कांग्रेस में राहुल गांधी की मौजूदा हैसियत बताना हो तो यही कहा जाएगा कि वे पार्टी के 52 लोकसभा सदस्यों में से एक हैं. हालांकि पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल सर्वोच्च नीति-निर्धारक संस्था कांग्रेस कार्यसमिति में शामिल हैं, लेकिन वे महासचिव तक नहीं हैं. इसके बावजूद पिछले दो महीने से यानी नॉवेल कोरोना वायरस पर काबू के लिए राष्ट्रीय लॉकडाउन लागू किए जाने के वक्त से ही राहुल कांग्रेस का चेहरा और आवाज, दोनों रहे हैं. मगर फिर कांग्रेस की अध्यक्ष तो उनकी मां सोनिया गांधी ही हैं, जो पार्टी की सबसे कद्दावर नेता हैं.
मां और बेटे के बीच अधिकारों और जिम्मेदारियों का यह अलिखित बंटवारा ही है, जिसने हर किसी को पार्टी में नेतृत्व की ऊहापोह को लेकर अटकलें लगाने पर मजबूर कर दिया है. लॉकडाउन ने इस ऊहापोह को बढ़ाया ही है, खासकर तब जब पार्टी के दो धड़ों—सोनिया के वफादारों और राहुल की चौकड़ी—के बीच शह और मात का खेल छिड़ गया है.
मिसाल के लिए, लॉकडाउन लागू होने के एक दिन बाद 26 मई को सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी और ‘गंभीर स्वास्थ्य संकट से निपटने’ और हमारे समाज के कमजोर तबकों के ऊपर आ पड़ी ‘भारी आर्थिक तथा अस्तित्व की तकलीफों का समाधान करने’ के उपाय सुझाए. तीन दिन बाद राहुल ने भी इसी विषय और इसी तर्ज पर प्रधानमंत्री के नाम एक चिट्ठी दाग दी.
लॉकडाउन शुरू होने के वक्त से ही मां और बेटे, दोनों अक्सर सार्वजनिक तौर पर सामने आते और बोलते रहे हैं. हालांकि ज्यादातर वे वर्चुअल ढंग से यानी स्क्रीन पर ही आए और बोले हैं, पर दोनों के ही लिए यह अभूतपूर्व है. सोनिया गांधी ने तीन वीडियो जारी किए, कार्य समिति की दो बैठकें कीं, एक बैठक समान विचार वाली पार्टियों के साथ की, राज्य कांग्रेस प्रमुखों के साथ एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की और प्रधानमंत्री को छह चिट्ठियां लिखीं.
राहुल ने पांच वीडियो जारी किए, तीन प्रेस कॉन्फ्रेंस (जुलाई, 2019 में पार्टी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा देने के बाद पहली बार) कीं और तीन चिट्ठियां लिखीं. तिकड़ी की तीसरी सदस्य प्रियंका गांधी वाड्रा भी प्रवासियों के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर प्रहार करने से लेकर वीडियो अपील जारी करने तक खासी सक्रिय रहीं (इसी अंक में देखें: नए तेवर दिखाती कांग्रेस) पर उन्होंने खुद को यूपी तक सीमित रखा, जिसकी वे प्रभारी हैं.
इन तीनों गांधी के सक्रिय होने का एक मिला-जुला असर यह हुआ कि मुख्य विपक्षी दल के तौर पर कांग्रेस की हैसियत मजबूत हुई. खासकर तब जब हाल के चुनावों में खराब प्रदर्शन की वजह से उसकी इस हैसियत पर खतरा मंडरा रहा था. मगर इससे अक्सर दोहराया जाने वाला सवाल फिर खड़ा हो गया: पार्टी की कमान असल में किसके हाथ में है?
माना जा रहा था कि दिसंबर, 2017 में—जब पार्टी के शीर्ष पर दो दशकों तक रहने के बाद सोनिया गांधी ने राहुल गांधी के लिए कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी खाली कर दी थी—इस सवाल का निर्णायक जवाब मिल चुका है. मगर 2019 के लोकसभा चुनाव में विनाशकारी पराजय के बाद, जब लगातार दूसरी बार पार्टी 543 सदस्यों के सदन में दहाई अंकों तक सिमट गई, राहुल ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. तीन महीनों तक पार्टी उनका उत्तराधिकारी नहीं खोज पाई. आखिरकार सोनिया गांधी ने फिर पद संभाला. इस घटनाक्रम ने एक बार फिर उजागर किया कि गांधी परिवार के अलावा पार्टी में नेतृत्व का शून्य कितना गहरा है.
