उत्तराखंड में साल दर साल मॉनसून के दौरान कोई न कोई गांव, कस्बा या शहर आपदा से नष्ट हो रहा है. प्रशासनिक मशीनरी आपदाओं से बचाव के लिए कारगर तरीके ईजाद करने में अब तक नाकाम रही है. बकौल पूर्व आइएएस अफसर सुरेंद्र सिंह पांगती, यह राज्य बसा ही हिमालय के ऐसे छोर पर है जहां आपदाओं का आना निश्चित है पर इससे बचने का तंत्र बनाने के लिए आमजन और शासन दोनों को आगे आना पड़ेगा लेकिन 17 साल में आपदाओं से कोई सबक नहीं लिया गया.
अभी 2013 में आई केदार आपदा के जख्म भरे भी न थे कि साल दर साल आपदाएं कहीं न कहीं अपना प्रभाव दिखा ही रही हैं. केदार आपदा के दरम्यान रामबाड़ा नामक स्थान मटियामेट हो गया था. इस साल 14 अगस्त की रात कैलाश मानसरोवर यात्रा पथ पर मालपा और मांगती का नामोनिशान मिट गया. अब तक भी लोगों और सेना के कर्मियों के शवों को खोजा नहीं जा सका है. इस आपदा में 30 लोग काल कवलित हो गए. उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ की धारचुला तहसील के मुख्यालय से 45 और 65 किलोमीटर दूर यह दोनों पड़ाव 13 अगस्त की मध्यरात्रि तक चहल-पहल भरे थे. लेकिन अगली सुबह बादल फटने से मची तबाही ने इन दोनों पड़ावों में सोये लोगों को बचने का तक मौका नहीं दिया.

सर्वाधिक नुक्सान घट्टाबगड़, मालपा और मांगती क्षेत्र में हुआ. सेना के बेस कैंप घट्टाबगड़ में बादल फटने की घटना में आर्मी के कई जवान शहीद हो गए. रोड के किनारे लगे आर्मी के टेंट और लोगों की दुकानें भी बह गईं. आर्मी के दो ट्रक पानी के तेज बहाव में बहकर लापता हो गए. बचे ट्रकों और सामान को अत्यधिक क्षति हुई. मांगती नाले के दोनों तरफ के पहुंच मार्ग, सुरक्षा दीवारें, खेत और लगे जंगल भी बह गए और पेयजल लाइनें ध्वस्त हो गईं. कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग कई जगह से गायब था. मालपा से जुडऩे वाली पुलिया नजानगाड में बह गई. पैदल मार्ग बह गया, जिस कारण मालपा क्षेत्र में पैदल पहुंच पाना फिलहाल संभव नही है. पूरा मालपा क्षेत्र 1998 की आपदा की भांति मलबे से पट गया. वहां मौजूद चार होटल और कच्चे मकान बह गए.
इसके बाद कैलाश मानसरोवर यात्रा को कुछ समय के लिए रोककर यात्रा में जा चुके लोग एयर लिक्रट किए गए और फिर कैलाश मानसरोवर यात्रा को भी कुछ पड़ावों में एयर लिफ्ट कर भेजा गया. हालांकि अब यात्रा समाप्त हो चुकी है. मांगती में केंद्रीय राज्यमंत्री अजय टक्वटा विधायक बिशन सिंह चुफाल समेत कुमायूं आयुक्त, डी.आई.जी. पहुंचे. उनके दौरे के बाद आपदाग्रस्त क्षेत्र मालपा में आइटीबीपी, एसएसबी, एसडीआरएफ के जवान तैनात हुए हैं. मालपा में हेलिकॉप्टर से काफी मात्रा में खाद्यान्न भी भेजा गया.
नुक्सान का जायजा लेने के लिए विधायक पुष्कर सिह धामी के साथ विधायक पूरन सिंह फर्तियाल समेत वीरेंद्र सिह पाल, राजेंद्र्र सिंह रावत और बसंत जोशी ने आपदाग्रस्त क्षेत्र का दौरा कर मुख्यमंत्री को रिपोर्ट सौंपी. मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि संबंधित क्षेत्रों मंत आपदा प्रभावित लोगों को त्वरित राहत पहुंचाने का हर संभव प्रयास किया गया है. मुख्यमंत्री ने कहा कि समिति की रिपोर्ट पर आवश्यक कार्रवाई की जाएगी. पुष्कर धामी ने मुख्यमंत्री से मिलकर भू-स्खलन और बाढ़ की दृष्टि से अति संवेदनशील नदी घाटी क्षेत्रों में तत्काल खनन, विस्फोटकों के प्रयोग और पत्थरों के अवैज्ञानिक तौर तरीकों पर रोक लगाने की मांग की. उन्होंने सुझाया कि भू-स्खलन की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों का वर्गीकरण हो और अति संवेदनशील क्षेत्रों के आस-पास बसी आबादी को अन्यत्र पुनर्वासित किया जाए.
