साधारण मेज और सामने लगी कुर्सियों पर बैठे चार लोग नेता से मिलने की बारी का इंतजार कर रहे हैं. यह नजारा है दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी (आप) के पटेल नगर स्थित कार्यालय के रिसेप्शन का. कुर्सी पर बैठा अधेड़ उम्र का एक पार्टी कार्यकर्ता जेब से एक परचा निकालता है, जिसमें असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति और उसके लिए रोजगार मेला लगाने का जिक्र है. परचा दिखाते हुए अचानक उसका स्वर तीखा हो जाता है, “हमने भ्रष्टाचार के खिलाफ 1031 टोल फ्री नंबर दिया, अब दिल्ली पुलिस 1064 नंबर जारी कर रही है. पहले क्यों नहीं ख्याल आया? हम सिखाएंगे तुम्हें राजनीति...हम काम करेंगे तो इंसान होने के नाते हमसे गलती भी होगी, लेकिन हम जान-बूझकर कुछ गलत नहीं करेंगे.” तल्ख अंदाज और फर्राटेदार लहजे में वह शख्स चंद मिनटों में तमाम मुद्दे गिना देता है जिसको लेकर दिल्ली सरकार और केंद्र के बीच विवाद सड़कों पर आ चुका है.
आप के कार्यकर्ताओं का यह तेवर पार्टी की बदली हुई उस रणनीति की झलक है जहां क्रांति नहीं बल्कि खुद को पीड़ित दिखा जनता की सहानुभूति बटोरना है. आप के शीर्ष रणनीतिकारों में शामिल एक नेता कहते हैं, “49 दिन वाली हमारी सरकार क्रांति से प्रेरित थी, इस बार व्यावहारिक सरकार है.” आप बेहद सधी हुई रणनीति पर काम कर रही है. काम भले न हो, लेकिन वह उन तमाम मुद्दों पर काम करते हुए दिखना चाहती है, जो भले उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आते हों. मसलन, पिछले छह महीनों में दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार विधानसभा के दो विशेष सत्र बुला चुकी है, जिसमें राज्य सरकार के अधिकारों को लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय के नोटिफिकेशन को खारिज करना और दूसरा महिला जांच आयोग के गठन के लिए प्रस्ताव पर थे. पार्टी की रणनीति में सबसे बड़ा बदलाव जनलोकपाल बिल को लेकर आया है, जिस मुद्दे पर केजरीवाल ने 49 दिन के बाद ही सरकार से इस्तीफा दे दिया था. लेकिन पिछली बार की गलतियों से सबक लेते हुए आप ने इस बार जनलोकपाल को अपनी प्राथमिकता से बाहर कर दिया है. आप के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “इस बार जनलोकपाल बिल को लेकर हम जल्दबाजी में नहीं हैं. हम यह समझ चुके हैं कि जनता के मानदंड अलग हैं, हम पहले वही सारे काम कर रहे हैं जो लोगों की नजर में जरूरी है.”
दरअसल आप की रणनीति विवादस्पद मुद्दों के तकनीकी पहलुओं में जनता को उलझाना नहीं है. इसलिए पार्टी की संचार रणनीति, “जो जनता को समझ में आता है, वही बात करो” तक सीमित है. पार्टी के एक वरिष्ठ रणनीतिकार की दलील है कि आप की सफलता का यही राज है. इस रणनीति को आगे बढ़ाते हुए पार्टी पोस्टरों और प्रचार के अन्य माध्यमों का इस्तेमाल कर रही है. पार्टी अपनी प्रचार की रणनीति की हर सप्ताह समीक्षा करती है और जरूरत पड़ने पर किसी नकारात्मक प्रचार सामग्री को वापस लेने में हिचक नहीं दिखाती.
केंद्र से टकराव पर आप के राष्ट्रीय प्रवक्ता आशुतोष इंडिया टुडे से कहते हैं, “जान-बूझकर प्रधानमंत्री मोदी की ओर से आप सरकार को काम नहीं करने दिया जा रहा. उन्हें डर लग रहा है कि दिल्ली में जो हमारा जादू चला है, वही जादू पंजाब और अन्य राज्यों में भी चला तो बीजेपी की हालत खराब हो जाएगी.” उनका कहना है कि पुलिस और जमीन के अलावा केंद्र सरकार सेवा यानी ट्रांसफर-पोस्टिंग में भी राज्य सरकार को अपने हिसाब से काम नहीं करने दे रही. लेकिन दिल्ली विधानसभा में दूसरी बार चुने गए बीजेपी विधायक ओम प्रकाश शर्मा इस मामले में कहते हैं, “आम आदमी पार्टी झूठ बोलने की मशीन बन गई है. दिल्ली में 98 फीसदी अधिकारियों-कर्मचारियों की नियुक्ति सीधे दिल्ली सरकार करती है. करीब दो फीसदी ऐसे अधिकारी हैं जो प्रशासनिक सेवा में हैं जो केंद्र सरकार के अधीन हैं और उनकी तैनाती दिल्ली के अलावा अंडमान, दमन-दीव जैसे कई अन्य केंद्र शासित प्रदेशों में भी होती है. तो केजरीवाल अन्य राज्यों की चाभी क्यों चाहते हैं?”
