राजधानी के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की राष्ट्रीय परिषद की बैठक का मंच सजा है. इसमें नए राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की ताजपोशी पर मुहर लगनी है. बड़ी-बड़ी दो स्क्रीन के बीचोबीच लगे होर्डिंग्स बरबस ध्यान खींचते हैं जो बीजेपी में एक युग के बदलाव का संकेत है. इसमें बाईं तरफ अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की तस्वीर के नीचे लिखा है—एक भारत, तो दाईं तरफ शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर के नीचे लिखा है—श्रेष्ठ भारत. संदेश साफ है कि बीजेपी अब मोदी-शाह युग में प्रवेश कर चुकी है.
होर्डिंग्स पर लिखी इबारत यह भी बता रही थी कि राष्ट्रीय परिषद की मुहर तो महज औपचारिकता थी. शाह की ताजपोशी के पीछे लोकसभा चुनावों में बतौर प्रभारी महासचिव उत्तर प्रदेश में उनकी अप्रत्याशित सफलता को मापदंड बताया जा रहा है. लेकिन तथ्य यह है कि मोदी ने लोकसभा चुनाव के नतीजों से पहले ही शाह को बीजेपी अध्यक्ष बनवाने की कवायद शुरू कर साफ संकेत दे दिए थे कि पार्टी के लिए उनका नजरिया कैसा है. इस नजरिए का खुलासा मोदी अपने भाषणों और कामकाज की शैली से कर चुके हैं. अब उसी नजरिए से शाह पार्टी को नई शक्ल देने की तैयारी कर रहे हैं. उन्होंने पार्टी में आमूल-चूल बदलाव का दीर्घकालिक खाका तैयार कर लिया है. वैसे, एक मायने में मोदी और शाह का राष्ट्रीय राजनीति में अवतरण एक जैसा है. मोदी पहले कभी सांसद भी नहीं रहे और पहली बार चुने गए और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए तो कभी प्रदेश के अध्यक्ष भी नहीं रहे शाह अब बीजेपी के शहंशाह बन गए हैं.
बेशक, अब शाह से पार्टी संगठन में बदलाव और पार्टी को नए क्षेत्रों में प्रसार के मामले में भी उत्तर प्रदेश जैसी सफलता दिखाने की उम्मीद होगी. जाहिरा तौर पर इससे उन्हें राष्ट्रीय पहचान मिली और वे बीजेपी में शिखर पर पहुंच गए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 अगस्त की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में शाह को मैन ऑफ द मैच का तमगा देते हुए कहा, “अगर अमित उत्तर प्रदेश नहीं आते तो उनकी क्षमता का पता देश को नहीं चलता.” हालांकि शाह के ऊपर सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ का मुकदमा चल रहा है और इसी मामले में उन्हें 2010 में जेल भी जाना पड़ा था. तीन महीने बाद मिली जमानत और उसके साथ गुजरात से बाहर रहने की अदालती शर्त उनके निजी जीवन के लिए कठिन भले रही, लेकिन राजनैतिक करियर के लिए मुफीद साबित हुई.
खुद शाह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी सफलता की कहानी भरोसेमंद लोगों के साथ निजी बातचीत में कुछ यों बयान करते हैं, “जब मुझे दो साल गुजरात से बाहर रहने को मजबूर होना पड़ा तो मैंने दिल्ली में रहते हुए उन लम्हों का इस्तेमाल अपना नेटवर्क बनाने में किया. इस दौरान मैं कभी लखनऊ तो कभी देश के अन्य राज्यों में घूमता रहा और उस समय मेरे काफी दोस्त बने. उन्हीं दोस्तों से बना इन्फॉर्मेशन नेटवर्क लोकसभा चुनाव में मेरे काम आया. उस मुश्किल घड़ी में बने दोस्तों में से ही मैंने कुछ लोगों को छांटा और निजी तौर पर उनका सहयोग लिया.” अब बीजेपी के सिरमौर बने शाह ने बदलाव की नींव रखते हुए 20 साल की दीर्घकालिक योजना पर काम करने की रणनीति बनाई है.