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में नैनीताल लोकसभा से सांसद भगत सिंह कोश्यारी. आपदाग्रस्त गांवों—मालपा, मांगती, गुंजी, बुंदी और छियालेख की यात्रा कर आए हैं. कई जगह तो उन्हें रस्सियों के सहारे लोगों तक पहुंचना पड़ा.
ऐसा नहीं है कि इस कैलाश मानसरोवर मार्ग में यह पहली दुर्घटना हो. इससे पूर्व साल 1998 में कैलास मानसरोवर यात्रा दल मालपा में ही आपदा का शिकार बना था तब मानसरोवर यात्रियों समेत लगभग 250 लोग यहां पहाड़ ढहने से मलबे में दबकर मारे गए थे. फिल्म अभिनेता कबीर बेदी की पत्नी और प्रख्यात ओडिशी नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी भी इसी यात्री दल की हिस्सा थीं. घटना के बाद मालपा को यात्री दल का पड़ाव तो नहीं रखा गया, लेकिन इसके दूसरे छोर को बसने जरूर दिया गया जो इस बार बादल फटने की तबाही से अब पूरी तरह नेस्तनाबूद हो गया. यहां मानसरोवर यात्रियों के दबने की याद में बने संग्रहालय को भी इस बार की आपदा दबा गई. चमोली में 78 गांव खतरे के कगार पर खड़े हैं. डेंजर जोन होने के बावजूत एक दशक से इन गांवों की विस्थापना नहीं हुई है.
राज्य की आपदा के हालत पर नजऱ डालें तो अकेले चमोली जिले में मॉनसून को लेकर आपदा प्रबंधन महकमे ने 78 गांवों में भूस्खलन का खतरा मंडराने की सूची तैयार की है. चमोली जिला भी पिथोरागढ़ की तरह ही आपदा की दृष्टि से अति संवेदनशील है. ऐसे में बारिश के दौरान आपदा प्रभावित गांवों के लोगों को सिर बचाना मुश्किल हो जाता है. आपदा प्रबंधन ने 78 के विपरीत 17 गांवों के विस्थापन का प्रस्ताव शासन को भेजा भी है, लेकिन अब तक एक ही गांव फरकंडे का ही विस्थापन हो सका है. पर्यावरणविद् और संरक्षणवादियों ने लगातार संकरी घाटियों में सड़क निर्माण में विस्फोटकों के इस्तेमाल पर रोक लगाने, नदियों से अंधाधुंध खनन को रोकने, पहाड़ काटने के नियम सख्ती से लागू करने, वृक्षों की अंधाअंध कटाई रोकने की मांग की है.
सरकार दावा करती रही है कि उसने राज्य में आपदा से निबटने को आपदा मंत्रालय गठित कर कई फैसले लिए हैं. राज्य की अपनी स्टेट डिजास्टर रिलीफ फोर्स गठित की है. जिला और तहसील स्तर पर आपदा राहत केंद्र स्थापित किए हैं लेकिन जब भी किसी जगह आपदा आती है तो यह तंत्र इससे निबटने में असहाय ही नजर आता है. कभी सूचना और संचार तंत्र धोखा देता है तो सड़क यातायात तो सबसे पहले ध्वस्त हो जाते हैं. जिसके तहत होती मुश्किल के चलते इस बार सरकार ने सेटेलाइट फोन खरीदे हैं और हर जिले को थमाए हैं ताकि संचार की असुविधा से बचा जा सके. लेकिन ये इंतजाम नाकाफी हैं.
साल 2012 में भारत के मौसम विभाग ने राज्य के लिए तीन डॉप्लर रडार मंजूर किए. इनमें से एक-एक मसूरी व नैनीताल और एक पिथौरागढ़, चमोली व उत्तरकाशी जनपदों में से किसी एक में लगाया जाना था. विडंबना देखिए कि अब भी इसकी स्थापना एक भी जगह पर नहीं हो सकी. मौसम के पूर्वानुमान के लिहाज से डॉप्लर रडार को अहम माना जाता है. इसके जरिए छोटे-छोटे क्षेत्रों में संभावित अतिवृष्टि का पूर्वानुमान 15 मिनट से लेकर एक घंटे पहले तक लगाया जा सकता है. राज्य के अपर सचिव आपदा प्रबंधन सविन बंसल के अनुसार, अब तीनों जगहों यथा मसूरी नैनीताल और अल्मोड़ा में इन डाप्लर राडारों की स्थापना के लिए भूमि की ब्यवस्था हो गई है शीघ्र ही इन्हें लगाया जाएगां.
उत्तराखंड की सेंट्रल यूनिवर्सिटी हेमवतीनंदन बहुगुणा यूनिवर्सिटी में भूगर्भ विज्ञान विभाग के डॉ. एमपीएस बिष्ट के अनुसार, उत्तराखंड में नदियां, पर्वत, बुग्याल और तमाम झरने देखने में जितने सुन्दर और मनमोहक हैं, उतने ही नाजुक और संवेदनशील भी. इनके साथ छेड़छाड़ और जलवायु परिवर्तन से हालात बद से बदतर हो रहे हैं.