हालांकि दबी जबान आप के कुछ अन्य नेता मानते हैं कि दिल्ली पुलिस और जमीन का अधिकार कभी राज्य सरकार को नहीं मिल सकता. लेकिन उसकी रणनीति इसे उछालते रहने की है ताकि कानून-व्यवस्था को लेकर राज्य सरकार कटघरे में खड़ी न हो. तो क्या 49 दिनों वाली सरकार छोड़ने की वजह से अपरिपक्व कही जाने वाली आप अब राजनीति की व्यावहारिकता को समझ गई है? आप में हुई आपसी कलह और फर्जी डिग्री मामले में पूर्व कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर का इस्तीफा, विधायकों पर लगे गंभीर आरोपों ने केजरीवाल सरकार की साख पर सवाल खड़े किए हैं.
इसके अलावा विधायकों को संसदीय सचिव बनाने को लेकर भी आप की अलग राजनीति के सिद्धांतों पर सवाल उठ रहे हैं. लेकिन आप के नेता यह मानने में गुरेज नहीं करते कि कुछ मामलों में उससे गलती हुई है. विपक्ष की नजर में संसदीय सचिवों की बड़ी फौज तैयार करने की वजह भले तुष्टीकरण हो, लेकिन आप की रणनीति राजनीति की नई पौध को अगली पीढ़ी के लिए तैयार करने की है.
लेकिन टकराव की इस राजनीति में आप जुनूनी नहीं होना चाहती. उसका फोकस शीर्ष स्तरीय करीब आधा दर्जन नेताओं की छवि पर है. आप के एक नेता कहते हैं, “केंद्र सरकार हम पर जितना हमला करेगी, हमें उतना फायदा होगा बशर्ते हमसे कोई बड़ी भूल न हो और किसी पर भ्रष्टाचार का आरोप न लगे.” लेकिन आप की बदली हुई दशा-दिशा पर जवाहर लाल नेहरू विवि के प्रोफेसर सी.पी. भांबरी कहते हैं, “आप भी अन्य पार्टियों की तरह दिख रही है, जिसका मकसद चुनाव लड़ना और सरकार बनाना मात्र होता है. बीजेपी को हराने के बाद उन्हें समझ लेना चाहिए था कि मोदी सरकार परेशान करेगी. लेकिन केजरीवाल पहले दिन से टकराव की नीति पर चल पड़े, जबकि उन्हें अपनी सीमाओं में काम करके दिखाना चाहिए था. अगर आप यह समझती है कि इस राजनीति से जनता उसके पक्ष में है तो शायद वे यह भूल रहे हैं कि बीजेपी को भी चुनाव में 30 फीसदी वोट मिले थे.”
आप ने जिस तरह से बिहार चुनाव में नीतीश कुमार को परोक्ष समर्थन दिया है उससे साफ है कि केजरीवाल की नजर कांग्रेस के सिमटने की वजह से खाली हुई विपक्ष की जगह को भरने की है, जिसके लिए वे लगातार गैर कांग्रेस-गैर बीजेपी दल शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से संपर्क बनाए हुए हैं. बिहार चुनाव में भी केजरीवाल की रणनीति नीतीश के लिए अपील की बजाए नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोलने की है. बिहार के बाद केजरीवाल सबसे बड़ा दाव पंजाब में खेलेंगे और दिल्ली की तरह ही वहां आप का परचम लहराया तो राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर खड़े होने के केजरीवाल के मंसूबे को पंख लग जाएंगे.
भले लोग आप को क्रांति और बदलाव के नजरिए से देख रहे हों, लेकिन अब सत्ता की व्यावहारिकता से पार्टी को टकराव की राजनीति में राष्ट्रीय फायदा नजर आ रहा है.
आम आदमी पार्टी: टकराव में दिख रहा फायदा!
क्रांति के सहारे दिल्ली की सत्ता पर काबिज आप अब व्यावहारिक हुई. केंद्र से टकराव बढ़ा सियासी जमीन मजबूत करने की सोच.

अपडेटेड 10 अगस्त , 2015
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