सोनिया गांधी की वापसी के साथ पार्टी के वे दिग्गज नेता भी लौट आए जो राहुल के कार्यकाल में कुछ हद तक अपनी आवाज गंवा बैठे थे. उन लोगों ने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की उस कोशिश को सफलता से नाकाम कर ही दिया था जिसमें कुछ उत्साही नेताओं ने राहुल के रुखसत होने के बाद पार्टी अध्यक्ष के पद के लिए चुनाव करवाने की मांग की थी. राहुल ने वापसी से दो-टूक इनकार क्या किया कि पुराने घुटे-घुटाए नेताओं की स्थिति और मजबूत हो गई जबकि राहुल समर्थक धड़ेबाजों को लगा कि उन्हें अधर में छोड़ दिया गया है.
जल्द ही लगने लगा कि केंद्रीय कमान हाथ से जा रही है, खासकर जब अनुच्छेद 370 को खत्म करने सरीखे विवादित मुद्दों पर पार्टी की तरफ से विरोधाभासी बातें कही जाने लगीं. कई बार, मसलन नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) 2019 के खिलाफ देश भर में सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों के दौरान, पार्टी के शीर्ष नेता सड़कों से गायब थे. समान विचारों वाले विपक्षी दलों का समर्थन जुटाने की गरज से बुलाई गई एक बैठक ने उल्टे विपक्षी एकता की दरारों को ही उघाड़कर रख दिया था. इन सबके बीच पार्टी के मामलों को लेकर राहुल की उदासीनता ने उन लोगों को बेचैन कर दिया जिनकी पीठ पर दिग्गजों का हाथ नहीं था.
इन्हीं हालात के बीच कोविड-19 महामारी के दौरान टीम राहुल ने ताड़ लिया कि यह उनके लिए वापसी का अच्छा मौका है. जिस बात ने उनके भीतर नाउम्मीदी और बेताबी के एहसास को हवा दी, वह थी ज्योतिरादित्य सिंधिया—राहुल के सबसे नजदीकी सिपहसालारों में से एक—की विदाई और उसके बाद राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के ठीक पहले 25 मार्च को मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का पतन.
राहुल के एक करीबी सहयोगी कहते हैं, ‘‘हम मध्य प्रदेश में देख ही चुके थे कि पुराने नेता थोड़ी भी जगह देने को तैयार नहीं थे. अपने मुकाबले एक युवा नेता को सत्ता के ढांचे में जगह देने की बजाए वे सरकार कुर्बान करने को तैयार हैं. और भी कई युवा नेता जाने को तैयार थे. ऐसे में यह संदेश देना जरूरी था कि राहुल गांधी खेल से बाहर नहीं हैं.’’
लिहाजा थोड़े वक्त निष्क्रिय रहने (सीएए विरोधी प्रदर्शनों और दिल्ली दंगों के दौरान वे ज्यादातर गायब रहे) के बाद राहुल ने फरवरी में कोविड-19 के खिलाफ जंग की तैयारियों को लेकर मोदी सरकार को निशाना बनाना शुरू किया. पिछले आम चुनाव का सबक वे सीख ही चुके थे, जब मोदी के खिलाफ उनके निजी अभियान का उल्टा नतीजा निकला था, लिहाजा उन्होंने एहतियातन प्रधानमंत्री पर सीधा हमला नहीं बोला. अपनी प्रेस वार्ताओं में उन्होंने बार-बार दोहराया, ‘‘हम यहां आलोचना करने के लिए नहीं हैं. हम रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाना चाहते हैं.’’
राहुल की सधी कोशिश खुद को एक ऐसे शख्स के तौर पर पेश करने की थी जो न सिर्फ संवेदनशीलता के साथ सुनना चाहता है बल्कि सीखने को भी तैयार है. इसलिए ऐसे वीडियो आए जिनमें उन्हें रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी जैसे विशेषज्ञों से सलाह लेते या सड़क पर गरीब प्रवासियों से बात करते दिखाया गया. असल में प्रवासी संकट ने कांग्रेस को मोदी सरकार के खिलाफ सबसे ज्यादा गोला-बारूद मुहैया किया.
राहुल ने न केवल उनकी तकलीफों को जोर-शोर से उठाया बल्कि पार्टी ने ऐसा हंगामा खड़ा किया कि प्रधानमंत्री मोदी आखिरकार 31 मई को अपने मन की बात रेडियो कार्यक्रम में इस संकट को स्वीकार करने के लिए मजबूर हो गए.
