अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली में तरह-तरह की आवाजें गूंजा करती हैं. आती-जाती एंबुलेंस के सायरन की गूंज, 24 घंटे और सातों दिन मशीनों की बीप और घुनघुन, स्ट्रेचर और व्हील चेयर की घर्र-घर्र और खिचखिच, सख्त टाइल वाले फर्श पर कदमों की चाप, सिसकियां और चीखें, फुसफुसाहट और चटरपटर में गडमड हो जाती हैं. लेकिन गलियारों और अहातों की भूलभुलैया में, जहां बाहर वालों का दखल नहीं रहता, वहां ऊपर-नीचे सन्नाटे में पढ़ाई होती है. बंद दरवाजों के पीछे सफेद कोटधारी कुछ आकृतियां सन्नाटे में मरीजों, माइक्रोस्कोप, लैब की मेजों या कंप्यूटरों पर तल्लीन होकर अपने काम में जुटी रहती हैं. यहां एकमात्र मकसद है-डॉक्टर बनना.
चुपचाप अपने काम में जुटने वालों का ऐसा ही एक अड्डा है अस्पताल के मुख्य ब्लॉक में स्थित हॉलवे. यहां के दरवाजे पर लगी पट्टी पर लिखा है, ‘‘ग्रॉस एनाटॉमी लैब.’’ अंदर भरपूर रोशनी है और चमचमाती सफाई है, स्टेनलेस स्टील से बने लैब के औजार चमक रहे हैं, गोल जारों में इंसानी शरीर के अंग गहरे पीले रंग के घोल में तैर रहे हैं, फ्लोरोसेंट लाइट के नीचे कंकाल टंगे हैं और सफेद चादरों के नीचे कुछ लाशें लेटी हुई हैं. सफेद कोट पहने छात्र इन अकड़े नीले शरीरों को टुकड़े-टुकड़े में काट देते हैं. ये मुर्दों पर प्रयोग से जिंदा लोगों का इलाज करना सीख रहे हैं. यहां का यही दस्तूर है. इससे गुजरने के बाद ही मेडिकल के छात्र डॉक्टर बनने की राह पर आगे बढ़ते हैं.
कुछ लोग हैरान होते होंगे कि आखिर एम्स हर साल इंडिया टुडे-नीलसन बेस्ट कॉलेजेज सर्वे में अव्वल नंबर पर कैसे आ जाता है. इसका सुराग जानने के लिए लैब में झांकना जरूरी है. एम्स में एनाटॉमी यानी शरीर रचना विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर टी.एस. रॉय बताते हैं, ‘‘एनाटॉमी लैब, मेडिसिन की बुनियाद है.’’ यहीं पर भविष्य के फिजिशियन जिंदा इंसान के शरीर के अंगों को पहचानना सीखते हैं और भविष्य के सर्जन पहला चीरा लगाना भी यहीं पर सीखते हैं. रॉय कहते हैं, ‘‘मेडिकल स्कूल का यह हिस्सा हर डॉक्टर को याद रहता है और एम्स के छात्रों के लिए तो इसे अपने जेहन में बसाने के लिए अनगिनत कारण मौजूद होते हैं.’’
एमबीबीएस के पहले साल के छात्र आयुष से लैब में उसके अनुभव के बारे में पूछने पर पहले वह मुस्कुराया. फिर उसने अपने सामने पड़े शव की मांसपेशियों के किनारे तक पहुंचने के लिए खाल और चर्बी में चाकू घुसाते हुए कहा, ‘‘मेरे कई दोस्त दूसरे मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे हैं, लेकिन उन्हें मुर्दों पर इतना वक्त बिताने का मौका नहीं मिलता जितना कि हमें मिलता है. जूनियर रेजिडेंट चीरे लगाते हैं और वे देखते रहते हैं लेकिन यहां पूरे समय हमें ये काम करना होता है.’’ आयुष की बात बिल्कुल सही है. भारत में एमबीबीएस के छात्रों को सबसे ज्यादा घंटे एनाटॉमी पर बिताना जरूरी है. लेकिन इसमें भी एक गंभीर परेशानी है.
1997 तक भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआइ) ने 915 घंटे की अनिवार्यता कर रखी थी, लेकिन एम्स कभी एमसीआइ के अंतर्गत नहीं रहा और उसने हमेशा सबसे अच्छे तरीके अपनाए हैं. 1977 में ही एम्स ने एनाटॉमी पर लगने वाले कुल समय को 840 से घटाकर 541 घंटे कर दिया. यह प्रयोग इतना सफल रहा कि एमसीआइ ने 1997 में दूसरे मेडिकल कॉलेजों में भी एनाटॉमी के घंटे घटाकर 650 कर दिए. एम्स में एनाटॉमी के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर टोनी जैकब बताते हैं, ‘‘लेकिन दूसरे मेडिकल कॉलेजों में स्थिति अकसर ऐसी नहीं होती जैसी एम्स में होती है. एम्स में डिसेक्शन टेबल पर टीचर और छात्र का अनुपात 1:8 रहता है. बाकी पूरे वक्त यह कुल 1:1.2 होता है. इसका फायदा यह है कि लेक्चर थिएटर में कम और डिसेक्शन हॉल में ज्यादा समय बीतता है.’’ जैकब के मुताबिक, दूसरे मेडिकल कॉलेजों में ज्यादातर एनाटॉमी में शिक्षकों की कमी की वजह से यह अनुपात 1रू30 या उससे भी अधिक होता है, ‘‘उनके 650 घंटे में से ज्यादातर समय थ्योरी और लेक्चर में जाता है.’’

