
बिहार में अनुसूचित जाति आयोग के नवनियुक्त अध्यक्ष मृणाल पासवान ने 9 जून, 2025 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से सपरिवार मुलाकात की. उनका एक परिचय यह भी है कि वे लोजपा के संस्थापक स्व. रामविलास पासवान के बड़े दामाद और लोजपा (रामविलास) नेता चिराग पासवान के करीबी हैं.
दिलचस्प है कि इस आयोग का उपाध्यक्ष देवेंद्र कुमार को बनाया गया है, जो 'हम' पार्टी के संस्थापक जीतनराम मांझी के दामाद हैं. इस नियुक्ति पर महादलित आयोग, बिहार के पूर्व सदस्य बबन रावत अपने फेसबुक पेज पर लिखते हैं, “मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि अनुसूचित जाति आयोग को दामाद आयोग बना देंगे.”
वहीं रामविलास पासवान के छोटे दामाद अनिल साधु इंडिया टुडे से बातचीत में कहते हैं, “चिराग का नारा है बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट मगर हकीकत में उनकी पॉलिसी जीजा फर्स्ट और जनता लास्ट पर है. उन्होंने एक जीजा अरुण भारती को जमुई से सांसद बनाया और दूसरे जीजा को अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष. क्या उन्हें दलितों में, या अपनी पासवान जाति में कोई दूसरा योग्य व्यक्ति नहीं मिला.”
इस नियुक्ति के बाद हमला जीतनराम मांझी पर भी हो रहा है. अखिल भारतीय साहसी नट समाज के अध्यक्ष रामप्यारे प्रसाद नट कहते हैं, “पिछले साल जब सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति में उप वर्गीकरण की इजाजत दी थी और इसके पक्ष में जीतनराम मांझी मुहिम चला रहे थे. तब हमने उनका समर्थन किया था, मगर अब उनको लगता है कि उनका परिवार ही बिहार है. परिवार ही दलित समाज है. खुद केंद्र में मंत्री हैं, बेटा राज्य में मंत्री है, बहू को विधायक बनवा लिया है, समधन पहले से राजनीति में हैं. अब वे अनुसूचित जाति के उपाध्यक्ष पद पर मनोनयन की बात आई तो उनका अपना दामाद ही याद आया.”
दरअसल दलित जातियों को खुश करने के लिए नीतीश सरकार ने अरसे बाद राज्य में अनुसूचित जाति आयोग और महादलित आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों के पद पर मनोनयन किया था. मगर यह कोशिश उल्टी पड़ती नजर आ रही है. एक तो इस मनोनयन सूची में परिवार के लोग शामिल कर लिए गए हैं, दूसरी बात राज्य की 22 दलित जातियों में से सिर्फ पांच जातियों को ही इसमें जगह मिली है.
बबन रावत कहते हैं, “बिहार अनुसूचित जाति आयोग और महादलित आयोग से 17 दलित जातियां गायब है. जबकि महादलित आयोग इन्हीं जातियों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था. इन दोनों आयोगों में सिर्फ 5 जातियों, पासवान, चमार, धोबी, पासी और मुसहर को जगह मिली है. अगर यह न्याय के साथ विकास है, तो अन्याय किसको कहते हैं?”


बबन आगे यह भी कहते हैं, “हद तो यह है कि इन आयोगों में एक जाति के तीन-तीन प्रतिनिधि शामिल किए गए हैं. एक अन्य मजबूत जाति के दो-दो प्रतिनिधि शामिल किए गए हैं. अब आयोग भी राजनीतिक घरानों की चपेट में आ गया है. कम से कम जिन दलित जातियों को एमपी, एमएलए का टिकट नहीं मिलता है उनके प्रतिनिधियों को आयोग, बोर्ड और निगम में जगह जरूर मिलनी चाहिए.”
दरअसल अनुसूचित जातियों के लिए बिहार में दो आयोग संचालित हो रहे हैं. पहला अनुसूचित जाति आयोग, दूसरा महादलित आयोग. पहले एक ही आयोग था, अनुसूचित जाति आयोग. मगर जब यह महसूस किया गया कि पासवान, रविदास, धोबी और पासी जैसी प्रभावशाली अनुसूचित जातियों की वजह से दूसरे दलित जातियों को आरक्षण और दूसरी सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिल पाता तो उनके विकास के लिए 2007 में राज्य में अलग से महादलित आयोग बनाया गया.
मेहतर जाति से आने वाले बबन रावत जो उस आयोग में संस्थापक सदस्य थे, कहते हैं, “तब बिहार में दो आयोग की जरूरत थी. अब जब धीरे-धीरे सभी दलित जातियों को महादलितों की श्रेणी में डाल दिया गया है, तो वैसे भी अलग से अनुसूचित जाति आयोग की जरूरत नहीं है. बेहतर यही रहता कि दोनों में से एक आयोग को बंद करा दिया जाता. मगर दोनों आयोग चल रहे हैं. दोनों में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत पांच-पांच सदस्यों का मनोनयन हुआ है. अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तो दो बड़े नेता के दामाद हैं ही, महादलित आयोग के अध्यक्ष मनोज कुमार भी पूर्व मंत्री और महादलित आयोग के पहले अध्यक्ष विश्वनाथ ऋषि के पुत्र हैं.”