इन सबसे राहुल ज्यादा सक्रिय दिखाई तो दिए, पर उनके आलोचकों को (पार्टी के भीतर और बाहर) अब भी उनके चुनाव-जिताऊ नेता होने की क्षमता पर शक है. कांग्रेस के एक राज्यसभा सदस्य कहते हैं, ‘‘उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंसों से उनका फायदा कम और नुक्सान ज्यादा हो रहा है. इनसे भाजपा को मीम बनाने के लिए मसाला ही ज्यादा मिल रहा है.’’
वैसे राहुल की टीम के सदस्य फिक्रमंद नहीं हैं क्योंकि वे इसे लंबे वक्त की रणनीति मानते हैं. उनका कहना है कि राहुल पार्टी के शीर्ष पर नहीं हैं, लिहाजा वे चुनाव जिताने की जिक्वमेदारी से मुक्त हैं और इसकी बजाए ‘‘भाजपा की नफरत की राजनीति और बेवकूफी के अर्थशास्त्र’’ के खिलाफ नैरेटिव गढऩे पर ध्यान दे सकते हैं. उनके एक करीबी सहयोगी कहते हैं, ‘‘हमारा लक्ष्य मोदी को हराना नहीं है. उनका पतन तो उनकी नादानियों और घमंड से होगा. हमारा काम तो यह बताना है कि राहुल गांधी ब्रांड राजनीति भारत के लिए सबसे अच्छा विकल्प क्यों है. वक्त लग सकता है लेकिन हमें पूरा भरोसा है.’’
दूसरों का कहना है कि प्रवासी मजदूरों पर लगातार जोर देकर राहुल और प्रियंका ने समझदारी का काम किया है, क्योंकि उनमें से 80 फीसद उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं—यानी उन दो राज्यों के, जहां लोकसभा की 120 यानी कि 22 फीसद सीटें हैं. फिलहाल वे दोनों जनता का ध्यान खींचने में तो कामयाब रहे हैं, लेकिन इसे वोटों में बदलना लंबे वन्न्त की चुनौती है और इसके लिए बिल्कुल जमीनी स्तर पर पार्टी का बुनियादी ढांचा खड़ा करना होगा.
यही वह काम है जिसके लिए गहरी बेताबी दोनों में ही नजर नहीं आती. इसके अलावा, पार्टी एक दुष्चक्र में फंस गई है. संगठन का नेटवर्क खड़ा करने के लिए फंड की जरूरत है और कई राज्यों में लंबे वक्त से सत्ता से दूर रहने के चलते रुपए-पैसे के उसके विभिन्न स्रोत बंद हो गए हैं. इतना ही नहीं, पार्टी ने राज्यों में नेताओं को तैयार करने में मुश्किल से ही निवेश किया है, लिहाजा कई राज्यों में संगठन का ढांचा बहुत बुरी हालत में है. राहुल के एक सहयोगी कहते हैं, ''हां, इसमें वन्न्त लगेगा पर लोगों के मन से जुडऩे वाला एक मुद्दा संगठन की कमियों की भरपाई कर देगा.’’
मगर सवाल यह है: क्या पुराने दिग्गज नेता यह लंबा और थकाऊ खेल चलने देंगे, क्या वे टीम राहुल के लिए राजनैतिक जगह छोड़ेंगे? इसकी संभावना नहीं है. राहुल गांधी के दक्रतर का कामकाज देखने वाले पूर्व-अफसरशाह के. राजू और एक समय उनके मार्गदर्शक रहे टेक्नोक्रैट सैम पित्रोदा ने 8 अप्रैल को कांग्रेस-शासित राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों के साथ एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की ताकि उन्हें कोविड-19 महामारी से निबटने का रास्ता दिखा सकें. दो दिन बाद पुराने नेताओं ने सोनिया और राज्य कांग्रेस प्रमुखों की एक वीडियो कॉन्फ्रेंस करवाई, जो जाहिरा तौर पर यह दिखाने की कोशिश थी कि बॉस कौन है.
