करीब 5.5 फीसदी की सुस्त आर्थिक वृद्धि दर और 7 फीसदी से ऊपर टिकी अडिय़ल महंगाई के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था ने 31 दिसंबर, 2012 को पिछले एक दशक का सबसे खराब साल पूरा कर लिया. आदर्श स्थिति में तो सरकार इन आंकड़ों को उलटकर देखना पसंद करती—7 फीसदी से ज्यादा वृद्धि दर और 6 फीसदी से कम महंगाई. लेकिन 2012 में ऐसा नहीं हो पाया और यह मानने की भी (जैसा कि सरकार में कई लोग मानते हैं) कोई वजह नहीं दिखती कि 2013 में ऐसा हो पाएगा.
अर्थव्यवस्था में निर्णायक सुधार लाने के लिए सिर्फ यह काफी नहीं है कि कुछ सेक्टर में एफडीआइ की इजाजत देने वाले विधेयक पारित कर दिए जाएं, जैसे रिटेल, विमानन (दोनों में यह हो चुका है) या बीमा और पेंशन (जल्द होने की उम्मीद).
आर्थिक वृद्धि की ऊंचाई फिर से हासिल करने की कुंजी यह है कि निजी निवेश (जीडीपी का प्रतिशत) के स्तर को 2007-08 के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंचाया जाए. जब अर्थव्यवस्था करीब 9 फीसदी की दर से बढ़ रही थी, तो निजी निवेश का जीडीपी में हिस्सा 36 फीसदी तक था. अब जब अर्थव्यवस्था में बढ़त 5.5 फीसदी के आसपास है तो निजी निवेश का जीडीपी में हिस्सा घटकर 30 फीसदी के आसपास रह गया है.
2013 के लिए प्राथमिकता खासकर घरेलू निवेश को पुराने मुकाम पर पहुंचाने की होनी चाहिए. इसके लिए सरकार को तीन तरह की कटौती की रणनीति अपनानी होगी—ब्याज दरों में कटौती, वित्तीय घाटे में कटौती और बड़े प्रोजेक्ट्स की मंजूरी में लगने वाली देरी में कटौती.
ब्याज दरों में कटौती
पूंजी की लागत भारतीय कारोबार जगत के फैसले को प्रभावित करने वाली प्रमुख बात होती है. आरबीआइ ने मार्च 2010 से जुलाई 2011 के बीच ब्याज दरों में 11 बार बढ़ोतरी की है और इस दौरान उसने ब्याज दर को 4.75 फीसदी से बढ़ाकर 8 फीसदी तक पहुंचा दिया. इस तरह से पिछले दो साल में कर्ज लेने की लागत 3.25 फीसदी तक बढ़ चुकी है, बिल्कुल ऐसे समय में जब कारोबार के लिए बाजार विदेश (ग्लोबल मंदी) और भारत (नीतिगत पक्षाघात से आई सुस्ती), दोनों जगह सिकुड़ रहा था.
केंद्रीय बैंक ने महंगाई के खिलाफ निरर्थक लड़ाई में ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है, जबकि सचाई यह है कि महंगाई का ब्याज दरों के स्तर से बहुत कम लेना-देना होता है. यह काफी हद तक कृषि अर्थव्यवस्था में सप्लाई कम होने (इससे खाद्यान्न संबंधी महंगाई बढ़ती है) और सरकार के भारी वित्तीय घाटे (जिससे खान-पान की वस्तुओं से इतर आम महंगाई बढ़ती है) की देन होती है.
महंगाई तो कुछ हद तक कंट्रोल भी हुई है (9 से घटकर 7 फीसदी से थोड़ी ज्यादा), लेकिन 2012 के ज्यादातर हिस्से में औद्योगिक उत्पादन में बढ़त की जगह गिरावट आई है. आरबीआइ के गवर्नर डी. सुब्बाराव ने लगातार दो वित्त मंत्रियों प्रणब मुखर्जी और पी. चिदंबरम की उपेक्षा की, दोनों यह चाहते थे कि 2012 में ही ब्याज दरों में कटौती की जाए.