बदलेगी संगठन की कार्यशैली
अपनी दीर्घकालिक रणनीति के तहत शाह की प्राथमिकताओं में संगठन को प्रभावी बनाना और पार्टी-सरकार के बीच सामंजस्य बिठाना है. वाजपेयी-आडवाणी युग से राजनाथ सिंह तक सहज सुलभ रहने वाले अध्यक्ष वाला युग खत्म होने वाला है. शाह का मिजाज अपने पूर्ववर्तियों से अलग है. उनके करीबी एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, “वे भीड़भाड़ से दूर रहने वाले शख्स हैं जिन्हें दरबारी राजनीति पसंद नहीं. वे ठोस आंकड़ों के साथ जमीन पर काम करने वालों को तरजीह देते हैं.” 49 वर्षीय शाह अपनी टीम में भी अपनी उम्र से नीचे के लोगों को लाने की तैयारी कर चुके हैं. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान उनके साथ सह प्रभारी की भूमिका निभा चुके और अब राज्य के संगठन मंत्री सुनील बंसल को उन्होंने मिशन-20 साल का मंत्र दिया है.
राज्य संगठन में पदाधिकारियों की अधिकतम उम्र 40 वर्ष तक लाने की योजना पर काम करने की सलाह दी गई है ताकि अगले 20 साल की राजनैतिक योजना बनाकर काम किया जा सके. संघ और बीजेपी पर निगाह रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक राम बहादुर राय बताते हैं, “शाह की खासियत है जो भी व्यक्ति उनके सामने आता है, उसके बारे में दो-तीन मिनट में यह अनुमान लगा लेते हैं कि व्यक्ति संगठन के काम का है या संसदीय राजनीति का.” राय मानते हैं, “शाह संगठन को प्राथमिकता देंगे. अटल युग में संघ से आने वाले संगठन मंत्री का पद इसलिए खत्म कर दिया गया था क्योंकि वे अध्यक्षों पर हावी रहते थे. लेकिन अब शाह उसे बहाल कर रहे हैं.”
शाह की नजर यूपी विधानसभा में भी बीजेपी का परचम लहराने की है. यूपी को लेकर शाह की सोच कितनी स्पष्ट है, एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, “शाह ने चुनाव अभियान के दौरान पार्टी के कुछ नेताओं से निजी बातचीत में कहा था, “यूपी से एक भी मुस्लिम जीतकर नहीं जाएगा.” इसका आधार जातिगत-सामाजिक समीकरण का मजबूत खाका था, जिसके आधार पर टिकट दिए गए थे. सूत्रों के मुताबिक, शाह की योजना अति पिछड़े और दलित वर्ग से कुछ चेहरे लाकर 2017 से पहले नया नेतृत्व खड़ा करने की भी है. इसलिए यूपी में खास तौर से उन नेताओं पर नकेल कसने की भी तैयारी हो चुकी है जो दिल्ली जाकर नेताओं की चापलूसी या शिकवा-शिकायत करते रहते हैं. हाल में संपन्न राष्ट्रीय परिषद की बैठक में पार्टी को 97 ऐसे स्थानीय नेताओं के पहुंचने की रिपोर्ट मिली है जो परिषद के सदस्य नहीं थे. लेकिन चेहरा दिखाने के लिए फर्जी तरीके से परिषद की बैठक में शामिल हो गए थे.
संघ-बीजेपी रिश्तों का नया अध्याय
पहले 2004 के चुनाव में एनडीए की हार और फिर 2005 में लालकृष्ण आडवाणी के जिन्ना प्रकरण के बाद संघ-बीजेपी के रिश्ते खट्टे-मीठे ही रहे हैं. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव की जीत के बाद रिश्तों का नया अध्याय शुरू हो चुका है. शाह और मोदी दोनों के गुजरात से होने को लेकर संघ को हिचक थी, लेकिन वाजपेयी सरकार के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए संघ ने हरी झ्ंडी दे दी. संघ से जुड़े एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि आखिरी निर्णय के लिए जब संघ के शीर्ष नेताओं की टोली बैठी तो उनकी राय बनी, “पार्टी और सरकार का एक ही केंद्र रहना चाहिए. मोदी को फ्री हैंड दिया जाए ताकि बाद में यह शिकायत करने की स्थिति नहीं हो कि जो वह करना चाहते थे, उन्हें नहीं करने दिया गया.”
