
फरवरी की 6 तारीख को कुछ अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर कर्नाटक सरकार का एक विज्ञापन छपा. इसमें सिद्धारमैया की सरकार ने केंद्र सरकार पर दक्षिण के राज्यों के साथ भेदभाव का आरोप लगाते हुए 'चलो दिल्ली' का आह्वान किया था.
कर्नाटक सरकार का आरोप है कि केंद्र सरकार टैक्स के रूप में दक्षिण से ज्यादा पैसे बटोरती है मगर उसका ज्यादातर हिस्सा उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों पर खर्च किया जाता है.
'चलो दिल्ली' के आह्वान के बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने राज्य के लिए केंद्रीय करों में बेहतर हिस्सेदारी को लेकर दबाव बनाने के लिए बीते 7 फरवरी को नई दिल्ली में एक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व भी किया. ठीक अगले ही दिन, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के नेतृत्व में, वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) के मंत्रियों और विधायकों ने भी भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा राज्य का 'वित्तीय गला घोंटने' के खिलाफ गुरुवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, आम आदमी पार्टी से पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान, डीएमके मंत्री पी त्यागराजन और नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व सीएम फारूक अब्दुल्ला भी इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए. इन दोनों प्रदर्शनों के बाद से टैक्स बंटवारे का जो मुद्दा केवल दक्षिण भारत की विधानसभाओं और राजनीतिक गलियारों तक सीमित था, वो अब दिल्ली की सड़कों पर आ गया.
सिद्धारमैया का कहना है कि 15वें वित्त आयोग द्वारा निर्धारित शेयरिंग पैटर्न की वजह से कर्नाटक को डिविजिबल पूल से टैक्स हिस्सेदारी में पांच सालों में अनुमानित 62,098 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है.
विभाज्य या डिविजिबल पूल, टैक्स से आए कुल राजस्व का वह हिस्सा है जो केंद्र और राज्यों के बीच बांटा जाता है. सरचार्ज, किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए लगाए गए सेस और कलेक्शन चार्ज (टैक्स वसूलने के लिए लिया जाने वाला चार्ज) को छोड़कर इसमें सभी टैक्सेज शामिल होते हैं.
अपने एक्स अकाउंट पर 5 फरवरी को सिद्धारमैया ने लिखा, "14वें वित्त आयोग (2015-2020) के तहत, कर्नाटक को टैक्स बंटवारे में 4.71 प्रतिशत हिस्सेदारी मिली थी, जिसे 15वें वित्त आयोग (2020-2025) ने घटाकर 3.64 प्रतिशत कर दिया. ये सीधे-सीधे 1.07 प्रतिशत की कमी है." कर्नाटक की सरकार ने इस मुद्दे को 'साउथ टैक्स मूवमेंट' कहा है.
अगर केंद्र सरकार की बात करें तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस आरोप को सिरे से ख़ारिज करते हुए कहा था, "पैसों का बंटवारा 15वें वित्त आयोग की सिफारिश के ही आधार पर हुआ है. इस मामले में केंद्र सरकार का अपना कोई एजेंडा नहीं है." वैसे ये कोई नई डिबेट नहीं है मगर 2024 के आम चुनावों के पहले इस मुद्दे को दोबारा उछालने में एक राजनीतिक संदेश तो छिपा ही है.
केंद्र और राज्य सरकारों की बातें तो अपनी-अपनी जगह हैं मगर क्या वाकई ऐसा है कि दक्षिण के राज्यों से ज्यादा टैक्स वसूलकर केंद्र सरकार उत्तर के राज्यों में खर्च कर रही है? इस सवाल को टटोलने से पहले हमें ये जान लेना चाहिए 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में टैक्स के बंटवारे को लेकर क्या सिफारिशें की गई थी.
केंद्र-राज्य वित्तीय संबंधों पर सुझाव देने के लिए भारत के राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग का गठन किया जाता है और यह एक कॉन्स्टिट्यूशनल बॉडी है. रिटायर्ड आईएएस ऑफिसर एन.के. सिंह की अध्यक्षता में 15वें वित्त आयोग ने कई सारे आर्थिक मामलों पर अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी. इसी रिपोर्ट में राज्य सरकारों के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर भी बात की गई थी. अपनी इस रिपोर्ट में वित्त आयोग ने कुल 6 पैमानों के आधार पर राज्य सरकारों के बीच टैक्स का बंटवारा करने का फॉर्मूला दिया था. ये 6 पैमाने थे - इनकम डिस्टेंस, आबादी, एरिया, डेमोग्राफिक परफॉरमेंस, फॉरेस्ट और इकोलॉजी, और टैक्स और राजकोष को लेकर राज्यों के प्रयास. एक-एक कर सबको समझ लेते हैं.