अब यह उम्मीद की जा रही है कि वे आखिरकार जनवरी 2013 में कुछ नरम पड़ सकते हैं, जब आरबीआइ अपनी मौद्रिक नीति की अगली समीक्षा पेश करेगा. जनवरी में यदि ब्याज दरों में कटौती होती है तो यह मामूली ही होगी. निजी निवेश में यदि फिर से तेजी लानी है तो इस साल आरबीआइ को लगातार ऐसी कई कटौतियां करनी होंगी.
वित्तीय घाटे को कम करें
वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को फरवरी में पेश होने जा रहे बजट में सरकार के वित्तीय घाटे में कमी लाने की एक विश्वसनीय योजना की घोषणा करनी होगी. यह मई 2014 में प्रस्तावित आम चुनावों से पहले यूपीए सरकार का अंतिम बजट होगा. चुनाव पूर्व बजट में तो कम खर्च वाले निर्णायक उपायों की बजाए इस बात का दबाव होता है कि खर्च करने वाले लोकलुभावन कार्यक्रमों की घोषणा की जाए. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सरकार पर अपने पसंदीदा खाद्य सुरक्षा विधेयक की घोषणा का दबाव बनाएंगी, जिससे खजाने पर हर साल 30,000 करोड़ रु. का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और पहले ही काबू से बाहर हो चुका वित्तीय घाटा 3 फीसदी के सुविधाजनक स्तर की जगह जीडीपी के करीब 6 फीसदी तक पहुंच जाएगा.
खर्चों में कटौती के लिए चिदंबरम को कुछ मौलिक रास्ते तलाशने होंगे. डीजल कीमतों को पूरी तरह से नियंत्रणमुक्त करना निश्चित रूप से उनकी प्राथमिकता सूची में होना चाहिए. शेयर बाजार में तेजी का फायदा उठाते हुए उन्हें निश्चित रूप से सरकारी क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों का तेजी से विनिवेश करना चाहिए. टैक्स में थोड़ी बढ़ोतरी संभव है. एक्साइज ड्यूटी बढ़ सकती है. यदि वित्त मंत्री निरस्त 2जी लाइसेंस की फिर से नीलामी के लिए वाजिब कीमत तय कर पाते हैं तो इससे घाटे को कम करने में मदद मिलेगी.
सुस्ती को दूर भगाओ
बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को तेजी से मंजूरी (ज्यादातर पर्यावरण मंत्रालय से जुड़ी) के लिए सरकार की योजना प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय निवेश बोर्ड के गठन की थी, लेकिन 2012 के अंत में इसका स्वरूप घटकर निवेश पर कैबिनेट कमेटी (सीसीआइ) के रूप में सामने आया है.
अडंग़ा डालने वाली जयंती नटराजन की अध्यक्षता वाले पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मंजूरी के अपने अधिकार प्रधानमंत्री को सौंपने से इनकार किया है. फिर भी, सीसीआइ के वरिष्ठ मंत्रियों को अपनी वरिष्ठता का इस्तेमाल करते हुए पर्यावरण मंत्रालय को इस बात के लिए मजबूर करना होगा कि परियोजनाओं को तेजी से मंजूरी मिले. इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स यदि ग्रीन लाइसेंस राज में फंसे रहे तो अगले पांच साल में यूपीए 8.2 फीसदी की आर्थिक वृद्धि के उस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएगा, जिसकी बार-बार डुगडुगी बजाई जा रही है.
2009 में यूपीए को दूसरी बार सत्ता मिली थी क्योंकि उसने पांच साल के कार्यकाल में सालाना 8 फीसदी की आर्थिक बढ़त हासिल करके दिखाई थी. इस बार 8 फीसदी की औसत दर तक पहुंचने के लिए अब यूपीए2 के पास ज्यादा समय नहीं है. लेकिन यदि वृद्धि दर 6 फीसदी से नीचे और महंगाई 7 फीसदी से ऊपर रही तो भी वह चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं कर सकता. यही एक मात्र वजह है जिससे यह उम्मीद बनती है कि सरकार 2013 में अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए कुछ करेगी.

