर प्रदेश के अगले विधानसभा चुनाव के लिए तुरुप के पत्ते के तौर पर प्रियंका गांधी को लाने की तैयारी शुरू कर सकती है.

लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव की तरह ही विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस का परचम लहराता है तो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में राहुल के साथ शामिल विपक्षी नेता कई फर्लांग पीछे छूट जाएंगे. अगर नतीजों में भाजपा का पलड़ा भारी रहता है तो पार्टी में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की सूची और लंबी हो जाएगी. सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नरेंद्र मोदी सरीखे नेताओं के साथ नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह भी स्वाभाविक दावेदार के तौर पर उभरेंगे.

21 दिसम्‍बर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

हालांकि राज्य में निर्णायक रणनीतिकार की भूमिका निभा रहे पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह इन दलीलों से इत्तेफाक नहीं रखते कि यूपी चुनाव की हार-जीत से केंद्र की राजनीति प्रभावित होगी. वे कहते हैं, ''उत्तर प्रदेश चुनाव का अपना महत्व जरूर है, लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं कि जिसके सर्वाधिक विधायक जीतेंगे, वही दिल्ली की सत्ता पर हावी होगा.'' कांग्रेस की भी दलील कुछ ऐसी ही है. सपा-बसपा के मुकाबले अपनी कमजोर स्थिति की घबराहट और डर भाजपा-कांग्रेस नेताओं में साफ दिखती है. राज्य में कांग्रेस के प्रभारी महासचिव दिग्विजय सिंह कहते हैं, ''यह कहना जल्दबाजी होगा कि 2012 के उत्तर प्रदेश चुनाव का असर 2014 के आम चुनाव पर पड़ेगा. अभी लंबा समय है और समय के साथ मुद्दे और हालात बदल जाते हैं.''

दूसरी तरफ मायावती हार-जीत दोनों ही स्थिति में अपना अस्तित्व बचाए रखने में कामयाब हो सकती हैं, क्योंकि उनका अपना अलग वोट बैंक है. वैसे, हार की स्थिति में मायावती के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की मंशा पर पानी फिरना तय है. वे सत्ता से बाहर होने के बाद प्रदेश को चार हिस्सों में बांटकर अपनी सियासी ताकत बढ़ाने के मंसूबे को भी परवान नहीं चढ़ा पाएंगी. मायावती अपनी खास रणनीति के तहत चुनाव को बसपा बनाम कांग्रेस दिखाने की कोशिश में हैं.

14 दिसंबर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

वे राहुल के हर बयान पर पलटवार करती हैं. लेकिन बसपा हो या सपा दोनों ने राष्ट्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन की संभावनाओं को खत्म नहीं किया है. संसद में लोकपाल विधेयक हो या महंगाई पर कटौती प्रस्ताव जैसे मुद्दे, बसपा-सपा ने वाकआउट की रणनीति अपनाकर कांग्रेस से अपने रिश्तों में बहुत खटास पैदा नहीं होने दी है. इसकी एक वजह यह भी है कि यूपीए सरकार माया और मुलायम के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामलों को अंकुश के रूप में इस्तेमाल कर रही है.

यह चुनाव सपा के लिए वजूद का सवाल लेकर खड़ा है. कई वर्षों से सत्ता से दूर पार्टी के लिए सूबे की सियासत में अपनी अहमियत बनाए रखने की खातिर बेहतर प्रदर्शन जरूरी है. जीतने पर मुलायम अपने बेटे अखिलेश यादव को वारिस के तौर पर राज्‍य में स्थापित कर देंगे और केंद्र में कांग्रेस के साझीदार बनकर कैबिनेट में जगह पा सकते हैं.

07 दिसंबर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

राजद के लालू यादव के साथ उनकी निकटता 2014 में कांग्रेस के साथ गठजोड़ या तीसरे मोर्चे को पुनर्जीवित करने का संकेत हो सकता है. लेकिन हारने की स्थिति में पार्टी को करारा झटका लगेगा. तब अखिलेश न सिर्फ राज्य की राजनीति में दशक भर पीछे चले जाएंगे, बल्कि पारिवारिक अनुशासन में दबी यादवी कुनबे की कलह सतह पर आ जाएगी. अखिलेश कहते हैं, ''प्रचार के मामले में सपा सबसे आगे है. अगर पिछले चुनाव के मुकाबले हमें 6 फीसदी और वोट मिल जाएं, तो बहुमत की सरकार बनेगी.''