अमित शाह की टीम से संघ-बीजेपी के नए रिश्तों की झ्लक दिखेगी. संघ कार्यकारिणी के सदस्य राम माधव और प्रचारक शिवप्रकाश को बीजेपी में भेजने और बिना किसी बड़ी औपचारिक जिम्मेदारी के हर बड़ी बैठक में राम माधव की मौजूदगी बेहतर समन्वय की ओर इशारा करती है. उन्हें महासचिव या उपाध्यक्ष बनाकर सरकार-पार्टी में समन्वय की जिम्मेदारी दी जा सकती है. सूत्रों के मुताबिक, संगठन में इस बार संगठन महामंत्री के अलावा पांच से छह सह संगठन मंत्री होंगे. दो-तीन अन्य प्रचारक दक्षिण भारत से लाने की तैयारी है. पहली बार बीजेपी के किसी अध्यक्ष की टीम में संघ से कम-से-कम सात प्रचारक शामिल होंगे. रिश्तों में समन्वय की ही मिसाल है कि जीएम फसल और बीमा, श्रम सुधार जैसे मसलों पर संघ के अनुषंगिक संगठनों के कुछ नेताओं ने मोदी सरकार के खिलाफ बिगुल तो फूंका लेकिन संघ का कोई बड़ा नेता नहीं बोला.
नई पीढ़ी की ड्रीम टीम
एक झटके में संगठन से पुराने लोगों को विदा करना आसान नहीं है इसलिए सूत्रों का कहना है कि शाह अगर अपनी टीम में कुछ पुराने और उम्र में बड़े लोगों को शामिल कर भी लेते हैं तो निर्णय प्रक्रिया में उन पदाधिकारियों की भूमिका सीमित रहेगी. शाह की रणनीति है संवैधानिक लिहाज से जरूरी पदों पर पुराने लोगों को बिठाकर राज्यों से युवा नेताओं को केंद्र में जिम्मेदारी देकर उभारा जाए और यही टीम सही मायने में शाह की टीम होगी जो समानांतर काम करेगी. शाह आंकड़ों और जमीनी तथ्य के साथ रणनीति बनाते हैं और संगठन में भी यही चाहते हैं. आने वाले समय में बीजेपी में अब डाटा के आधार पर राजनीति होगी और संवाद-समन्वय के लिए तकनीक का भरपूर इस्तेमाल होगा. शाह ने संगठन की कार्यशैली बदलने के लिए सबसे पहले खुद पर उसे अमल में लाना शुरू कर दिया है.
मसलन, चार्टर विमान और हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल नहीं करने का फैसला किया गया है. अमूमन बड़े नेता प्रदेशों के दौरे में होटलों में ठहरना पसंद करते हैं, लेकिन शाह ने यूपी में संघ की प्रणाली अपनाई और कार्यकर्ताओं के परिवारों में ही ठहरे. विश्लेषक राय कहते हैं, “संघ की पुरानी कार्यशैली अपनाकर शाह ने कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद किया. अब अपनी उस प्रणाली को वे शायद पूरे देश में अपनाएंगे.” बीजेपी में अब पूरे सिस्टम को आउटसॉर्स कर निगाह रखने की है. शाह अध्यक्ष के बजाए एक सीईओ की भूमिका में होंगे, लेकिन जैसा कि एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि इसका मतलब यह नहीं होगा कि कार्यकर्ताओं को नजअंदाज किया जाएगा. सूत्रों के मुताबिक शाह सहज सुलभ नहीं होंगे, लेकिन कार्यकर्ताओं की बात केंद्र तक पहुंचे, उसके लिए एक अलग तंत्र बनेगा. एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, यह प्रणाली ठीक उसी तरह होगी जैसे आज के जमाने में इंटरनेट बैंकिंग होती है. जहां बैंक जाए बिना भी बैंक से काम हो जाता है. उसी तरह कार्यकर्ताओं की बात केंद्र तक पहुंच जाए और उन्हें दिल्ली आकर नेताओं की परिक्रमा न करनी पड़े. मोदी-शाह की रणनीति ड्रीम टीम तैयार कर अगले लोकसभा चुनाव में नई बीजेपी को मैदान में उतारने की है. शाह और मोदी की कार्यशैली से साफ है कि बीजेपी में वही टिकेगा जो दौड़ सकेगा.