इसकी वजह से एम्स के छात्र एनाटॉमी में कम समय लगाने के बावजूद उसके बारे में बेहतर प्रत्यक्ष जानकारी पा लेते हैं. एम्स में फैकल्टी डॉ. रेणु ढींगरा के अनुसार, ‘‘बात सिर्फ इतनी नहीं है.’’ वे कहती हैं, ‘‘छात्र-टीचर अनुपात अधिक होने की वजह से हम छोटे समूहों में बातचीत के जरिए सिखाने के आधुनिक तरीके अपना सकते हैं.’’ डॉ. ढींगरा के मुताबिक, क्लिनिकल अनुभव के दौरान पेश आई समस्याओं के आधार पर पाठ्यक्रम तैयार किया गया है. एनाटॉमी लैब में हर सत्र में अल्ट्रास्कोप जैसे किसी नए टूल का इस्तेमाल किया जाता है. अल्ट्रास्कोप एक वीडियो संचालित निर्देशन प्रणाली है जिससे शरीर के भीतर झांका जा सकता है. एमआरआइ, सीटी , एक्स-रे और अल्ट्रसोनोग्राम के जरिए शरीर के तंत्र को समझा जाता है और चीरफाड़ के बाद उन्हें देखकर मतलब निकाला जाता है.
मेडिकल छात्रों की तादाद जिस अनुपात में बढ़ रही है, उसके मुकाबले ही डिसेक्शन के लिए पर्याप्त शव उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं. यह कमी भारत में गंभीर संकट का रूप लेती जा रही है. 1947 में देश के 23 मेडिकल कॉलेजों में से करीब 1,000 छात्र डॉक्टर बनकर निकलते थे. लेकिन आज करीब 335 कॉलेजों से हर साल 43,890 छात्र पढ़कर निकलते हैं और उनमें से 24,005 छात्र 184 निजी कॉलेजों से आते हैं. जर्नल ऑफ क्लिनिकल ऐंड डायग्नॉस्टिक रिसर्च के 2012 के हुए एक शोध के मुताबिक 64 फीसदी कॉलेजों में एनाटॉमी पढ़ाने के लिए पर्याप्त शव नहीं होते जबकि एमसीआइ का नियम है कि छात्र-शव अनुपात 10:1 होना चाहिए. कई कॉलेज अब पुतले या सिमुलेर्ट्स अपनाने की सोच रहे हैं.
चुपचाप अपने काम में जुटने वालों का ऐसा ही एक अड्डा है अस्पताल के मुख्य ब्लॉक में स्थित हॉलवे. यहां के दरवाजे पर लगी पट्टी पर लिखा है, ‘‘ग्रॉस एनाटॉमी लैब.’’ अंदर भरपूर रोशनी है और चमचमाती सफाई है, स्टेनलेस स्टील से बने लैब के औजार चमक रहे हैं, गोल जारों में इंसानी शरीर के अंग गहरे पीले रंग के घोल में तैर रहे हैं, फ्लोरोसेंट लाइट के नीचे कंकाल टंगे हैं और सफेद चादरों के नीचे कुछ लाशें लेटी हुई हैं. सफेद कोट पहने छात्र इन अकड़े नीले शरीरों को टुकड़े-टुकड़े में काट देते हैं. ये मुर्दों पर प्रयोग से जिंदा लोगों का इलाज करना सीख रहे हैं. यहां का यही दस्तूर है. इससे गुजरने के बाद ही मेडिकल के छात्र डॉक्टर बनने की राह पर आगे बढ़ते हैं. कुछ लोग हैरान होते होंगे कि आखिर एम्स हर साल इंडिया टुडे-नीलसन बेस्ट कॉलेजेज सर्वे में अव्वल नंबर पर कैसे आ जाता है. इसका सुराग जानने के लिए लैब में झांकना जरूरी है. एम्स में एनाटॉमी यानी शरीर रचना विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर टी.एस. रॉय बताते हैं, ‘‘एनाटॉमी लैब, मेडिसिन की बुनियाद है.’’ यहीं पर भविष्य के फिजिशियन जिंदा इंसान के शरीर के अंगों को पहचानना सीखते हैं और भविष्य के सर्जन पहला चीरा लगाना भी यहीं पर सीखते हैं. रॉय कहते हैं, ‘‘मेडिकल स्कूल का यह हिस्सा हर डॉक्टर को याद रहता है और एम्स के छात्रों के लिए तो इसे अपने जेहन में बसाने के लिए अनगिनत कारण मौजूद होते हैं.’’
