एक
अफसाना जॉर्ज डब्लू बुश के कायाकल्प का था. बरसों तक अंधाधुंध पीने के बाद
नेक ईसाई के तौर पर उनका दोबारा जन्म हुआ. इससे उन्हें इतने साफ ढंग से
सोचने की ताकत मिली कि वे लगातार दो कार्यकालों के लिए अमेरिका के
राष्ट्रपति बने. जल्दी ही राहुल गांधी का भी अपना एक अफसाना हो सकता है.
2014 के आम चुनाव में कांग्रेस की खौफनाक हार के एक साल बाद वे दो महीने
लंबी छुट्टी लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया चले गए. वहां उन्होंने दूसरी चीजों के
अलावा विपश्यना में ध्यान लगाया और न सिर्फ तरोताजा होकर बल्कि मानो नया
जन्म लेकर लौटे.
इस पुनर्जन्म से पहले उन्होंने कांग्रेस की हार के कर्म
को फिर से जिया था और पार्टी के 500 से ज्यादा कार्यकर्ताओं के साथ गहन
बातचीत करके यह जानने-समझने की कोशिश की थी कि आखिर क्या गड़बड़ी हुई. जवाब
काफी बेरहम थे, जिनकी तुलना “एक मुकम्मल तूफान” से की गई.
कांग्रेस की
अगुआई में 10 साल की यूपीए की हुकूमत में सरकार ने कई गलतियां कीं. तेजी से
ऊपर चढ़ती तेल की कीमतों की वजह से अर्थव्यवस्था सुस्ती की शिकार हो गई.
सरकार ने सत्ता को विकेंद्रित करने की जबरदस्त मुहिम छेड़ दी, जिसमें जमीन
अधिग्रहण कानून और सूचना का अधिकार कानून भी शामिल था. उन्होंने दावे के
साथ कहा कि इन कानूनों से गहराई से जमे हितों को चोट पहुंची और वे नरेंद्र
मोदी के पीछे जा खड़े हुए. इससे ज्यादा अहम बात यह थी कि कांग्रेस के पुराने
नेताओं और राहुल गांधी की अगुआई में तैयार हो रहे नए नेताओं के बीच अलगाव
बढ़ता गया.
इस पूरे टेढ़े-मेढ़े पोस्टमॉर्टम के दौरान राहुल अपने नजदीकी
सहयोगियों से कहते थे कि इतनी बुरी हार ही उनके लिए “सबसे अच्छी चीज” और
“सीख देने वाला सबसे बड़ा तजुर्बा” था. अप्रैल 2015 में छुट्टी से लौटने पर
कांग्रेस के उपाध्यक्ष ने अपने लिए साफ और दो-टूक एजेंडा तय किया-उस
धारणा को ध्वस्त करना, जिसे मोदी ने अपने अभूतपूर्व चुनाव अभियान के दौरान
इतनी जद्दोजहद के साथ विकसित किया था.
राहुल हाल ही में जिन पाउलो कोएलो की
बातों का अक्सर जिक्र करते रहे हैं, उन्हीं के शब्द उधार लेकर कहें, तो
देश का समूचा सियासी माहौल भी उनके मिशन को सहारा देने की साजिश में शामिल
हो गया. अगर जनवरी 2015 में मोदी के नफीस सूट ने, जिस पर उनका नाम कढ़ा हुआ
था, सुर्खियां बटोरीं, तो अगले ही महीने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में
बीजेपी की हार ने उनके अपराजेय होने के मिथक की हवा निकाल दी. संसद के
मॉनसून सत्र में पहली बार दिखाई दिए अपने नए अवतार में राहुल ने अपने करियर
का पहला सियासी मुहावरा गढ़ा “सूट-बूट की सरकार.”