जातिगत आधार वालों को तरजीह
बीजेपी के बारे में एक धारणा है कि यह ब्राह्मण-बनियों की पार्टी है. लेकिन अटल-आडवाणी युग के बाद मोदी-शाह युग में प्रवेश कर चुकी बीजेपी की बड़ी चुनौती इस धारणा को तोड़कर उसे सामाजिक न्याय की पार्टी बनाने की है. पार्टी में इस दृष्टिकोण से राम मंदिर आंदोलन के दिनों की चर्चा भी हो रही है क्योंकि इस दौर में बीजेपी के तमाम बड़े चेहरे गैर-ब्राह्मण थे, लेकिन बाद में स्थिति बदल गई. बीजेपी की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था 11 सदस्यीय संसदीय बोर्ड में आज भी छह नेता ब्राह्मण समुदाय से हैं. लेकिन शाह की टीम में यह वर्चस्व खत्म होगा. शाह राष्ट्रीय परिषद की बैठक में साफ कर चुके हैं कि अब पार्टी को नए क्षेत्र में घुसकर दीर्घकालिक राजनीति करनी है. इस लिहाज से पार्टी का बड़ा फोकस उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव है. इसी रणनीति के तहत मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव से यूपीए सरकार की ओर से जाट आरक्षण दिए जाने के फैसले का सुप्रीम कोर्ट में बचाव किया है.
सूत्रों के मुताबिक यूपी में मायावती के वोट बैंक को तोडऩे के लिए मोदी सरकार जल्द ही प्रोन्नति में आरक्षण बिल को राजनैतिक नफा-नुकसान की रणनीति के साथ आगे बढ़ाने पर विचार कर रही है. इसी रणनीति के तहत शाह ने बीजेपी के संविधान में संशोधन भी करवाया है. नए संशोधन के मुताबिक 40 से अधिक लोकसभा सीटों वाले राज्यों में पदाधिकारियों की संख्या बढ़ाई जाएगी. हालांकि इसमें संख्या की सीमा तय नहीं की गई है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, “पहले टीम में किसी वरिष्ठ नेता के सिफारिशी चेहरे शामिल हो जाते थे. लेकिन इस संशोधन के बाद शाह अपनी पसंद के लोगों को बढ़ाएंगे.” इसी तरह झारखंड में भी आदिवासी अर्जुन मुंडा के साथ शाह ने दलित समाज के रघुवर दास को आगे बढ़ाने की रणनीति बनाई है ताकि सामाजिक समीकरण को दुरुस्त किया जा सके.
जाहिर है कि बीजेपी अब अटल-आडवाणी युग की छाया से बाहर निकल चुकी है तो दूसरी पीढ़ी के नेताओं में मोदी शीर्ष पुरुष बन चुके हैं जो नई तकनीक और युवा जोश के साथ बीजेपी को नए रंग-रूप में ढालने की योजना को अमलीजामा पहनाने में जुटे हैं और शाह मोदी के सपनों की बीजेपी का जरिया बन चुके हैं.
होर्डिंग्स पर लिखी इबारत यह भी बता रही थी कि राष्ट्रीय परिषद की मुहर तो महज औपचारिकता थी. शाह की ताजपोशी के पीछे लोकसभा चुनावों में बतौर प्रभारी महासचिव उत्तर प्रदेश में उनकी अप्रत्याशित सफलता को मापदंड बताया जा रहा है. लेकिन तथ्य यह है कि मोदी ने लोकसभा चुनाव के नतीजों से पहले ही शाह को बीजेपी अध्यक्ष बनवाने की कवायद शुरू कर साफ संकेत दे दिए थे कि पार्टी के लिए उनका नजरिया कैसा है. इस नजरिए का खुलासा मोदी अपने भाषणों और कामकाज की शैली से कर चुके हैं. अब उसी नजरिए से शाह पार्टी को नई शक्ल देने की तैयारी कर रहे हैं. उन्होंने पार्टी में आमूल-चूल बदलाव का दीर्घकालिक खाका तैयार कर लिया है. वैसे, एक मायने में मोदी और शाह का राष्ट्रीय राजनीति में अवतरण एक जैसा है. मोदी पहले कभी सांसद भी नहीं रहे और पहली बार चुने गए और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए तो कभी प्रदेश के अध्यक्ष भी नहीं रहे शाह अब बीजेपी के शहंशाह बन गए हैं.