एमबीबीएस के पहले साल के छात्र आयुष से लैब में उसके अनुभव के बारे में पूछने पर पहले वह मुस्कुराया. फिर उसने अपने सामने पड़े शव की मांसपेशियों के किनारे तक पहुंचने के लिए खाल और चर्बी में चाकू घुसाते हुए कहा, ‘‘मेरे कई दोस्त दूसरे मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे हैं, लेकिन उन्हें मुर्दों पर इतना वक्त बिताने का मौका नहीं मिलता जितना कि हमें मिलता है. जूनियर रेजिडेंट चीरे लगाते हैं और वे देखते रहते हैं लेकिन यहां पूरे समय हमें ये काम करना होता है.’’ आयुष की बात बिल्कुल सही है. भारत में एमबीबीएस के छात्रों को सबसे ज्यादा घंटे एनाटॉमी पर बिताना जरूरी है. लेकिन इसमें भी एक गंभीर परेशानी है.
1997 तक भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआइ) ने 915 घंटे की अनिवार्यता कर रखी थी, लेकिन एम्स कभी एमसीआइ के अंतर्गत नहीं रहा और उसने हमेशा सबसे अच्छे तरीके अपनाए हैं. 1977 में ही एम्स ने एनाटॉमी पर लगने वाले कुल समय को 840 से घटाकर 541 घंटे कर दिया. यह प्रयोग इतना सफल रहा कि एमसीआइ ने 1997 में दूसरे मेडिकल कॉलेजों में भी एनाटॉमी के घंटे घटाकर 650 कर दिए. एम्स में एनाटॉमी के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर टोनी जैकब बताते हैं, ‘‘लेकिन दूसरे मेडिकल कॉलेजों में स्थिति अकसर ऐसी नहीं होती जैसी एम्स में होती है. एम्स में डिसेक्शन टेबल पर टीचर और छात्र का अनुपात 1:8 रहता है. बाकी पूरे वक्त यह कुल 1:1.2 होता है. इसका फायदा यह है कि लेक्चर थिएटर में कम और डिसेक्शन हॉल में ज्यादा समय बीतता है.’’ जैकब के मुताबिक, दूसरे मेडिकल कॉलेजों में ज्यादातर एनाटॉमी में शिक्षकों की कमी की वजह से यह अनुपात 1रू30 या उससे भी अधिक होता है, ‘‘उनके 650 घंटे में से ज्यादातर समय थ्योरी और लेक्चर में जाता है.’’

इसकी वजह से एम्स के छात्र एनाटॉमी में कम समय लगाने के बावजूद उसके बारे में बेहतर प्रत्यक्ष जानकारी पा लेते हैं. एम्स में फैकल्टी डॉ. रेणु ढींगरा के अनुसार, ‘‘बात सिर्फ इतनी नहीं है.’’ वे कहती हैं, ‘‘छात्र-टीचर अनुपात अधिक होने की वजह से हम छोटे समूहों में बातचीत के जरिए सिखाने के आधुनिक तरीके अपना सकते हैं.’’ डॉ. ढींगरा के मुताबिक, क्लिनिकल अनुभव के दौरान पेश आई समस्याओं के आधार पर पाठ्यक्रम तैयार किया गया है. एनाटॉमी लैब में हर सत्र में अल्ट्रास्कोप जैसे किसी नए टूल का इस्तेमाल किया जाता है. अल्ट्रास्कोप एक वीडियो संचालित निर्देशन प्रणाली है जिससे शरीर के भीतर झांका जा सकता है. एमआरआइ, सीटी , एक्स-रे और अल्ट्रसोनोग्राम के जरिए शरीर के तंत्र को समझा जाता है और चीरफाड़ के बाद उन्हें देखकर मतलब निकाला जाता है.
मेडिकल छात्रों की तादाद जिस अनुपात में बढ़ रही है, उसके मुकाबले ही डिसेक्शन के लिए पर्याप्त शव उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं. यह कमी भारत में गंभीर संकट का रूप लेती जा रही है. 1947 में देश के 23 मेडिकल कॉलेजों में से करीब 1,000 छात्र डॉक्टर बनकर निकलते थे. लेकिन आज करीब 335 कॉलेजों से हर साल 43,890 छात्र पढ़कर निकलते हैं और उनमें से 24,005 छात्र 184 निजी कॉलेजों से आते हैं. जर्नल ऑफ क्लिनिकल ऐंड डायग्नॉस्टिक रिसर्च के 2012 के हुए एक शोध के मुताबिक 64 फीसदी कॉलेजों में एनाटॉमी पढ़ाने के लिए पर्याप्त शव नहीं होते जबकि एमसीआइ का नियम है कि छात्र-शव अनुपात 10:1 होना चाहिए. कई कॉलेज अब पुतले या सिमुलेर्ट्स अपनाने की सोच रहे हैं.