यह सियासी शब्दावली भी
किसी इत्तफाक का नतीजा नहीं थी. खुद उनके लफ्जों में, यह “उनके ऊपर
कांग्रेस के रेगमाल की रगड़” थी. वह अतीत के अकादेमिक सलाहकारों से मिले और
उनसे बात की, मगर सियासी लफ्फाजी के साथ अपने संदेश की पैकेजिंग करने की
अहमियत वे समझ चुके थे. पार्टी में कोई भी अछूत नहीं था. चाहे वे अहमद
पटेल, पी. चिदंबरम और कमल नाथ सरीखे पुराने दिग्गज हों या ज्योतिरादित्य
सिंधिया, अजय माकन, रणदीप सिंह सुरजेवाला, सचिन पायलट और दीपेंद्र हुड्डा
सरीखे युवा नेता, सभी को रणनीतिक विचारों के लिए स्पीड डायल पर रखा और
बढ़ावा दिया गया.
उस देश में जहां 65 फीसदी आबादी 35 साल से कम उम्र की
है, राहुल के दिमाग में यह बिल्कुल साफ था कि धारणा की इस लड़ाई को जीतने के
लिए बुनियादी तबका कौन-सा है. इसलिए वह बेंगलुरू यूनिवर्सिटी से लेकर
मुंबई की नरसी मोंजी इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट तक और हैदराबाद
विश्वविद्यालय से दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक देश भर में
कैंपसों के दौरे पर गए. इन दौरों में भारी भूलें हुईं और श्रोता खास
प्रभावित नहीं हुए थे, मगर जुड़ने की कोशिश सच्ची थी.
अगला कदम इस फन
में महारत हासिल करना था कि हरेक मुद्दे को गरीब बनाम अमीर की लड़ाई में
कैसे तब्दील किया जाता है-फिर चाहे वह जमीन अधिग्रहण का मामला हो या
जीएसटी का, मोदी के विदेशी दौरे हों या महाराष्ट्र, बुंदेलखंड या आंध्र
प्रदेश में किसानों की बदहाली हो.
देखते ही देखते प्राथमिक विमर्श विकास,
नौकरियों, भ्रष्टाचार और गरीबी से हटकर गोमांस पर प्रतिबंध, अवाॅर्ड वापसी,
एफटीआइआइ में नियुक्ति, जाति को लेकर जंग और असहमति के अधिकार पर आ गया.
जंग का नारा भी तश्तरी पर सजा-सजाया तैयार मिल गया-बांटने वाली बीजेपी
बनाम समावेशी कांग्रेस. राहुल ने एक से दूसरे पर छलांग लगाते हुए हर मुद्दे
पर अपनी आवाज बुलंद की, तो मोदी ने अपनी अटल खामोशी से गांधी परिवार के
वारिस की आवाज को और भी जोर से गूंजने का मौका दिया. राहुल के इस नए अवतार
की बदौलत ताजा जनमत सर्वेक्षण में कांग्रेस के जनसमर्थन में बढ़ोतरी हुई है
और वे मोदी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभरकर आए हैं.
तो भी जंग
अभी महज चैथाई ही जीती गई है. कांग्रेस के कई नेता स्वीकार करते हैं कि
राहुल को अभी देश के कॉर्पोरेट जगत की स्वीकार्यता हासिल करनी है, जो
उन्हें जमीन अधिग्रहण और पर्यावरण के मुद्दों पर उनके कठोर रुख के चलते
उद्योग-विरोधी के तौर पर देखता है. लगातार नकार की सियासत की बजाए उन्हें
भारत के बारे में ज्यादा तालमेल वाली दूरदृष्टि विकसित करनी होगी. ऐसा करने
के लिए उनके पास अभी तीन साल और हैं.
राहुल का कायाकल्प
अपनी बारी का इंतजार कर रहे नेता के हाथों कांग्रेस में नई जान फूंकने की शानदार पटकथा. हालांकि राहुल को अभी देश के कॉर्पोरेट जगत की स्वीकार्यता हासिल करनी है, जो उन्हें जमीन अधिग्रहण और पर्यावरण के मुद्दों पर उनके कठोर रुख के चलते उद्योग-विरोधी के तौर पर देखता है.

अपडेटेड 23 फ़रवरी , 2016
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