हार की स्थिति में सबसे बड़ी सिर-फुटव्वल भाजपा में देखने को मिल सकती है, जो पिछले दो आम चुनाव से केंद्र की सत्ता से महरूम है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा में पीढ़ीगत बदलाव लाते हुए नितिन गडकरी को एक रोड मैप के तहत राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठाया था. संघ के फॉर्मूले पर ही उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले उमा भारती और संजय जोशी की वापसी हुई और चुनावी बागडोर सौंपी गई. इसलिए सबसे बड़ा इम्तिहान जोशी का ही है, जो इन दिनों यूपी भाजपा के सबसे व्यस्ततम नेताओं में से एक हैं. अगर पार्टी मौजूदा 51 सीटों में इजाफा करने में सफल रहती है, तो गडकरी की किस्मत का सितारा चमकेगा और पार्टी पर संघ का शिकंजा कसेगा.

30 नवंबर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

यही नहीं, यूपी के नतीजे राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर गडकरी की दूसरी पारी का रास्ता भी खोल सकते हैं. जिसके लिए पार्टी संविधान में संशोधन पर भी संघ ने विचार करना शुरू कर दिया है. भारती के लिए भी नई शुरुआत का रास्ता खुल सकता है, क्योंकि पिछड़ा और हिंदुत्ववादी चेहरा होने की वजह से पार्टी ने उन्हें उत्तर प्रदेश में ही आगे बढ़ाने का मंसूबा बना रखा है. लेकिन चुनाव नतीजों ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेरा तो 2009 के आम चुनाव के बाद पार्टी के भीतर पैदा हुई स्थिति को दोहराया जा सकता है. खास तौर से लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी सीधे तौर से गडकरी के खिलाफ मोर्चा खोल देंगे, क्योंकि जोशी की वापसी में आडवाणी-मोदी की असहमति को गडकरी ने दरकिनार कर दिया था. भारती भी मध्य प्रदेश की ओर दिलचस्पी दिखा सकती हैं, जिससे शिवराज सिंह चौहान सरकार की मुश्किलें बढ़ेंगी.

अगर भाजपा इस बार कांग्रेस से भी पिछड़ गई तो क्या होगा? पार्टी के एक वरिष्ठ नेता चुटकी लेते हुए कहते हैं, ''जो हारा वही सिकंदर, यही पार्टी की परंपरा है.'' नीरजा चौधरी भी मानती हैं, ''चूंकि भाजपा में नेतृत्व को लेकर भ्रम है, इसलिए किसी एक की साख को धक्का लगेगा, ऐसा नहीं माना जा सकता.'' वे कहती हैं, ''अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में चौथे नंबर पर खिसकी और उत्तराखंड-पंजाब की सत्ता हाथ से निकली तो राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की स्थिति बिगड़ेगी.''

23 नवंबर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

2012 के चुनावों को मिनी जनरल इलेक्शन कहा जा रहा है क्योंकि खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजे राजनैतिक दलों से ज्यादा साख पर लगे चेहरों की अहमियत का पैमाना होंगे, जिसका असर केंद्र की राजनीति पर भी पड़ेगा.

स्टाइल अपना-अपना

सभा स्थल पर हेलीकॉप्टर से प्रवेश. मंच से 'उत्तर प्रदेश में बैठा हाथी पैसा खाता है' वाली पंचलाइन. बार-बार आस्तीन चढ़ाकर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) को निशाने पर लेना. 26 साल के अंधेरे दौर से बाहर निकालने का वादा करना. मंच पर चढ़ने और उतरने के दौरान भीड़ से मिलना, हाथ मिलाना. लोगों के सवाल सुनना और उन्हें अपने सवाल सुनाना. लेकिन जवाब किसी का न देना. जवाब की जगह कुछ ख्वाब पेश करना. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान का यह खांटी राहुल गांधी स्टाइल है और इसमें उनकी दादी इंदिरा गांधी के 'गरीबी हटाओ' अंदाज की हल्की-सी झलक भी है.

बाकी पार्टियों के लिए चुनाव अभियान जहां 2011 की अंतिम तिमाही से शुरू हुआ, वहीं राहुल पिछले दो साल से चुनाव की मथानी मथ रहे हैं. एक तरह से देखा जाए तो जनसभाओं के जरिए लोगों को संबोधित करना उनके चुनाव प्रचार का दूसरा चरण है. इस चरण में निश्चित तौर पर उन्हें अच्छी भीड़ मिल रही है, लेकिन पद यात्राओं और गुप-चुप यात्राओं वाले पहले चरण ने मीडिया और स्थानीय जनता को ज्यादा रोमांचित किया. पहले दौर में राहुल ने कांग्रेस नेताओं को खुद से दूर रखा.

