यह 23 दिसंबर की बात है. इंडिया गेट पर करीब 2,000 लोग जोरदार नारे लगा रहे थे. इन सबके बीच छात्रों का एक बड़ा-सा समूह ऑल इंडिया स्टुडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) का एक बैनर उठाए हुए था. संगठन की पूर्व अध्यक्ष दुबली-पतली कविता कृष्णन पूरे जोश में थीं. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के आवास के बाहर दिए उनके भाषण की यहां भी प्रतिध्वनि जैसी गूंज रही थी, ‘‘हम राजनीति को तुच्छ मानकर खारिज नहीं कर सकते, हमें राजनीति के बारे में बात करनी होगी.
हमारे देश में एक ऐसी संस्कृति है जो बलात्कार को जायज ठहराती है, जो इस कृत्य का बचाव करती है. यदि हम इसमें कोई बदलाव लाना चाहते हैं तो हमें इस मसले का राजनीतिकरण करना होगा. सरकार को हमारी बात सुननी होगी.’’ उनकी इस बात पर खूब तालियां बजीं और कुछ छात्र नारे लगाने लगे, ‘‘शीला दीक्षित के खिलाफ आवाज उठाओ’’ या ‘‘महिलाओं की आजादी के लिए संघर्ष करो.’’
धुर वामपंथी छात्र संगठन आइसा की पूर्व अध्यक्ष कृष्णन अब अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ (एआइपीडब्ल्यूए) की सचिव हैं. यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन (सीपीआइएमएल) से जुड़ा एक संगठन है. इसके पास ही लुटियंस जोन के भद्र लोक में आवंटित मकान में रहने वाली लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार इस भीड़ की गर्जना को सुन सकती हैं. वे दिल्ली गैंग रेप पीड़िता के परिवार वालों से सफदरजंग अस्पताल जाकर मिलने वाले पहले लोगों में शामिल थीं. वे बाहरी दिल्ली के उस एक कमरे वाले घर में भी गईं जहां पीड़िता रहा करती थी.
मीरा कुमार रुंधे गले से बताती हैं कि पीड़िता की मां ने उनसे क्या कहा, ‘‘हमारी हैसियत ही क्या है? बच्चों को पढ़ाने के लिए नमक और रोटी खाते हैं.’’ वे जानती हैं कि इस दिसंबर में कुछ ऐसा है जो बदल गया है. उन्होंने कहा, ‘‘महिलाओं के मुद्दे अब यह कहकर हाशिए पर नहीं धकियाए जा सकेंगे कि इनसे निबटना महिलाओं की जिम्मेदारी है. अब ये मुद्दे समाज के बीच हैं और वहीं रहेंगे.’’
चाहे सामूहिक बलात्कार के खिलाफ न थमने वाला गुस्सा हो या फिर औरतों के बारे में ओछी बात करने वाले मर्दवादी नेताओं के खिलाफ पनपती बगावत या फिर मनोरंजन के नाम पर हिंसा उकसाने का धंधा, औरतों ने तय कर लिया है कि दबी जुबान से की जाने वाली बातें अब चौराहों पर होंगी. वर्ष 2013 में सरकार महिलाओं से जुड़े कानून में सुधार से मुंह नहीं मोड़ पाएगी. ऐसे कई सुधार लंबित हैं, जैसे कार्यस्थल पर महिला को यौन उत्पीडऩ से बचाने का बिल 2010 और आपराधिक कानून (संशोधन) बिल 2012 जो कि तेजाब फेंकने और यौन अपराध से जुड़ा है.
दिल्ली गैंग रेप विरोधी प्रदर्शनों का नेतृत्व पूरी तरह से महिला संगठनों के हाथ में नहीं था, लेकिन उनकी बड़ी भूमिका जरूर थी. साफ तौर पर विरोध प्रदर्शनों काराजनीतिकरण करने की जरूरत है. महिलाओं के मतदान में गिरावट आई है. वर्ष 2009 में कुल 59 फीसदी वोट डालने वालों का सिर्फ 45 फीसदी हिस्सा ही महिलाओं का था. लेकिन लोकसभा के लिए चुनी जाने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है.
15वीं लोकसभा में महिला सांसदों का अब तक का सबसे ज्यादा हिस्सा है. कुल 58 महिला सांसद हैं जो समूचे सदन की 11 फीसदी हैं. महिलाओं ने पहले भी अपने गुस्से की ताकत दिखाई है. दहेज हत्या के चलते अपनी बेटियों को खो देने वाली माताएं दहेज के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के लिए दिल्ली की सड़कों पर उतरी थीं. इसका नतीजा यह हुआ था कि सरकार को भारतीय दंड संहिता में बदलाव करते हुए उसमें धारा 304बी और 498ए शामिल करनी पड़ी थीं. ये धाराएं दहेज के मामले में पति और उसके रिश्तेदारों की प्रताडऩा और क्रूरता को अपराध में शामिल करती हैं.