पार्टी ने 18 अप्रैल को ‘मौजूदा चिंताजनक विषयों पर विचार करने और विभिन्न मुद्दों पर पार्टी के विचारों को सूत्रबद्ध करने’ के लिए राहुल सहित 11 सदस्यों का एक सलाहकार समूह बनाया. इसमें ज्यादातर राहुल के वफादार थे और किसी वरिष्ठ दिग्गज को जगह नहीं मिली. तीन दिन बाद सोनिया गांधी ने दिग्गजों की सलाह के अनुसार, महामारी पर चर्चा के लिए कार्य समिति की बैठक बुलाई. यह कार्य समिति की एक माह में दूसरी बैठक थी, पर हाल के वन्न्त में ऐसा कभी नहीं हुआ था.
पुराने दिग्गज 4 मई को तब भी टीम राहुल के मुकाबले ध्यान खींचने में सफल रहे जब सोनिया गांधी ने कहा कि घर जा रहे प्रवासी मजदूरों का रेल किराया कांग्रेस अदा करेगी. खासकर तब जब केंद्र सरकार फंसे हुए प्रवासियों से उनकी यात्रा का किराया वसूलने के लिए व्यापक आलोचना झेल रही थी. सोनिया की पेशकश के बाद मोदी सरकार ने सफाई दी कि 85 फीसद किराया रेलवे अदा करेगी और बाकी राज्य सरकारों से आएगा. वैश्विक विशेषज्ञों के साथ राहुल की बातचीत पर तंज कसते हुए कार्य समिति के एक सदस्य कहते हैं, ‘‘इस घोषणा ने फिर दिखा दिया कि सोनिया ही बॉस हैं. नेता समाधान पेश करते हैं, वे दूसरों से समाधान नहीं मांगते.’’
अलबत्ता परिवार के वफादारों का कहना है कि इस किस्म का बंटवारा महज दोनों ओर के धड़ेबाजों के दिमाग में है. यह हमेशा साफ रहा है कि राहुल ‘सियासी तौर पर अनुकूल’ वक्त पर पार्टी की विरासत संभालेंगे जबकि प्रियंका उत्तर प्रदेश पर अपनी ऊर्जा केंद्रित करेंगी जो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस में नई जान फूंकने के लिए बेहद अहम है.
हालांकि यह वक्त निश्चित तौर पर अनुकूल नहीं है, शायद इसीलिए राहुल ने कमान संभालने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. तब तक भ्रम और टकराव का मौजूदा ढांचा कायम रहेगा. सोनिया के एक वफादार कहते हैं, ‘‘स्पष्टता नहीं होने से पार्टी में गांधी परिवार के सामने कोई भी चुनौती कमजोर पड़ जाती है और उन्हें कांग्रेस के लिए प्रासंगिक और अपरिहार्य बनाए रखती है. इन तीनों में से कोई भी जमीनी जननेता नहीं है, जो समर्पित कार्यकर्ताओं को प्रेरित करता हो. वे इसी ऊहापोह में फलते-फूलते हैं.’’
राहुल गांधी की सधी कोशिश खुद को एक ऐसे शख्स के तौर पर पेश करने की थी जो न सिर्फ संवेदनशीलता के साथ सुनने चाहता है बल्कि सीखने को भी तैयार है
कार्य समिति के एक सदस्य कहते हैं, ‘‘इस घोषणा ने एक बार फिर दिखा दिया कि सोनिया गांधी ही बॉस हैं. नेता समाधान पेश करते हैं, वे दूसरों से समाधान नहीं मांगते.’’
