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अकेले जूझते उद्धव

अपने दिवंगत पिता से विरासत में मिली पार्टी को बचाने के लिए शिवसेना प्रमुख अपने राजनीतिक जीवन की सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं

मुश्किल वक्त... उद्धव ठाकरे मातोश्री में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में
मुश्किल वक्त... उद्धव ठाकरे मातोश्री में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में
अपडेटेड 19 जुलाई , 2022

बीते 30 जून को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाने के बाद से उद्धव ठाकरे बदले हुए व्यक्ति लग रहे हैं. कुर्सी छोड़ने के अगले 10 दिनों में उन्होंने मध्य मुंबई में दादर स्थित पार्टी मुख्यालय 'शिवसेना भवन' का चार बार दौरा किया. ताजा माहौल में यह मामूली बात लग सकती है, लेकिन इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि पिछले तीन वर्षों में पार्टी कार्यालय की यह उनकी सबसे अधिक बार की गई यात्राएं हैं. हर दूसरे दिन वे पार्टी पदाधिकारियों और निर्वाचित प्रतिनिधियों को संबोधित भी करते रहे हैं. हालांकि, उद्धव के अचानक सक्रिय होने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है. यह अपने पैरों के नीचे जो भी जमीन बची है, उसे बचाए रखने की कोशिश का एक तरीका है. विशेष रूप से इस बात का कि उनकी पार्टी पूरी तरह से उनका तख्ता पलट कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने वाले एकनाथ शिंदे के हाथों में न चली जाए.

विधानसभा में शिवसेना के 55 में से 40 विधायकों को साथ लेकर पार्टी विभाजित करने में सफल होने के बाद पार्टी पर भी शिंदे का कब्जा होने का खतरा न सिर्फ वास्तविक है, बल्कि अस्तित्व का प्रश्न भी है. मौजूदा स्थिति को अपने पक्ष में मोड़ने की दोनों पक्षों की आतुरता से बहुत-सी ऐसी रणनीतिक बारीकियां पैदा हुई हैं, जो एक पखवाड़े पहले तक चले लंबे संघर्ष के दिनों में नहीं दिखी थीं. इसीलिए, उद्धव से जब उनके प्रति वफादार 12 लोकसभा सांसदों ने विपक्ष से नाता तोड़ने और भाजपा उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन देने का आग्रह किया तो आधिकारिक शिव सेना ने 12 जुलाई को ऐसा ही करने की घोषणा की. कुछ लोगों का कहना है कि इसके पीछे विद्रोही खेमे के साथ शत्रुता का भाव कम करने और संयोगवश भाजपा के साथ भी संबंध सुधारने की सोच है. शिवसेना के दोनों धड़ों के बीच गहरी कड़वाहट के साथ ही भाजपा के साथ कोई बिगाड़ न होने की स्थिति में भी भरोसे के साथ किसी तालमेल की भविष्यवाणी करना मुश्किल है. लेकिन तत्काल निर्णय की जरूरत पैदा करने वाले घटनाक्रम काफी महत्वपूर्ण हैं-जैसे स्थानीय निकाय चुनावों का एकदम सिर पर होना. और, दक्षिणपंथ की ओर उद्धव खेमे की सशर्त वापसी भी महाराष्ट्र के राजनीतिक समीकरणों को एक बार नए सिरे से लिख सकती है.

वैधानिक रूप से शिंदे समूह को अभी भी औपचारिक ठप्पा नहीं मिला है, लेकिन मजे से सत्ता में रहते हुए उसके सभी सहायक लाभों के साथ वे बढ़त की स्थिति में है. शिवसेना के भीतर भी जमीन नए सीएम के पक्ष में झुकी लगती है. मूल दल के भीतर असंतोष न भी कहें तो अशांति तो तब भी स्पष्ट थी जब गत 11 जुलाई को 19 में से सात लोकसभा सांसद उद्धव द्वारा अपने आवास पर बुलाई गई बैठक से अनुपस्थित रहे. (इसी बैठक में मौजूद लोगों ने उन्हें समझाया था कि वे हठ के बजाय चतुराई से काम लें). इस बीच शिंदे ठाणे, नवी मुंबई और कल्याण-डोंबिवली के नगर निगमों के लगभग सभी पार्षदों का समर्थन पाने में भी कामयाब रहे हैं. 

फिलहाल पार्टी में लगातार आ रही कमजोरी को दूर करने की उद्धव की एकमात्र उम्मीद सुप्रीम कोर्ट के समक्ष वह याचिका है जिसमें शिंदे और 15 अन्य को पार्टी के आदेशों का पालन नहीं करने के कारण अयोग्य घोषित करने की मांग की गई है. 11 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि वह याचिका पर सुनवाई के लिए संविधान पीठ का गठन करेगा क्योंकि तत्काल सुनवाई संभव नहीं है. इसलिए अयोग्यता का सवाल कुछ महीनों के लिए हवा में लटकता रह सकता है.

