''महात्मा गांधी को सबसे प्रिय थी—सफाई, स्वच्छता. क्या हम तय करें कि 2019 में जब हम महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाएंगे तो हम गांव, शहर, गली, मोहल्ला, स्कूल, मंदिर, अस्पताल, सभी क्षेत्रों में हम गंदगी का नामोनिशान नहीं रहने देंगे?''
''हम 21वीं सदी में जी रहे हैं. क्या कभी हमारे मन को पीड़ा हुई कि आज भी हमारी माताओं-बहनों को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है? डिग्निटी ऑफ विमेन, क्या हम सबका दायित्व नहीं है? बेचारी गांव की मां-बहनें अंधेरे का इंतजार करती हैं, जब तक अंधेरा नहीं आता है वे शौच के लिए नहीं जा पाती हैं. उनके शरीर को कितनी पीड़ा होती होगी, क्या हमारी मां-बहनों की इज्जत के लिए हम कम से कम शौचालय का प्रबंध नहीं कर सकते हैं?''
लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले भाषण में न सिर्फ दर्द छलका, बल्कि एक लक्ष्य निर्धारित कर उसे पूरा करने का जज्बा भी झलका. लेकिन क्या सिर्फ लच्छेदार भाषणों से भारत को पांच साल में स्वच्छ बनाने का लक्ष्य पूरा हो जाएगा? इसका जवाब वित्तीय मामलों से जुड़ी संसद की प्राकलन (एस्टीमेट) समिति की नौ महीने बाद आई एक रिपोर्ट में मिल जाती है, जिसकी कमान बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य मुरली मनोहर जोशी के हाथ है. समिति की टिप्पणी काबिल-ए-गौर है, ''प्रस्तावित मदों से स्वच्छता मिशन के लिए फंड उपलब्ध कैसे होगा, सरकार अभी तक तय नहीं कर पाई है, जबकि मिशन को पूरा करने के लिए 2019 का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है. संसाधनों का उचित बंदोबस्त किए बिना मिशन की समय सीमा निर्धारित कर देने से न सिर्फ लक्ष्य प्रभावित होगा बल्कि गंभीर अनिश्चितता का माहौल भी पैदा करेगा. इसलिए सरकार को पहले मिशन के लिए जरूरी धन की व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए.''
कहां से आएगा धन?
किसी को भी इस बात में संदेह नहीं होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के झाड़ू उठाने और स्वच्छता की अपील का व्यापक असर हुआ है. लेकिन यह भी कड़वी सचाई है कि भारत की जो 75 करोड़ आबादी गांवों में रहती है, आजादी के 68 साल बाद भी उसमें 50 करोड़ के पास अपना शौचालय नहीं है. ऐसे में स्वच्छता मिशन को तय समय सीमा में पूरा करने के लिए जज्बे के साथ संसाधनों की भी जरूरत है. सरकारी आकलन को ही मान लिया जाए तो देश भर में सिर्फ शौचालय बनाने के लिए कम से कम सवा दो लाख करोड़ रु. चाहिए. लेकिन केंद्र सरकार शहरों के लिए 14,623 करोड़ रु. तो राज्य से 5,000 करोड़ रु. का अंशदान मिलेगा, जबकि ग्रामीण भारत के लिए 12वीं योजना (2012-17) में से शेष 34, 885 करोड़ रु. हैं. यानी बाकी धन की व्यवस्था करने में सरकार की बदहवासी साफ दिख रही है.
हालांकि इस मिशन की देखरेख कर रहे केंद्रीय शहरी विकास और संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू कहते हैं, ''बाकी रकम की व्यवस्था पीपीपी, बाहरी सहयोग, कॉर्पोरेट और स्वच्छ भारत कोष के जरिए होगी. साथ ही सार्वजनिक उपक्रमों और अन्य संस्थाओं से भी मदद ली जा रही है.'' लेकिन संसद की वित्तीय मामलों से जुड़ी प्राकलन समिति ने इस पर गहरी चिंता जताई है. समिति की रिपोर्ट में साफ जिक्र है कि सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन का लक्ष्य तो निर्धारित कर लिया, लेकिन उसके लिए धन कहां से आएगा इसकी कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं है. संसद की ग्रामीण विकास मंत्रालय से जुड़ी स्थायी समिति ने तो स्वच्छ भारत कोष के लिए दो फीसदी उपकर लगाने के इरादे के बावजूद कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं होने पर गंभीर चिंता जताई है.
तो क्या सात दशक लगेंगे?