इस बार आंदोलन सिर्फ बलात्कार के कानूनों में बदलाव की ही मांग के लिए नहीं है. इस बार मांग यह है कि महिला को सुरक्षा देने की जिम्मेदारी समाज अपने ऊपर ले. दिसंबर की सर्द रातों में घूम रही तख्तियों पर लिखे कई नारों में से एक यह भी था, ‘‘हमें यह न बताएं कि हम कैसे कपड़े पहनें. अपने बेटों से कहें कि वे बलात्कार न करें.’’ इस बार महिला आंदोलन ने उसी तरह की भाषा में जवाब देना सीख लिया है, जैसे उस पर हमले किए जाते हैं.
दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा त्रिशला सिंह और उमंग सभरवाल के फेसबुक ग्रुप स्लट वाक देहली को 15,982 लाइक मिलते हैं और इसे 28,000 लोग शेयर करते हैं. अभिजीत मुखर्जी की भद्दी टिप्पणी के बाद बनाए गए डेंटेड ऐंड पेंटेड ग्रुप में एक बिना चेहरे वाली महिला की तस्वीर लगाई जाती है जिसकी कमीज पर बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है, ‘डेंटेड ऐंड पेंटेड’. या दिल्ली की 52 वर्षीय लेखिका कल्पना मिश्र की अगुआई में गुडग़ांव के ब्रिस्टल होटल के मैनेजर को हनी सिंह पर रोक का ऑनलाइन पिटीशन आता है, जिसमें यह मांग थी कि नए साल की पूर्व संध्या पर होने वाले इस गायक के कार्यक्रम को रद्द किया जाए.
मिश्र ने 30 दिसंबर की देर रात में पोस्ट किया. इस पोस्ट पर 12 घंटे में ही 2,500 लोगों के दस्तखत जुटा लिए जाते हैं. हनी सिंह का प्रोग्राम आखिर नहीं हो सका.
अचानक अब पुकार का रंग हो गया है: ‘‘महिला बचाओ, भारत बचाओ’. बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो इस जागरूकता को अस्थायी या सीमित बता रहे हैं. सामाजिक कार्यकर्ता और उपन्यासकार अरुंधति रॉय ने बीबीसी के रेडियो 4 पर कहा कि इस अपराध के खिलाफ इतना ज्यादा गुस्सा इस वजह से देखा जा रहा है, ‘‘क्योंकि वास्तव में इसमें गरीब अपराधी लोग जैसे कि सब्जी बेचने वाले, जिम इंस्ट्रक्टर या बस ड्राइवर मध्य वर्ग की लड़की पर हमला करते हैं.’’ (पूरी तरह से सही नहीं है). उन्होंने कहा कि ‘‘बलात्कार को देश के कई हिस्सों में एक सामंती अधिकार के तौर पर देखा जाता है’’ (उनकी यह बात सही है).
उन्होंने यह भी कहा कि भारत में महिलाओं के प्रति रवैया बदलने की जरूरत है, क्योंकि सिर्फ कानून में बदलाव करने से मध्य वर्ग की महिलाएं तो सुरक्षित हो जाएंगी, लेकिन ‘‘अन्य महिलाएं जो कि सक्षम नहीं हैं, उनके खिलाफ हिंसा जारी रहेगी.’’ वास्तव में सभी महिलाओं को हिंसा से बचाना और सभी तरह की हिंसा से बचाना, इस आंदोलन का दूरगामी और महत्वाकांक्षी लक्ष्य है. जैसा कि जेएनयू की प्रोफेसर और यौन उत्पीडऩ पर अंकुश के लिए बनी जेएनयू की जेंडर सेंसिटाइजेशन कमेटी की सदस्य आयशा किदवई कहती हैं कि सड़कों पर उतरी युवा महिलाओं ने बलात्कार पर बहस को व्यापक बना दिया है. सिर्फ यौन हमले की बात करने की जगह उन्होंने यह स्थापित करने की कोशिश की है कि इसकी पूरी एक शृंखला है-यौन उत्पीडऩ, यौन उत्पीडऩ को संस्थागत और सार्वजनिक स्तर पर सहन कर लेना और यौन हिंसा को उकसाना.
ऐसे भारी सुधारों की मांग सरकार के लिए एक चुनौती है. सरकारें वोट बैंक से निबटने की आदी रही हैं, लेकिन मुद्दों के बैंक से नहीं. झुनझुने पकड़ाना आसान है, ठोस काम करना कठिन. यदि महिलाएं एक वोट बैंक में बदल जाएं तो क्या होगा? लेकिन बीजेपी की प्रवक्ता निर्मला सीतारमन को नहीं लगता कि ऐसा होगा. महिलाएं अलग-अलग धर्मों और जातियों से जुड़ी होती हैं. उन्हें अभी इस एक वजह के लिए संगठित होना है कि वे महिला हैं. क्या ऐसा हो सकता है कि वे अपने ऊपर जन्म से लगे ठप्पे से परे देखें?