यह संकट उद्धव के असामान्य राजनीतिक करियर के लिए निर्णायक साबित हो रहा है. क्या उनमें विपरीत स्थितियों से उबरने और संकटों को झेल पाने के लिए जरूरी दम-खम है? हालांकि उनमें एक बात तो जरूर है. एक अनिच्छुक राजनेता वाली अपनी छवि के विपरीत उद्धव हमेशा एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति रहे हैं. 90 के दशक की आरंभ में अपने करियर के शुरुआती दिनों में वे वन्यजीव फोटोग्राफी पर अधिक समय लगाते थे और अपने अधिक करिश्माई चचेरे भाई राज को आगे बढ़ने का रास्ता दे रहे थे. हालांकि, जब उनके पिता और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने 1997 में उन्हें बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के चुनाव के लिए रणनीति बनाने की जिम्मेदारी सौंपी, तो उन्होंने अपने अंदर एक चतुर राजनेता के छिपे होने का सबूत दिया. उद्धव ने अपने पहले प्रयास में ही कांग्रेस को पटखनी दे दी, और तब से अब तक बीएमसी पर अपनी पकड़ नहीं खोई है. वर्ष 2003 में जब बालासाहेब ने राज की इच्छा के विरुद्ध उन्हें सेना के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में पदोन्नत किया तब से शिंदे के विद्रोह के पहले तक उद्धव अपने सभी राजनीतिक विरोधियों को खत्म करने में सफल रहे हैं.

उद्धव के लिए उम्मीद की डोर अभी भी कोई बहुत कमजोर नहीं है. पार्टी और कैडर का उन पर भरोसा है. कुछ अपवादों को छोड़कर शिवसेना के किसी भी पदाधिकारी ने शिंदे का समर्थन नहीं किया है. शिवसेना की लगभग पूरी राष्ट्रीय कार्यकारिणी-256 सदस्यों में से 249- ने भी उनके साथ एकजुटता व्यक्त की है. इससे बालासाहेब के बेटे को अहसास हुआ है कि वे अपनी विरासत बचाए रख सकते हैं और पार्टी संगठन में फूट को टाल सकते हैं. उद्धव ने 8 जुलाई को संवाददाताओं से कहा, ''कोई भी शिवसेना से शिवसैनिकों को नहीं छीन सकता. हमारे 'तीर-धनुष' (शिवसेना के प्रतीक) पर दावा करने का कोई सवाल ही नहीं है.'' कानूनी जानकारों का कहना है कि शिंदे धड़ा केवल तभी चुनाव चिह्न पर दावा कर सकता है, जब पूरी पार्टी में ऊपर से नीचे तक विभाजन हो. संविधान विशेषज्ञ उल्हास बापट कहते हैं, ''विधायक दल चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक दल से अलग होता है. इस प्रकरण में चुनाव आयोग की भूमिका तब सामने आएगी जब पार्टी संगठन में ऊपर से नीचे तक विभाजन हो.''

विधानसभा में शिंदे गुट ने कानून के एक अस्पष्ट हिस्से का सहारा लेते हुए दावा किया है कि वह मूल शिवसेना का प्रतिनिधित्व करता है. संविधान की 10वीं अनुसूची के अनुसार, यदि दो तिहाई विधायक किसी विधायक दल से अलग हो जाते हैं, तो भी वे एक अलग समूह नहीं बना सकते. विधानसभा की सदस्यता बरकरार रखने के लिए उन्हें किसी राजनीतिक दल में विलय करना होगा. इस मामले में, शिंदे गुट को शिवसेना के रूप में मान्यता देने का निर्णय स्पीकर राहुल नार्वेकर के पास है. उनके इस फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. दोनों गुटों के बीच वर्चस्व की पहली जमीनी लड़ाई 18 अगस्त को होगी, जिस दिन 94 नगर परिषदों के चुनाव होने हैं. शिंदे ने कहा है कि वे 'मॉनसून के मद्देनजर' इसे टालने की मांग करेंगे. हालांकि, अगर चुनाव तय कार्यक्रम के अनुसार होते हैं, तो विश्लेषक ही नहीं आम लोग भी उत्सुकता से देखेंगे कि धनुष-बाण किसके हाथ आता है. उद्धव ने बागियों से समझौते का विकल्प भी एक शर्त के साथ खुला रखा है. उन्होंने 8 जुलाई को संवाददाताओं से कहा, ''उनका स्वागत है, लेकिन उस पार्टी के साथ नहीं जिसने हमें केवल दर्द दिया है.'' उनका मतलब निश्चित रूप से भाजपा से था, जो उनके मुताबिक शिवसेना को खत्म करने और उसका राजनीतिक स्थान हथियाने के लिए सक्रिय है.

