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‘‘आइआइएम-ए में कइयों के ईगो की हवा निकल गई’’

लोकतांत्रिक तरीके से मिल-जुलकर संचालन, आम राय से फैसले और बारी-बारी से अहम पदों की जिम्मेदारी संकाय की खासियतें हैं.

सीखने की ललक शांत कैंपस
सीखने की ललक शांत कैंपस
अपडेटेड 14 नवंबर , 2022

मेहमान का पन्नाः अजित रानाडे

भारतीय प्रबंधन संस्थान के संस्थापक डायरेक्टर नियुक्ति के वक्त महज 38 साल के थे. यह अपने आप में शानदार शुरुआत थी और दो वजहों से अहम थी. एक, विक्रम साराभाई के मार्गदर्शन में कर्ताधर्ता एक युवा पर दांव लगाने को तैयार थे. दूसरे, महज बैचलर डिग्री के साथ आए जिस शख्स रवि मथाई को अगुआई के लिए चुना गया, वह बराबर के लोगों में पहला होने जा रहा था. 
शुरुआत से व्यवस्था में पदों की ऊंच-नीच का कोई ख्याल नहीं था.

वहां कई दिग्गज थे जिन्होंने इस युवा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया. यह आइआइएम-ए के संकायों की स्थायी खासियत रही. लोकतांत्रिक तरीके से मिल-जुलकर संचालन करने, आम राय से फैसले लेने (फिर भले ही उसके पहले कभी-कभार अनियंत्रित और शोर भरे झगड़े होते हों), और बारी-बारी से अहम पदों की जिम्मेदारी संभालने की उदात्त भावना. शिक्षण और शिक्षाशास्त्र में उत्कृष्टता की खोज अथक रही है. श्रेष्ठ लोगों का दबाव  न केवल स्वीकार बल्कि उसका स्वागत किया जाता है.

मथाई ने करीब एक दशक की कामयाबी के बाद 1971 में डायरेक्टर का पद छोड़ा. उन्होंने बदलाव का आग्रह किया और जोर दिया कि उनके पदत्याग को पूरी तरह सामान्य माना जाए. वे कोई ज्यादा बड़ा काम करने नहीं चले गए बल्कि सामान्य संकाय सदस्य की तरह वहीं काम करते रहे. उन्हीं की तरह संस्थापक टीम के उनके कई साथियों ने भी संस्थान की संस्कृति और सारतत्व पर टिकाऊ छाप छोड़ी. कुछ शिक्षकों को तो छात्र असाधारण मानते हैं.

मार्केंटिंग के प्रोफेसर अभिनंदन जैन ऐसे ही शिक्षक हैं. वे 50 साल से संस्थान में हैं. पहले छात्र थे और फिर 44 बैचों को पढ़ाया. हाल में उनकी 75वीं सालगिरह मनाने के लिए दुनिया भर से पूर्व छात्र उड़कर आए. वे केस स्टडी के तरीके से पढ़ाते थे, जो सर्वोत्कृष्ट तरीका था.

आइआइएम-ए आज भी इसी का अनुसरण करता है. इससे समग्र सोच पैनी होती है.  कई 'क्वांट’ आइआइएम-ए की कक्षाओं में धूल-धूसरित हुए, तो कई गोल्ड मेडलिस्ट के ईगो की बिल्कुल पहली ही टर्म में हवा निकल गई. कई इतने खुशकिस्मत रहे कि उन्हें अपने जीवनसाथी मिले, तो कइयों ने कैंपस के उन दो यादगार सालों में अपने जीवन की पुकार खोजी.

संस्थान की बोलचाल की जबान में यह वेल-नोन इंस्टीट्यूट ऑफ वेस्टर्न इंडिया (डब्ल्यूआइएमडब्ल्यूआइ) यानी पश्चिमी भारत की जानी-मानी संस्था जगमगाती रोशनी बनी हुई है जो कुछ सबसे मेधावी दिमागों को आकर्षित करती है और जिसने कुछ असाधारण अगुआ तैयार किए.

(लेखक अर्थशास्त्री और पुणे स्थित गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स ऐंड इकोनॉमिक्स के वीसी हैं. वे 1984 में आइआइएम-ए से पासआउट हैं.)

 

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