मेहमान का पन्नाः किरण कार्णिक
मैंने 1966 की गर्मियों में आइआइएम अहमदाबाद के तपते और तब नीरस कैंपस में कदम रखा. यहां की ध्यान खींचने वाली वास्तुकला, इमारतों पर ईंटों की खुली कारीगरी, विशाल और गोल कुंड, पहले के जर्जर खंडहर या आधे-अधूरे निर्माण देखकर मैं अवाक रह गया. ये छात्रावास थे, जो तब संकाय और प्रशासनिक स्टाफ के दफ्तरों, छात्रों के मेस, किचन और कई दूसरी चीजों के लिए इस्तेमाल किए जाते थे. हमें शिक्षकों के आवासों में रहने का सौभाग्य मिला. फिर 1967 में हम छात्रावासों में आ गए.
कक्षाएं और भी मामूली अस्थायी शेड में लगती थीं. मगर उनके भीतर जो होता था, वह मेरे और कई दूसरों के लिए क्रांति से कम नहीं था. हमारी पढ़ाई-लिखाई पारंपरिक कक्षाओं में हुई थी. वहां फरमान यह था कि ''आंख-कान खुले, पर मुंह कसकर बंद रखो.’’
कक्षा में चर्चा का रिवाज, और वह भी जिसमें शिक्षकों से ज्यादा छात्र बोलते हों, हमारे लिए बिल्कुल बेगाना था. आइआइएम-ए में पढ़ाई की केस स्टडी पद्धति का यही लब्बोलुबाव था और क्लास पार्टिसिपेशन (सीपी) या कक्षा में हिस्सेदारी के नंबर भी मिलते थे. हर हफ्ते होने वाली क्विज और सीपी से कुल नंबर तय होते थे. हम तो साल में एक बार इम्तिहान के आदी थे और इसलिए यह एक और आमूलचूल बदलाव था.
केस स्टडी पद्धति से बाहर की असल दुनिया कक्षा के भीतर आ गई. इसने मुझे (सीपी के जरिए) अलग-अलग नजरियों को गौर से सुनना सिखाया. टीम वर्क, तार्किक विश्लेषण, लिखे और बोले गए संवाद—आइआइएम-ए की ये सीखें मेरे करियर के दौरान मैनेटमेंट की तकनीकों जितनी ही बेशकीमती थीं. हम खुशकिस्मत थे कि हमें अनुभवी और युवा शिक्षकों का आदर्श मेल मिला. वे सब प्रतिबद्ध और समर्पित थे.
कैंपस में मिजाज और जज्बा उतना ही रोमांचक था जितना किसी स्टार्ट-अप में होता है. कैंपस में मेलजोल और भाईचारा गजब का था. शिक्षक खाने या चाय पर अक्सर छात्रों के साथ आ बैठते. उन्हें उनके पहले नाम से बुलाया जाता. मैंने अपने सहपाठियों से भी बहुत सीखा. मसलन, सार्त्र और जैज से मेरा तआरुफ यहीं हुआ और दूसरों के साथ कैंपस की पहली पत्रिका (रेड ब्रिक) तैयार की.
आधी सदी पहले की और भी कई अद्भुत यादें कौंधती हैं. मुझे गर्व है कि आइआइएम ने अपनी खूबियां बहरहाल कायम रखी हैं.
(किरण कार्णिक जन नीति विश्लेषक, स्तंभकार और लेखक हैं. उन्होंने आइआइएम-ए से 1968 में पढ़ाई पूरी की)