सत्ता के केंद्र
| अंतरात्मा के रखवाले (मुख्य रूप से नीतिगत मुद्दों और संकट प्रबंधन के लिए उनसे परामर्श किया जाता है) |
| मोतीलाल बोरा |
| मनमोहन सिंह |
| ए.के. एंथनी |
| राहुल का दरबार |
रणदीप सिंह सुरजेवाला पार्टी के संचार प्रभारी और राहुल इनकी सुनते हैं |
भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री |
नवजोत सिंह सिद्धू कैप्टन ने राज्य की राजनीति में उन्हें हाशिए पर धकेला, पर गांधी का उन्हें वरदहस्त है क्योंकि कैप्टन के सामने संतुलन साधने के लिए वे जरूरी |
के.सी. वेणुगोपाल पार्टी के संगठन सचिव, उनका राजस्थान से राज्यसभा जाना तय माना जा रहा है |
| राजीव सातव युवा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल की खोज हैं; 2019 में चुनाव नहीं लड़ा और अब राज्यसभा जाने की तैयारी में |
अजय माकन लोकसभा के बाद विधानसभा का चुनाव भी हार गए और खराब सेहत का हवाला देते हुए दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ दी थी |
के. राजू पूर्व-नौकरशाह और राहुल के दक्रतर के प्रभारी हैं. अब ज्यादा समय अपने गृह राज्य आंध्र प्रदेश में बिताते हैं |
प्रवीण चक्रवर्ती कांग्रेस के डेटा एनालिटिक्स सेल के प्रमुख हैं |
जयराम रमेश नीतिगत मुद्दों पर राहुल अब भी इनसे परामर्श लेते हैं, लेकिन पार्टी के फोरम में इनका प्रभाव नाममात्र ही है |
परिवार के वफादार
| अधीर रंजन चौधरी | मल्लिकार्जुन खड़गे | सुष्मिता देव | लुइजिन्हो फलेरो | कुमारी शैलजा |
| बंगाल के कद्दावर सांसद और लोकसभा में पार्टी के नेता हैं | कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य हैं, उन्होंने 2019 का चुनाव नहीं लड़ा और धीरे-धीरे उनका प्रभाव घट रहा है | अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष, पिछला लोकसभा चुनाव हार गई थीं | गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री और सीडब्ल्यूसी सदस्य; फिलहाल गोवा के विधायक हैं और उत्तर-पूर्व के लगभग प्रत्येक राज्य इनकी निगरानी में हैं | हरियाणा विधानसभा चुनावों में पार्टी का नेतृत्व किया; हुड्डा ने पार्टी आलाकमान पर दबाव बनाकर उन्हें राज्यसभा का टिकट नहीं लेने दिया |
सोनिया का दरबार
| अहमद पटेल | वे पार्टी के खजांची, सोनिया के राजनैतिक सलाहकार और सत्ता की असली धुरी हैं |
| गुलाम नबी आजाद | राज्यसभा में विपक्ष के नेता, जिनका राहुल और सोनिया गांधी, दोनों के साथ सीधा संवाद है |
| अशोक गहलोत | राजस्थान के सीएम; पायलट से चुनौती मिल रही पर उन्हें अभी पर्याप्त संख्या में विधायकों और गांधी परिवार का समर्थन |
| भूपिंदर सिंह हुड्डा | उन्होंने विधानसभा चुनावों के दौरान अपना कद बढ़ाया. उनके नेतृत्व में पार्टी ने हरियाणा विधानसभा की 90 में से 31 सीटें जीती लेकिन सरकार नहीं बना सकी |
| आनंद शर्मा | राज्यसभा सदस्य और विदेश नीति से जुड़े मुद्दों पर पार्टी का चेहरा हैं |
| कपिल सिब्बल | कानूनी मुद्दों पर इनसे राय ली जाती है लेकिन विवादास्पद बयान देकर उन्होंने कई बार पार्टी के लिए बहुत असहज स्थिति पैदा कर दी |
स्वतंत्र क्षत्रप
| कमलनाथ | मध्य प्रदेश में फिर से सीएम बनने की आस में |
| दिग्विजय सिंह | कोई विशेष मित्र नहीं, पर उन्हें पता है कि कब किसकी नस दबानी है; राज्यसभा में एक और कार्यकाल के जुगाड़ में सफल |
| तरूण गोगोई | सीडब्ल्यूसी सदस्य; असम के पूर्व मुख्यमंत्री, गांधी परिवार के साथ नजदीकी के कारण अब भी राज्य में कांग्रेस का चेहरा बने हुए हैं |
| कैप्टन अमरिंदर सिंह | पार्टी की राज्य इकाई पूरी तरह से पंजाब के मुख्यमंत्री की मुट्ठी में है; पार्टी के पुराने दिग्गजों या गांधी परिवार को रिपोर्ट नहीं करते |
| सिद्धारमैया | कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री, विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं, पर प्रतिद्वंद्वी डी.के. शिवकुमार की प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति उनके लिए अच्छी खबर नहीं है |