किसी राज्य की आय और 'उच्चतम आय वाले राज्य' की दूरी को इनकम डिस्टेंस कहते हैं. 2016-17 और 2018-19 के बीच, तीन साल की अवधि के दौरान, औसत प्रति व्यक्ति जीएसडीपी (ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट, या सरल शब्दों में कहें तो राज्यों की जीडीपी) के रूप में राज्य की आय को कैलकुलेट किया गया है. सीधा-सीधा समझिए कि जिन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय कम होगी, उन राज्यों की हिस्सेदारी बाकी राज्यों से ज्यादा होगी ताकि सभी राज्यों के बीच समानता कायम रखी जा सके.
एरिया और आबादी वाले पैमाने में बस इतना ही समझना है कि जिस राज्य का क्षेत्रफल और आबादी ज्यादा होगी, उसकी हिस्सेदारी में केंद्र सरकार उतना ही इजाफा करेगा. जहां पहले 1971 की जनगणना से आबादी को गिना जाता था तो वहीं 15वें वित्त आयोग ने इसे 2011 की जनगणना के मुताबिक कर दिया है.
अब आते हैं डेमोग्राफिक परफॉरमेंस पर. इस मानदंड का उपयोग राज्यों द्वारा उनकी जनसंख्या को नियंत्रित करने में किए गए प्रयासों को प्रोत्साहित करने के लिए किया गया है. इसका सीधा सा मतलब है कि वैसे राज्य जिनका प्रजनन अनुपात या फर्टिलिटी रेश्यो कम है, उन राज्यों को इस मानदंड पर ज्यादा अंक दिए जाएंगे. वहीं फॉरेस्ट और इकोलॉजी वाला मानदंड कहता है कि सभी राज्यों के कुल घने जंगल में प्रत्येक राज्य के घने जंगल की हिस्सेदारी को ध्यान में रखते हुए अंक दिए जाएंगे. जितना फॉरेस्ट कवर, उतना पैसा. इस पैमाने को दरअसल राज्यों में फॉरेस्ट कवर को बढ़ाने के उद्देश्य से डाला गया ताकि इंडियन इकॉनमी से साथ ग्रीन इकॉनमी भी सुचारु ढंग से चलती रहे. टैक्स और राजकोषीय प्रयास की बात करें तो इसका इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा टैक्स कलेक्शन करने में कुशल राज्यों को पुरस्कृत करने के लिए किया गया है.
नीचे दिए गए आंकड़ों के आधार पर आप ये समझ सकते हैं कि किस मानदंड का टैक्स के बंटवारे में कितना वेटेज होगा.

आपने देखा कि केंद्र सरकार टैक्स बंटवारा किन पैमानों के आधार पर करती है तो अब ये भी समझ लीजिए कि टैक्स बंटवारे में किस राज्य की कितनी फीसदी हिस्सेदारी होती है.

जैसा कि आप ऊपर दिए गए आंकड़ों में देख सकते हैं कि टैक्स के बंटवारे में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी 17.9 प्रतिशत है और इसके बाद नंबर आता है बिहार का जिसकी हिस्सेदारी 10.1 फीसदी है. दक्षिण के राज्यों की बात करें तो सबसे कम गोवा की हिस्सेदारी है 0.4 प्रतिशत. इसके अलावा 'साउथ टैक्स मूवमेंट' चलाने वाले कर्नाटक और केरल की हिस्सेदारी क्रमशः 3.65 प्रतिशत और 1.92 प्रतिशत है.
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का कहना है, "जहां तक टैक्स कलेक्शन की बात है तो कर्नाटक दूसरे नंबर पर है, महाराष्ट्र नंबर एक पर है. दरअसल, इस साल कर्नाटक टैक्स के रूप में 4.30 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का योगदान दे रहा है. कर्नाटक केंद्र को 100 रुपये (राजस्व के संदर्भ में) देता है, लेकिन केवल 13 रुपये वापस मिलता है. 14वें वित्त आयोग से 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों के कारण 2025-26 में टैक्स बंटवारे में कर्नाटक को 62,098 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. इसलिए हम आंदोलन कर रहे हैं."
जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने 100 रुपए में केवल 13 रुपए वापस आने की बात कही तो हम भी रुपए के माध्यम से ही समझते हैं कि अगर कोई राज्य टैक्स के रूप में 1 रुपया केंद्र सरकार को भेजता है तो उसे कितने रुपए टैक्स बंटवारे के बाद वापस मिलते हैं.

इन आंकड़ों के आधार पर क्या ये मान लिया जाए कि दक्षिण के राज्यों से भेदभाव हो रहा है? इसी को समझने के लिए हमने अर्थशास्त्री और लेखक शरद कोहली से बात की. दक्षिण के राज्यों से भेदभाव किए जाने की बात पर उन्होंने कहा, "सरकार की विकास योजनाएं और इस पर खर्च किया जाने वाला पैसा एक सिस्टम के तहत होता है. राज्य की आबादी, क्षेत्रफल, कमाई जैसे पैमानों के आधार पर वित्त आयोग सिफारिश करता है, जिसके आधार पर केंद्र सरकार ये फैसले लेती है. मैं समझता हूं कि दक्षिण में कुछ राज्य सरकारें और पार्टियां NDA गठबंधन में नहीं हैं तो उन्हें शायद ऐसा महसूस होता है कि हमारे साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है. ये सब पॉलिसी के तहत होता है और ये पॉलिसी पब्लिक डोमेन में हैं. इसमें छुपाने के लिए कुछ नहीं है."
साउथ टैक्स मूवमेंट के राजनीतिक पक्ष को जानने के लिए हमने इंडिया टुडे टीवी के कंसल्टिंग एडिटर राजदीप सरदेसाई से बात की. उनका कहना है कि ये मामला कोई नया नहीं है और कई सालों से पब्लिक डोमेन में है. राजदीप के मुताबिक, "दक्षिण के राज्यों को कई सालों से ऐसा लग रहा है कि जो वित्तीय संसाधनों के बंटवारे का सिस्टम है, वो उन्हें सजा दे रहा है. इसकी वजह वे राज्य अपनी कम आबादी को मानते हैं. साउथ की पॉपुलेशन कम है इसलिए उन्हें कम रिसोर्सेज मिलते हैं और उन राज्यों को ज्यादा रिसोर्सेज दिए जाते हैं जिनकी आबादी ज्यादा है मगर इकोनॉमिक ग्रोथ कम है. दक्षिण की राज्य सरकारों को ऐसा लगता है मानो उन्हें कहा जा रहा हो कि आपकी कंडीशन तो ठीक-ठाक है इसलिए आप दूसरे को ज्यादा पैसे दे दीजिए."

चूंकि अभी चुनाव आ रहे हैं इसलिए ये मामला और तूल पकड़ रहा है क्योंकि ये वही राज्य हैं जहां बीजेपी कमजोर है. दक्षिण की सरकारें ये आरोप लगाकर अपनी जनता से कह सकती हैं कि बीजेपी की सरकार केंद्र में है और दक्षिण में नहीं है इसलिए उनके साथ भेदभाव हो रहा है. लेकिन राजदीप ने इसमें ये भी जोड़ा कि लॉन्ग टर्म में ये कहीं न कहीं ये बड़ा मुद्दा बनने वाला है और इसे केवल राजनीतिक दृष्टि से ना देखकर आर्थिक दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए. इन राज्यों की वाकई जो समस्या है, उसका समाधान करना पड़ेगा. इकॉनोमिक इक्वलिटी की जो मांग है - साउथ वर्सेज नार्थ, उसके लिए आपको 16वीं फाइनेंस कमीशन में इसका समाधान लेकर आना पड़ेगा.
टैक्स बंटवारे पर कर्नाटक सरकार का ये भी कहना है कि सूखे को लेकर जिस विशेष सहायता का वादा राज्य से किया गया था, वह अभी तक पूरा नहीं किया गया है.