मिशन की सफलता को लेकर जताई जा रही आशंकाएं निराधार नहीं हैं. मोदी सरकार ने उत्साह के साथ इस अभियान का आगाज किया, लेकिन आम बजट में स्वच्छता विभाग के बजट पर ही कैंची चल गई और बजट में पिछली सरकार के 4,260 करोड़ रु. के मुकाबले 3,500 करोड़ रु. आवंटित हुए. स्थायी समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, इसमें से स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के लिए सिर्फ 2,625 करोड़ रु. रखे गए हैं, जबकि लक्ष्य पूरा करने के लिए सालाना 12, 500 करोड़ रु. आवंटित किया जाना चाहिए. तो क्या प्रधानमंत्री मोदी की 'स्वच्छता नीयत' पर नौकरशाही हावी दिख रही है जो बजट में बढ़ोतरी नहीं होने दे रही? सुलभ इंटरनेशल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक बताते हैं कि पिछली सरकार में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने प्रति शौचालय दी जाने वाली सहायता राशि को 3,000 रु. से सीधे 9,000 रु. कर दिया था. अगर वे सचिव से पूछते तो शायद यह संभव नहीं होता. निजी अनुभवों के आधार पर पाठक कहते हैं, ''बजट बनाते वक्त अधिकारी सिर्फ यहां से काटकर वहां जोडऩे का काम करते हैं. लेकिन हमें यह ध्यान में रखना होगा कि देश को नेता चलाएगा, नौकरशाह नहीं. तभी लक्ष्य हासिल किया जा सकता है.''
स्वच्छता को लेकर मोदी की पहल नई नहीं है. जब 1981 की जनगणना में यह तथ्य सामने आया कि स्वच्छता कवरेज सिर्फ एक फीसदी तक है तो 1986 में केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) शुरू किया जिसमें भी 'डिग्निटी ऑफ विमेन' की बात की गई, जिसका जिक्र मोदी ने लाल किले से पिछले साल किया. फिर 1999 में पूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम (टीएससी) में बदल गया. यूपीए सरकार ने 2012 में इसे निर्मल भारत अभियान में और 2014 में मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) में तब्दील किया. नाम तो बदलते रहे लेकिन इसकी प्रगति बेहद धीमी रही. 2011 तक 32.7 फीसदी लोगों तक स्वच्छता कार्यक्रम पहुंच सका. इसलिए सवाल उठ रहे हैं कि क्या संपूर्ण भारत को स्वच्छता का दायरे में लाने के लिए सात दशक लगेंगे? कई अधिकारी दबी जुबान में पांच साल में सात दशक का काम करने पर संदेह जता रहे हैं, हालांकि एसबीएम (ग्रामीण) के राष्ट्रीय उप सलाहकार जी. बाला सुब्रह्मण्यम कहते हैं, ''लोग भले कह रहे हों कि 2019 तक लक्ष्य पूरा करना संभव नहीं है. लेकिन मेरा मानना है कि यह सौ फीसदी संभव है.''
लेकिन शौचालय निर्माण की दिशा में एक ब्रांड बन चुके सुलभ इंटरनेशनल का कहना है कि सरकार में योजना ठीक से नहीं बन रही और विषय पर पकड़ नहीं रखने वाले सलाहकार भर्ती किए जा रहे हैं जिससे मिशन में वैसा उत्साह नहीं दिख रहा जैसा मोदी ने दिखाया था.
मिशन मोदी का, दारोमदार राज्यों पर लेकिन केंद्र सरकार ने जो लक्ष्य तय किया है उसमें राज्य सरकार और स्थानीय निकाय तेजी न दिखाए तो यह कैसे पूरा होगा. नायडू कहते हैं, ''इस मिशन की सफलता ज्यादातर राज्य और स्थानीय निकायों पर निर्भर है. अगर वे रुचि नहीं लेंगे तो इसको सफल बनाना आसान नहीं होगा.'' (देखें बॉक्स) लेकिन सवाल उठता है कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर की बात करने वाली सरकार अपनी महत्वाकांक्षी योजना के लिए राज्यों पर इतना निर्भर क्यों है? अगर मौजूदा सरकार स्वच्छता मिशन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पाती है तो इसकी जिम्मेदारी किस पर होगी?
सूत्रों के मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी लाल किले से अपने दूसरे भाषण में इस बात का डंका पीटने वाले हैं कि हिंदुस्तान के हर स्कूल में शौचालय बनाने का लक्ष्य एक साल में हासिल कर लिया है. हालांकि यहां भी आंकड़ों का हेरफेर है. संसदीय रिपोर्ट में मंत्रालय की ओर से दिए गए आंकड़ों के मुताबिक, 94 फीसदी स्कूलों में लड़कों के और 84 फीसदी में लड़कियों के लिए शौचालय है. इसमें कुछ खस्ताहाल थे. लेकिन पिछले एक साल में सरकार ने इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाया और अब सौ फीसदी के लक्ष्य हासिल करने का दावा किया जा रहा है.