बेशक, अब शाह से पार्टी संगठन में बदलाव और पार्टी को नए क्षेत्रों में प्रसार के मामले में भी उत्तर प्रदेश जैसी सफलता दिखाने की उम्मीद होगी. जाहिरा तौर पर इससे उन्हें राष्ट्रीय पहचान मिली और वे बीजेपी में शिखर पर पहुंच गए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 अगस्त की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में शाह को मैन ऑफ द मैच का तमगा देते हुए कहा, “अगर अमित उत्तर प्रदेश नहीं आते तो उनकी क्षमता का पता देश को नहीं चलता.” हालांकि शाह के ऊपर सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ का मुकदमा चल रहा है और इसी मामले में उन्हें 2010 में जेल भी जाना पड़ा था. तीन महीने बाद मिली जमानत और उसके साथ गुजरात से बाहर रहने की अदालती शर्त उनके निजी जीवन के लिए कठिन भले रही, लेकिन राजनैतिक करियर के लिए मुफीद साबित हुई.
खुद शाह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी सफलता की कहानी भरोसेमंद लोगों के साथ निजी बातचीत में कुछ यों बयान करते हैं, “जब मुझे दो साल गुजरात से बाहर रहने को मजबूर होना पड़ा तो मैंने दिल्ली में रहते हुए उन लम्हों का इस्तेमाल अपना नेटवर्क बनाने में किया. इस दौरान मैं कभी लखनऊ तो कभी देश के अन्य राज्यों में घूमता रहा और उस समय मेरे काफी दोस्त बने. उन्हीं दोस्तों से बना इन्फॉर्मेशन नेटवर्क लोकसभा चुनाव में मेरे काम आया. उस मुश्किल घड़ी में बने दोस्तों में से ही मैंने कुछ लोगों को छांटा और निजी तौर पर उनका सहयोग लिया.” अब बीजेपी के सिरमौर बने शाह ने बदलाव की नींव रखते हुए 20 साल की दीर्घकालिक योजना पर काम करने की रणनीति बनाई है.

बदलेगी संगठन की कार्यशैली
अपनी दीर्घकालिक रणनीति के तहत शाह की प्राथमिकताओं में संगठन को प्रभावी बनाना और पार्टी-सरकार के बीच सामंजस्य बिठाना है. वाजपेयी-आडवाणी युग से राजनाथ सिंह तक सहज सुलभ रहने वाले अध्यक्ष वाला युग खत्म होने वाला है. शाह का मिजाज अपने पूर्ववर्तियों से अलग है. उनके करीबी एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, “वे भीड़भाड़ से दूर रहने वाले शख्स हैं जिन्हें दरबारी राजनीति पसंद नहीं. वे ठोस आंकड़ों के साथ जमीन पर काम करने वालों को तरजीह देते हैं.” 49 वर्षीय शाह अपनी टीम में भी अपनी उम्र से नीचे के लोगों को लाने की तैयारी कर चुके हैं. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान उनके साथ सह प्रभारी की भूमिका निभा चुके और अब राज्य के संगठन मंत्री सुनील बंसल को उन्होंने मिशन-20 साल का मंत्र दिया है.
राज्य संगठन में पदाधिकारियों की अधिकतम उम्र 40 वर्ष तक लाने की योजना पर काम करने की सलाह दी गई है ताकि अगले 20 साल की राजनैतिक योजना बनाकर काम किया जा सके. संघ और बीजेपी पर निगाह रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक राम बहादुर राय बताते हैं, “शाह की खासियत है जो भी व्यक्ति उनके सामने आता है, उसके बारे में दो-तीन मिनट में यह अनुमान लगा लेते हैं कि व्यक्ति संगठन के काम का है या संसदीय राजनीति का.” राय मानते हैं, “शाह संगठन को प्राथमिकता देंगे. अटल युग में संघ से आने वाले संगठन मंत्री का पद इसलिए खत्म कर दिया गया था क्योंकि वे अध्यक्षों पर हावी रहते थे. लेकिन अब शाह उसे बहाल कर रहे हैं.”
शाह की नजर यूपी विधानसभा में भी बीजेपी का परचम लहराने की है. यूपी को लेकर शाह की सोच कितनी स्पष्ट है, एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, “शाह ने चुनाव अभियान के दौरान पार्टी के कुछ नेताओं से निजी बातचीत में कहा था, “यूपी से एक भी मुस्लिम जीतकर नहीं जाएगा.” इसका आधार जातिगत-सामाजिक समीकरण का मजबूत खाका था, जिसके आधार पर टिकट दिए गए थे. सूत्रों के मुताबिक, शाह की योजना अति पिछड़े और दलित वर्ग से कुछ चेहरे लाकर 2017 से पहले नया नेतृत्व खड़ा करने की भी है. इसलिए यूपी में खास तौर से उन नेताओं पर नकेल कसने की भी तैयारी हो चुकी है जो दिल्ली जाकर नेताओं की चापलूसी या शिकवा-शिकायत करते रहते हैं. हाल में संपन्न राष्ट्रीय परिषद की बैठक में पार्टी को 97 ऐसे स्थानीय नेताओं के पहुंचने की रिपोर्ट मिली है जो परिषद के सदस्य नहीं थे. लेकिन चेहरा दिखाने के लिए फर्जी तरीके से परिषद की बैठक में शामिल हो गए थे.