इस बीच, वे अपने प्रति निष्ठावानों को एक साथ रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. उनके बेटे आदित्य अपदस्थ मुख्यमंत्री की बात कैडर तक पहुंचाने के लिए मुंबई में पार्टी कार्यालयों का दौरा कर रहे हैं. और, वे जो कुछ भी कह रहे हैं उस पर एक तबके का भरोसा भी है. मिसाल के तौर पर औरंगाबाद के मेयर नंदकुमार घोडिले का कहना है कि वे हर हाल में ठाकरे परिवार के साथ रहेंगे. उनका कहना है, ''शिवसेना अब तक के सभी संकटों के बीच मजबूती से खड़ी रही है. हम इस पर भी काबू पा लेंगे.'' शिवसेना कार्यकर्ता बांद्रा पूर्व स्थित ठाकरे के आवास 'मातोश्री' के माहौल में बदलाव की भी बात करते हैं. मुंबई के एक कार्यकर्ता का कहना है, ''पहले, हमें यहां लोगों से मिल पाने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था. किसी को इसकी चिंता नहीं होती थी कि क्या हम भूखे-प्यासे हैं. लेकिन, जब मैं पिछले हफ्ते गया, तो मुझे नाश्ता और एक बोतल पानी मिला. यह सुखद आश्चर्य जैसा था.''

शिकारी समूह

इस बीच, मुख्यमंत्री शिंदे ''विकास'' के माध्यम से आम शिवसैनिक को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं. वे इस बात का भी ध्यान रख रहे हैं कि ठाकरे को सीधे निशाने पर न लिया जाए. शिंदे खेमे के मुख्य सचेतक भरत गोगावले की 'अवज्ञा' करने के आरोप में 14 उद्धव समर्थक विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए विधानसभा अध्यक्ष नार्वेकर के सामने उनकी गुट की याचिका में आदित्य का नाम जान-बूझकर छोड़ा गया है. इस बारे में बीती 5 जुलाई को शिंदे ने संवाददाताओं से कहा, ''ठाकरे परिवार के लिए हमारे मन में बहुत सम्मान है. हम नहीं चाहते कि आदित्य विधानसभा की सदस्यता खो दें. वे हमारे देवता बालासाहेब के पोते हैं.''

इसी के साथ वे अपने पूर्ववर्ती द्वारा की गई गलतियों से भी बचने का प्रयास करते दिखते हैं. राकांपा के एक नेता का कहना है, ''उद्धव ने सरकारी पदों के लिए विधायकों की ओर से दिए गए नामों की ज्यादा परवाह नहीं की, लेकिन शिंदे विधायकों की सिफारिशें मंजूर करने के इच्छुक दिखते हैं. इसका बड़ा असर पड़ता है.'' पदभार संभालने के एक हफ्ते के भीतर ही शिंदे ने अपने समर्थकों के सुझावों के आधार पर दो बड़े फैसले लिए हैं. उन्होंने मराठा इतिहास में ऐतिहासिक महत्व के स्थल रायगढ़ जिले के हिरकानी गांव के विकास के लिए 21 करोड़ रुपये जारी करने की मंजूरी दी. इसके अलावा, उन्होंने 7 जुलाई को विधायक महेश शिंदे की मांग के अनुसार घोषणा की कि बेंगलूरू-मुंबई औद्योगिक गलियारे के लिए सतारा के कोरेगांव में जमीन उपलब्ध कराई जाएगी.

इस तरह से मुख्यमंत्री ने मुंबई के बाहर के ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों के शिवसेना विधायकों को तो अपने साथ कर लिया है, लेकिन एक बाधा अभी भी बनी हुई है. यह बाधा है कैडर द्वारा गठित अब तक अभेद्य रही व्यूह रचना. और, खेल अब यहीं से बदलेगा जहां उद्धव ने अपनी रक्षा खाइयां खोद रखी हैं. संगठन के स्तर पर अभी लड़ाई बाकी है. शिवसेना सांसद विनायक राउत का दावा है कि पार्टी पदाधिकारी और कार्यकर्ता शिंदे के साथ नहीं हैं. उनके मुताबिक, ''सैनिक बालासाहेब से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं. वे ठाकरे के बिना शिवसेना की कल्पना नहीं कर सकते.''

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