शायद. पहली बार उन मुद्दों पर खुलकर चर्चा हो रही है जिन्हें हाशिए का या वर्जित विषय माना जाता रहा है: महिला का अपने शरीर पर अधिकार, सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा, सपनों से सुंदर जीवन जीने की नौजवान पीढ़ी की आकांक्षा. गैंग रेप पीड़िता के परिवार के बारे में सबसे प्रगतिशील पहलू यह रहा कि उसके पिता ने उसे पढ़ाने के लिए अपने गांव में जमीन का एक टुकड़ा बेच दिया-उसकी शादी के लिए नहीं, जैसा कि आम तौर पर अपेक्षा की जाती है. ऐसे पारिवारिक सुधारों से ही बदलाव आते हैं. बालिका भ्रूणहत्या या दहेज की मांग करने वाले लोगों की सोच में सरकारें एक सीमा तक ही बदलाव ला सकती हैं.
सीपीएम विधायक अनीस-उर-रहमान की ममता बनर्जी पर टिप्पणी जैसे शर्मनाक वाकयों के बावजूद, ऐतिहासिक रूप से यह देखा गया है कि वामपंथ ने महिलाओं के प्रति प्रगतिशील रवैया अख्तियार करने की कोशिश की है. वामपंथी छात्र संगठनों (दिल्ली में जिनके पास मजबूत महिला नेता हैं) का इस आंदोलन की आग को बुझने देने का कोई इरादा नहीं है. नए साल की पूर्व संध्या पर आइसा ने नई दिल्ली के कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया. इसका उद्देश्य था, महिलाएं पब्लिक स्पेस पर कब्जा करें. 2013 में दृढ़संकल्प के ऐसे ज्यादा सार्वजनिक कार्य देखे जाएंगे जो पुलिस की परंपरागत कार्य प्रणाली के लिए एक चुनौती होंगे.
एक ऐसे राजनैतिक माहौल में जहां मर्द बहुत कोशिश करने के बावजूद सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के प्रति अपने तिरस्कार भाव को छिपा नहीं पाए और महिलाओं ने अपनी जगह बनाने के लिए कठोर मेहनत की, क्या राष्ट्रीय चिंता में बदल चुके महिलाओं के मसले फिर हाशिए पर चले जाएंगे? महिला आरक्षण बिल के प्रति चिढ़ देखी गई है और भारत की बहुत-सी ताकतवर महिला नेताओं के समर्थन के बावजूद यह 16 साल से ठंडे बस्ते में पड़ा है. लेकिन 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ और 2012 में गैंग रेप के खिलाफ
विरोध प्रदर्शनों ने एक नए सशक्त नागरिक को तैयार किया है. वह अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनता है या सुनती है, किसी विचारधारा का गुलाम नहीं है, दुनिया से जुड़ा है और टेक्नोलॉजी से लैस है. अब विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए ट्रकों को भाड़े पर लेने, पोस्टर छपवाने और लोगों के भोजन की व्यवस्था करने की जरूरत नहीं पड़ती. इसके लिए फेसबुक पर एक ग्रुप बनाकर, इस पर आगे ट्विटर पर चर्चा की जा सकती है और इसे ब्लैकबेरी मैसेंजर के जरिए हवा मिल सकती है.
आज का युवा हर दिन के लोकतंत्र की मांग कर रहा है, सिर्फ 5 साल में एक बार मिलने वाले लोकतंत्र की नहीं. नवंबर 2012 में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए हुई बराक ओबामा और मिट रोमनी की चुनावी जंग में महिलाओं का मुद्दा केंद्र बिंदु रहा है. इस चुनाव में करीब 5.5 करोड़ अविवाहित महिलाओं को वोट देने का हक था और गर्भपात पर रोमनी के कठोर विचारों की वजह से ही ऐसी महिलाएं ओबामा के साथ खड़ी हो गईं. मर्दों के मुकाबले औरतों के वोट ज्यादा पड़े (53 फीसदी औरतों और 47 फीसदी मर्दों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया).
इनमें से 55 फीसदी महिलाओं ने ओबामा को वोट दिया, जबकि रोमनी को सिर्फ 44 फीसदी महिलाओं का वोट मिला. इसमें अचरज की बात नहीं है कि रोमनी लड़ाई तो जीतना चाहते थे पर गर्भपात पर अपनी दकियानूस सोच बदलने को राजी नहीं थे. उन्हें ओछी सोच का नतीजा भुगतना पड़ा.
इसमें भी कोई अचरज नहीं हुआ जब उनके रिपब्लिकन साथी मिसौरी से टॉड अकिन और इंडियाना से रिचर्ड मर्डोक ने बलात्कार पर अपने विचारों से सबको धक्का पहुंचाया. उनका कहना था कि बलात्कार से यदि गर्भ ठहर जाता है तो उसे ‘ईश्वर की इच्छा’ मान लेना चाहिए. ये दोनों लोग अमेरिकी सीनेट का चुनाव हार गए. महिलाओं को लिपी-पुती कहकर खारिज करने वाले हमारे भारतीय नेता इससे सबक ले सकते हैं. औरतों के पास सिर्फ आवाज ही नहीं बल्कि वोट भी है.
-साथ में लक्ष्मी कुमारस्वामी