जैसा कि इस रिपोर्ट में पहला जिक्र किया जा चुका है कि बिहार में इस वक्त कुल 22 दलित जातियां हैं. इनकी आबादी बिहार की कुल आबादी का 19.65 फीसदी है. इनमें पासवान (5.31 फीसदी), रविदास (5.25 फीसदी), मुसहर-भुइयां (3.98 फीसदी) बड़ी आबादी वाली जातियां हैं. धोबी (0.83 फीसदी) और पासी (0.98 फीसदी) कम आबादी के बावजूद आर्थिक रूप से बेहतर होने की वजह से प्रभावशाली जाति मानी जाती हैं इसलिए बिहार की राजनीति में ज्यादातर इन्हीं पांच दलित जातियों को महत्व मिलता है. शेष 17 जातियों में से शायद ही कोई विधायक भी बना है.

हालांकि महादलित आयोग में इन जाति के लोगों को जगह मिलती रही है. पहले महादलित आयोग में मेहतर (0.19 फीसदी), नट (0.08 फीसदी) और रजवार (0.27 फीसदी) जैसी जातियों को भी जगह मिली. बाद में डोम (0.20 फीसदी) और चौपाल (0.57 फीसदी) को भी स्थान दिया गया. इससे पहले हर आयोग में किसी न किसी ऐसी महादलित जाति के सदस्यों को जगह मिलती रही है. यह पहला मौका है, जब राजनीतिक रूप से प्रभावशाली पांच जातियों को ही इनमें जगह मिली.
जाति आधारित जनगणना के मुताबिक पान जाति (1.70 फीसदी) एक बड़ी दलित जाति थी, मगर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस जाति के बड़े हिस्से को अति पिछड़ा श्रेणी में शामिल करा दिया गया है. अभी बांतर, तुरी, भोगता, कुरारियार, दबगर, हलालखोर, कंजर, बाउरी, लालबेगी और घासी जैसी जातियां हैं, जिन्हें इन आयोगों में जगह नहीं मिली है. हालांकि इनमें से ज्यादातर जातियों के लोगों की आबादी एक लाख से कम है. दबगर, हलालखोर, कंजर, बाउरी, लालबेगी और घासी की आबादी तो दस हजार से भी कम है. यहां गौर करने वाली बात है कि इन आयोगों की स्थापना का मकसद ही ऐसी जातियों का विकास करना और उन्हें बढ़ावा देना रहा है.
इसलिए इस फैसले का दूसरी तमाम जातियां विरोध कर रही हैं. रामप्यारे प्रसाद नट कहते हैं, “हर जगह अगर वोट की राजनीति हावी हो जाए तो हम जैसी अल्पसंख्यक दलित जातियों का उत्थान कैसे होगा? हैरत है कि नीतीश जी जैसे सोशल इंजीनियरिंग के मास्टर से भी ऐसी भूल हो रही हैं. स्व. रामविलास पासवान कहा करते थे, मैं उस घर में चिराग जलाने चला हूं, जिस घर में सचमुच अंधेरा है. उनका चिराग को बिहार से दिल्ली तक जल रहा है. मगर उस चिराग को जिम्मेदारी देते वक्त उनको सिर्फ परिवार याद आता है.”
इस फैसले का राजनीतिक असर भी होने की उम्मीद है. नट कहते हैं, “अगर दलित जातियों के ये बड़े नेता सिर्फ अपने परिवार को ही दलित समुदाय समझते हैं तो इसका नतीजा उन्हें आगामी चुनाव में भुगतना पड़ेगा. राज्य की 19 फीसदी दलित जातियां और खास कर 17 ऐसी वंचित जातियां जिन्हें कभी प्रतिनिधित्व नहीं मिला, वे मिल-जुलकर इन्हें सबक सिखायेंगी.”
इसका विरोध पार्टियों में भी हो रहा है. भाजपा से जुड़े कृष्ण कुमार आंबेडकर जो पार्टी में प्रदेश प्रवक्ता के पद पर भी रहे हैं, कहते हैं, “जिन आंबेडकर के नाम पर आज सभी पार्टियां, खासकर दलित जातियों की राजनीति करने वाली पार्टियां वोट की फसल काटती है, उन आंबेडकर की जाति डोम को बिहार में कभी महत्व नहीं मिला. अनुसूचित जाति आयोग और खास कर महादलित आयोग का गठन ही समाज के वंचित तबकों के उत्थान के लिए हुआ. मगर इस बार दो आयोग गठित हुआ उसमें दलितों के बीच वंचित समाज को और वंचित कर दिया गया है. न उन्हें पार्टी में कोई बड़ा पद मिलता है, न सरकार में भागीदारी दी जाती है, न चुनाव लड़ाया जाता है. अब उन्हें इन आयोगों से भी बाहर कर दिया गया है.”
हालांकि जदयू के अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष राजेश त्यागी सफाई देते हुए कहते हैं, “दोनों आयोग को मिलाकर दस सीटें हैं, इनमें गठबंधन की पार्टियों का भी शेयर है. इन पार्टियों ने अपने शेयर की सीटों पर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को जगह दी है. हमलोगों ने अपने स्तर पर सभी जातियों को समायोजित करने का प्रयास किया है.”