16 नवंबर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

इस चरण में वह मीडिया से ऐसी पर्दादारी करते रहे जो सुर्खियां बनाती रही. दूसरे चरण में केंद्रीय मंत्रियों और प्रदेश नेताओं का पूरा जमावड़ा है. 27 अगस्त को लखीमपुर में राहुल ने कहा, ''केंद्र की मनरेगा और एनआरएचएम जैसी योजनाओं का पैसा हाथी खा रहा है... आप आंध्र प्रदेश जाइए, आप महाराष्ट्र जाइए, वहां जननी सुरक्षा योजना का पैसा माताओं-बहनों को मिलता है, जबकि यहां सारा पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है.'' उन्होंने एक दिन में तीन रैलियां कीं.

अभी तक की जंग में राहुल ने जो बड़ी कामयाबी हासिल की है वह है, मायावती की तरफ से कांग्रेस को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी घोषित करना. वैसे, यह बयान मायावती की रणनीति का हिस्सा है, लेकिन राहुल इसे सच कर दिखाएं तो कांग्रेस की तकदीर बदल जाएगी.

समाजवादी पार्टी के तेवर बदले हुए हैं. झंसी में कानपुर रोड पर पार्टी के बड़े होर्डिंग में राम मनोहर लोहिया, मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की तस्वीर है. सपा के पारंपरिक होर्डिंग और इस होर्डिंग में इतनी तब्दीली है कि कोई बच्चा भी दूर से ताड़ ले. होर्डिंग का बैक ग्राउंड झक सफेद है और नेताओं की भदेस तस्वीरों की जगह खूबसूरत रेखा चित्रों का इस्तेमाल किया गया है. गुंडागर्दी के इल्जाम में सत्ता से वनवास की सजा भुगत रही सपा, अपने पारंपरिक सुर्ख लाल-हरे रंग की छाप पर भद्र सफेद चादर ओढ़ाने की कोशिश में है. पार्र्टी के पास नया नारा भी है-''रोटी-कपड़ा सस्ती होगी, दवा-पढ़ाई मुफ्ती होगी.''

9 नवंबर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

अपने अंदाज में चुनावी कमान संभाल रहे अखिलेश यादव के तेवर नए और रथ यात्रा का तरीका पुराना है. नए तेवर का अंदाजा पूरी तरह से विकास को मुद्दा बनाए जाने से लग जाता है. अखिलेश एक बार 'क्रांति रथ' पर सवार होकर तकरीबन पूरे प्रदेश का दौरा कर चुके हैं और 3 जनवरी से फिर से रथ पर सवार होंगे. यह रथ मोडिफाइड छोटा ट्रक है. इसी की छत पर खड़े होकर वे 'वोटर-महान' का सजदा करते हैं. एक दर्जन स्कॉर्पियो और बोलेरो गाड़ियों का काफिला उनका हमराह होता है. रथ से नीचे आते हैं तो साइकिल पर सवार हो जाते हैं. सफेद कुर्ता-पायजामा, काली अचकन और लाल टोपी पहनने वाला युवा कभी एडिडास के जूते तो कभी चमड़े की चप्पल में कदम बढ़ाता है. 2 नवंबर 201: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

अखिलेश याद दिलाते हैं, ''सपा बदल गई है, यहां गुंडागर्दी के लिए कोई जगह नहीं है. पार्टी सूबे की तकदीर बदलेगी. मायावती के राज से मुक्ति सिर्फ सपा ही दिलाएगी.'' लेकिन उनके तेवर में तल्खी नहीं है. न तो वे मायावती की तरह झल्ला रहे हैं और न ही राहुल गांधी की तरह बात-बात पर आस्तीन चढ़ा रहे हैं. 'मिस्टर कूल' अखिलेश को सबसे बड़ा राजनैतिक खतरा खुद की आस्तीन से है, वहां कौन-कौन पल रहा है और कितनी फुफकार छोड़ रहा है, इसका सही अंदाजा ही उनके राजतिलक की कसौटी होगी.

साथ में पीयूष बबेले और हरिशंकर शाही

Advertisement
Advertisement