संघ-बीजेपी रिश्तों का नया अध्याय
पहले 2004 के चुनाव में एनडीए की हार और फिर 2005 में लालकृष्ण आडवाणी के जिन्ना प्रकरण के बाद संघ-बीजेपी के रिश्ते खट्टे-मीठे ही रहे हैं. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव की जीत के बाद रिश्तों का नया अध्याय शुरू हो चुका है. शाह और मोदी दोनों के गुजरात से होने को लेकर संघ को हिचक थी, लेकिन वाजपेयी सरकार के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए संघ ने हरी झ्ंडी दे दी. संघ से जुड़े एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि आखिरी निर्णय के लिए जब संघ के शीर्ष नेताओं की टोली बैठी तो उनकी राय बनी, “पार्टी और सरकार का एक ही केंद्र रहना चाहिए. मोदी को फ्री हैंड दिया जाए ताकि बाद में यह शिकायत करने की स्थिति नहीं हो कि जो वह करना चाहते थे, उन्हें नहीं करने दिया गया.”
अमित शाह की टीम से संघ-बीजेपी के नए रिश्तों की झ्लक दिखेगी. संघ कार्यकारिणी के सदस्य राम माधव और प्रचारक शिवप्रकाश को बीजेपी में भेजने और बिना किसी बड़ी औपचारिक जिम्मेदारी के हर बड़ी बैठक में राम माधव की मौजूदगी बेहतर समन्वय की ओर इशारा करती है. उन्हें महासचिव या उपाध्यक्ष बनाकर सरकार-पार्टी में समन्वय की जिम्मेदारी दी जा सकती है. सूत्रों के मुताबिक, संगठन में इस बार संगठन महामंत्री के अलावा पांच से छह सह संगठन मंत्री होंगे. दो-तीन अन्य प्रचारक दक्षिण भारत से लाने की तैयारी है. पहली बार बीजेपी के किसी अध्यक्ष की टीम में संघ से कम-से-कम सात प्रचारक शामिल होंगे. रिश्तों में समन्वय की ही मिसाल है कि जीएम फसल और बीमा, श्रम सुधार जैसे मसलों पर संघ के अनुषंगिक संगठनों के कुछ नेताओं ने मोदी सरकार के खिलाफ बिगुल तो फूंका लेकिन संघ का कोई बड़ा नेता नहीं बोला.
नई पीढ़ी की ड्रीम टीम
एक झटके में संगठन से पुराने लोगों को विदा करना आसान नहीं है इसलिए सूत्रों का कहना है कि शाह अगर अपनी टीम में कुछ पुराने और उम्र में बड़े लोगों को शामिल कर भी लेते हैं तो निर्णय प्रक्रिया में उन पदाधिकारियों की भूमिका सीमित रहेगी. शाह की रणनीति है संवैधानिक लिहाज से जरूरी पदों पर पुराने लोगों को बिठाकर राज्यों से युवा नेताओं को केंद्र में जिम्मेदारी देकर उभारा जाए और यही टीम सही मायने में शाह की टीम होगी जो समानांतर काम करेगी. शाह आंकड़ों और जमीनी तथ्य के साथ रणनीति बनाते हैं और संगठन में भी यही चाहते हैं. आने वाले समय में बीजेपी में अब डाटा के आधार पर राजनीति होगी और संवाद-समन्वय के लिए तकनीक का भरपूर इस्तेमाल होगा. शाह ने संगठन की कार्यशैली बदलने के लिए सबसे पहले खुद पर उसे अमल में लाना शुरू कर दिया है.