लेकिन ये डिमांड आखिर चुनावों से पहले क्यों? राजदीप सरदेसाई का इस पर कहना है कि कई राज्यों में अब चुनाव के पहले गारंटी देने की होड़ लग गई है. ऐसे में राज्यों की जो बजट बैलेंसिंग है, उसपर भी दबाव बढ़ा है. इसलिए कर्नाटक जैसे राज्यों को जल्दी से जल्दी फंड्स की दरकार रहती है. ऐसे में ये भी सवाल उठता है कि ये गारंटी वाली बात तो आजकल हर राज्य पर लागू होती है, फिर सिर्फ कर्नाटक की तरफ से ही मांग क्यों? चूंकि 15वीं फाइनेंस कमीशन की ओर से भी दक्षिण के राज्यों को कम पैसा मिल रहा है, इसलिए उनकी ओर से दबाव ज्यादा है. कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है और दूसरे दक्षिण के राज्यों में भी पार्टी का दबदबा है. ऐसे में मुमकिन है कि टैक्स बंटवारे के मुद्दे को उठाकर कर्नाटक (पढ़ें कांग्रेस) दक्षिण का नेतृत्व करना चाह रही है.
टैक्स बंटवारे में राजनीति की गुंजाईश पर अर्थशास्त्री शरद कोहली कहते हैं, "दक्षिण के राज्यों का आरोप है कि केंद्र सरकार उन्हें कम फंड देती है, लेकिन अगर इसे राजनीति के चश्मे से भी देखें तो लोकसभा चुनाव आने वाले हैं और दक्षिण के राज्यों में बीजेपी/एनडीए की स्थिती कमजोर है. ऐसे में फंड में कटौती करने से तो उल्टा उन्हीं का घाटा हो सकता है. इसलिए मेरा मानना है कि सरकार जानबूझकर इसमें कटौती नहीं करती है, बल्कि ये सब पॉलिसी के तहत होता है."
जब आप टैक्स बंटवारे के मानदंडों के वेटेज को देखेंगे तो साफ़ है कि सबसे ज्यादा वजन इनकम डिस्टेंस को दिया गया है और सबसे कम टैक्स एंड फिस्कल एफर्ट्स को. इस वजह से उत्तर प्रदेश और बिहार को जनसंख्या के लिहाज से फायदा हो जाता है और टैक्स एंड फिस्कल एफर्ट्स के कम होने की वजह से दक्षिण के राज्य ज्यादा पैसा भेजने के बावजूद पिछड़ जाते हैं. तो क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि टैक्स एंड फिस्कल एफर्ट्स का वेटेज बढ़ाकर इनकम डिस्टेंस के वेटेज को थोड़ा कम किया जाना चाहिए, जिससे थोड़ी बेहतर बैलेंसिंग हो सके?
राजदीप का इस सवाल पर कहना था, "बिल्कुल यही करना पड़ेगा. केंद्र सरकार के सामने ये साफ एक्सक्यूज है कि आप हमें जिम्मेदार मत ठहराइए, फाइनेंस कमीशन से बात कीजिए. पहले जब प्लानिंग कमीशन हुआ करता था तो इस तरह के मामले ज्यादातर वहीं सुलझ जाया करते थे लेकिन अब तो वो रहा नहीं. सेंटर स्टेट के बीच जो फ्रिक्शन होते थे, उसको भी वहां आप कम कर सकते थे मगर अब ये सब अतीत की बातें हैं. इस मामले में चुनौतियां और तब बढ़ेंगी जब डीलिमिटेशन होगा और साउथ की सीटें उत्तर के अनुपात में कम हो जाएंगी. तो कहीं न कहीं ये बैठक करनी पड़ेगी नहीं तो दक्षिण के मुख्यमंत्रियों के एक साथ आने की पूरी संभावना है."
अब चूंकि सरकार 15वीं फाइनेंस कमीशन के रेकमेंडेशन्स के आधार पर ही टैक्स का वितरण कर रही है, तो आगे दक्षिण के राज्यों के लिए ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे उन्हें भेदभाव ना महसूस हो? शरद कोहली ने इसके जवाब में कहा, "सबसे बड़ी बात है कि आम लोग क्या सोचते हैं. अगर आम लोगों में ये भावना बैठ जाती है कि हमारे साथ केंद्र सरकार भेदभाव कर रही है, तो उसे ठीक करना जरूरी है. इसके लिए चुनाव से पहले नेताओं को आंकड़ों के साथ जमीन पर जाना चाहिए और लोगों को समझाने की कोशिश करनी चाहिए."