| उम्मन चांडी | सीडब्ल्यूसी सदस्य; केरल के पूर्व मुख्यमंत्री, अब भी केरल में पार्टी के सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं |
| वी. नारायणसामी | पुदुच्चेरी के मुख्यमंत्री |
राज्यों के सूरमाः असंतुष्ट
| सचिन पायलट | उनके नेतृत्व में पार्टी ने राजस्थान विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की पर मुख्यमंत्री की कुर्सी गहलोत को मिली; राज्य में किनारे लगा दिए गए और नाराज हैं, पर इनके पास ज्यादा विकल्प नहीं |
| आर.पी.एन. सिंह | लगातार दो लोकसभा चुनाव हारे पर झारखंड में एआइसीसी के प्रभारी के रूप में पार्टी को झामुमो और राजद के छोटे सहयोगी के रूप में सत्ता तक पहुंचाने में सफल रहे |
| जितिन प्रसाद | लगातार दो लोकसभा चुनावों में हार के बाद 2017 में विधानसभा का चुनाव भी हार गए. 2019 में भाजपा में चले ही गए थे पर विडंबना कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ही उन्हें ऐन मौके पर भाजपा के पंजे से खींच लाए थे |
| मिलिंद देवड़ा | लगातार दो लोकसभा चुनाव हारे और उन्हें मंबई कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाया गया था लेकिन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाए |
| जितेंद्र सिंह | राजघराने के वारिस और पूर्व केंद्रीय मंत्री, 2019 में लोकसभा चुनाव हार गए |
| संदीप दीक्षित | दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में उनकी दिवंगत मां शीला दीक्षित के 15 साल के शासनकाल के बाद से वे लगातार बागी तेवर में ही रहे हैं |
दिग्गजों के चहेते
| शक्ति सिंह गोहिल | सीडब्ल्यूसी सदस्य; गुजरात से राज्यसभा का टिकट पाने में सफल रहे, बिहार और दिल्ली के एआइसीसी प्रभारी हैं |
| हरीश रावत | सीडब्ल्यूसी सदस्य; 2017 में लोकसभा चुनाव और 2019 में विधानसभा चुनाव हारे; अब असम में पार्टी के प्रभारी हैं |
| राजीव शुक्ला | पर्दे के पीछे के खिलाडिय़ों में से एक शुन्न्ला का सभी दलों में संपर्क है; अहमद पटेल की कान हैं |
| डी.के. शिवकुमार | कर्नाटक कांग्रेस के नए अध्यक्ष और पार्टी के प्रमुख संकटमोचन |
| अविनाश पांडे | सीडब्ल्यूसी सदस्य; राजस्थान में एआइसीसी प्रभारी |
| बी.के. हरिप्रसाद | खडग़े के बावजूद उन्हें दोबारा राज्यसभा सदस्य बनाना चाहते हैं |
विशेषाधिकार प्राप्त बेटे
गौरव गोगोई पिता: तरुण गोगोई | सीडब्ल्यूसी के स्थायी आमंत्रित सदस्य; दो बार लोकसभा चुनाव जीते, पश्चिम बंगाल समेत तीन राज्यों के एआइसीसी प्रभारी |
| दीपेंदर सिंह हुड्डा पिता: भूपिंदर सिंह हुड्डा | सीडब्ल्यूसी के विशेष आमंत्रित सदस्य; लोकसभा चुनाव हार गए, हरियाणा से राज्यसभा का टिकट पाने में सफल |
| नकुल नाथ पिता: कमलनाथ | पिता के विधानसभा क्षेत्र छिंदवाड़ा से विधानसभा चुनाव जीते |
| जयवर्धन सिंह पिता: दिग्विजय सिंह | मध्य प्रदेश में जब पार्टी सरकार में थी तो मंत्री बनाए गए थे |
| प्रियांक खडग़े पिता: मल्लिकार्जुन खड़गे | कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे हैं; फिलहाल विधायक हैं |
रक्षा पंक्ति
| अभिषेक मनु सिंघवी | पी. चिदंबरम |
जब कभी पार्टी किसी कानूनी संकट में फंसती है, सिंघवी संकटमोचन के रूप में सामने आते हैं; अनुच्छेद 370 जैसे मसलों पर अलग विचार रखे, लेकिन पार्टी के मंचों पर नाममात्र स्थान मिला; तृणमूल की मदद से राज्यसभा में हैं | पार्टी के आर्थिक योद्धा; जब ईडी और सीबीआइ के मामलों में वे जेल गए तो पार्टी उनके साथ खड़ी रही |
झरोखे से
| शशि थरूर | मनीष तिवारी | सलमान खुर्शीद |
पार्टी की कमियों पर बेधड़क उंगली उठा देते हैं. तीन बार के सांसद थरूर को अखिल भारतीय प्रोफेशनल्स कांग्रेस का प्रमुख बनाया गया, लेकिन लोकसभा में पार्टी के नेता पद के लिए उनकी अनदेखी की गई | लोकसभा में पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों में से एक, लेकिन वे कार्य समिति के सदस्य भी नहीं हैं | राजनैतिक पैठ ज्यादा नहीं है और पार्टी के मुस्लिम स्वर की उनकी छवि भी लगातार धुंधली हो रही है |
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