लेकिन बाकी शौचालयों के निर्माण की दिशा में क्या कदम उठाए जा रहे हैं? पाठक कहते हैं, ''मैंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस मिशन को सफल बनाने के कुछ उपाय सुझाए थे. जिसमें 60,000 युवाओं और 3 लाख राज मिस्त्रियों की प्रशिक्षित फौज तैयार कर प्रति शौचालय 20,000 रु. निर्धारित करने का आग्रह किया था. इससे युवाओं को रोजगार भी मिलता और स्थानीय युवक कमिशन के आधार पर काम करते. साथ ही लोगों को सीधे बैंक खाते में पैसा दिया जाता तो पांच साल में करीब 15 करोड़ शौचालय बन जाते.'' हालांकि पाठक मोदी के प्रयासों की खुलकर तारीफ भी करते हैं. उनका कहना है, ''प्रधानमंत्री के आह्वान से देश जाग गया है. लेकिन उनके विजन के मुताबिक नीचे कोई सोच नहीं दिख रही.'' हालांकि पाठक बेबाकी के साथ यह भी कहते हैं कि स्वच्छता दूत बनाने भर से काम नहीं होगा, अगर लक्ष्य हासिल करना है तो सरकार को एक समर्पित टीम बनानी होगी.
क्या है सरकार की रणनीति
स्वच्छता मिशन को सफल बनाने के लिए सरकार ने त्रिस्तरीय रणनीति बनाई है. इसमें पहले जनता में जागरूकता पैदा करना और फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करना. इसमें शौचालय, पार्किंग आदि का निर्माण करना है. नायडू मानते हैं कि अगर इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं होगा तो लोगों पर दबाव नहीं डाला जा सकता. लेकिन ढांचागत निर्माण के बाद सरकार सिंगापुर जैसे देशों की तर्ज पर कानून भी बनाएगी जिसमें सड़कों पर पार्किंग, थूकने या अन्य गंदगी फैलाने पर कड़ा जुर्माना लगाया जाएगा. सरकार ने मिशन को पांच हिस्सों में बांटा है—शौचालय निर्माण, स्च्छ पेयजल आपूर्ति, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, कूड़े-कचरे से बिजली और खाद का उत्पादन. हालांकि अभी सरकार का ज्यादातर फोकस शौचालय निर्माण पर है. लेकिन इसके लिए वह गांवों में 12,000 रु. तो शहरों में 4,000 रु. दे रही है, जबकि नायडू खुद मानते हैं कि इतनी कम राशि में शौचालय नहीं बन सकता.
ऐसे में सवाल उठता है कि खुले में शौच से मुक्त भारत बनाने का सपना इस सोच के साथ तो पूरा नहीं हो सकता. दूसरी तरफ सरकार करीब 4 लाख करोड़ रु. की राशि के साथ स्मार्ट सिटी जैसी परियोजना आगे बढ़ा रही है तो स्वच्छता के बिना शहर को स्मार्ट कैसे बनाया जा सकता है. पाठक का मानना है कि यही रकम शौचालय के लिए दे दी जाए तो सिर्फ शहर नहीं, पूरे देश में लक्ष्य से ज्यादा बेहतरीन शौचालय का निर्माण हो सकता है. अब सरकार कीआगे की रणनीति नीति आयोग के उपसमूह की 15 अगस्त से पहले आने वाली रिपोर्ट के बाद बनाएगी, जिसमें आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू की अगुवाई में 10 राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल हैं.
इस अभियान की सबसे बड़ी चुनौती ठोस अपशिष्ट प्रबंधन ही है. सरकार अभी तकनीक ढूंढने में ही लगी है. सरकार ने इसके लिए प्रो. माशलेकर के नेतृत्व में 30 से ज्यादा विशेषज्ञों की एक कमिटी बनाई है. महाराष्ट्र के सोलापुर कूड़ा से बिजली बनाने वाली निजी कंपनी ऑर्गेनिक रिसाइक्लिंग सिस्टम के सीएमडी सुहास भांड कहते हैं, ''भारत की खास जरूरतों के हिसाब से बनी हमारी पेटेंट टेक्नोलॉजी है, जिससे बिजली बनाने के बाद जो स्लरी बचता है उससे रसायनिक खाद बनता है और बाकी प्लास्टिक सड़कों के निर्माण में लग जाती है.''
इसमें शक नहीं कि जहां चाह, वहां राह है. मोदी की 'चाह' के बावजूद सरकारी तंत्र को फिलहाल ऐसी कोई 'राह' नहीं सूझ रही जिससे केंद्र अपने बूते पांच साल में भारत को स्वच्छ बनाने का लक्ष्य हासिल कर सके.