मसलन, चार्टर विमान और हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल नहीं करने का फैसला किया गया है. अमूमन बड़े नेता प्रदेशों के दौरे में होटलों में ठहरना पसंद करते हैं, लेकिन शाह ने यूपी में संघ की प्रणाली अपनाई और कार्यकर्ताओं के परिवारों में ही ठहरे. विश्लेषक राय कहते हैं, “संघ की पुरानी कार्यशैली अपनाकर शाह ने कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद किया. अब अपनी उस प्रणाली को वे शायद पूरे देश में अपनाएंगे.” बीजेपी में अब पूरे सिस्टम को आउटसॉर्स कर निगाह रखने की है. शाह अध्यक्ष के बजाए एक सीईओ की भूमिका में होंगे, लेकिन जैसा कि एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि इसका मतलब यह नहीं होगा कि कार्यकर्ताओं को नजअंदाज किया जाएगा. सूत्रों के मुताबिक शाह सहज सुलभ नहीं होंगे, लेकिन कार्यकर्ताओं की बात केंद्र तक पहुंचे, उसके लिए एक अलग तंत्र बनेगा. एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, यह प्रणाली ठीक उसी तरह होगी जैसे आज के जमाने में इंटरनेट बैंकिंग होती है. जहां बैंक जाए बिना भी बैंक से काम हो जाता है. उसी तरह कार्यकर्ताओं की बात केंद्र तक पहुंच जाए और उन्हें दिल्ली आकर नेताओं की परिक्रमा न करनी पड़े. मोदी-शाह की रणनीति ड्रीम टीम तैयार कर अगले लोकसभा चुनाव में नई बीजेपी को मैदान में उतारने की है. शाह और मोदी की कार्यशैली से साफ है कि बीजेपी में वही टिकेगा जो दौड़ सकेगा.

जातिगत आधार वालों को तरजीह
बीजेपी के बारे में एक धारणा है कि यह ब्राह्मण-बनियों की पार्टी है. लेकिन अटल-आडवाणी युग के बाद मोदी-शाह युग में प्रवेश कर चुकी बीजेपी की बड़ी चुनौती इस धारणा को तोड़कर उसे सामाजिक न्याय की पार्टी बनाने की है. पार्टी में इस दृष्टिकोण से राम मंदिर आंदोलन के दिनों की चर्चा भी हो रही है क्योंकि इस दौर में बीजेपी के तमाम बड़े चेहरे गैर-ब्राह्मण थे, लेकिन बाद में स्थिति बदल गई. बीजेपी की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था 11 सदस्यीय संसदीय बोर्ड में आज भी छह नेता ब्राह्मण समुदाय से हैं. लेकिन शाह की टीम में यह वर्चस्व खत्म होगा. शाह राष्ट्रीय परिषद की बैठक में साफ कर चुके हैं कि अब पार्टी को नए क्षेत्र में घुसकर दीर्घकालिक राजनीति करनी है. इस लिहाज से पार्टी का बड़ा फोकस उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव है. इसी रणनीति के तहत मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव से यूपीए सरकार की ओर से जाट आरक्षण दिए जाने के फैसले का सुप्रीम कोर्ट में बचाव किया है.
सूत्रों के मुताबिक यूपी में मायावती के वोट बैंक को तोडऩे के लिए मोदी सरकार जल्द ही प्रोन्नति में आरक्षण बिल को राजनैतिक नफा-नुकसान की रणनीति के साथ आगे बढ़ाने पर विचार कर रही है. इसी रणनीति के तहत शाह ने बीजेपी के संविधान में संशोधन भी करवाया है. नए संशोधन के मुताबिक 40 से अधिक लोकसभा सीटों वाले राज्यों में पदाधिकारियों की संख्या बढ़ाई जाएगी. हालांकि इसमें संख्या की सीमा तय नहीं की गई है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, “पहले टीम में किसी वरिष्ठ नेता के सिफारिशी चेहरे शामिल हो जाते थे. लेकिन इस संशोधन के बाद शाह अपनी पसंद के लोगों को बढ़ाएंगे.” इसी तरह झारखंड में भी आदिवासी अर्जुन मुंडा के साथ शाह ने दलित समाज के रघुवर दास को आगे बढ़ाने की रणनीति बनाई है ताकि सामाजिक समीकरण को दुरुस्त किया जा सके.
जाहिर है कि बीजेपी अब अटल-आडवाणी युग की छाया से बाहर निकल चुकी है तो दूसरी पीढ़ी के नेताओं में मोदी शीर्ष पुरुष बन चुके हैं जो नई तकनीक और युवा जोश के साथ बीजेपी को नए रंग-रूप में ढालने की योजना को अमलीजामा पहनाने में जुटे हैं और शाह मोदी के सपनों की बीजेपी का जरिया बन चुके हैं.