जिस लकड़ी को हथौड़ी और छेनी नहीं काट सकी, उसे कुल्हाड़ी और हंसिया क्या काट पाएंगी?
वृद्धों के वचनों से जो मस्तिष्क सिक्त हो...
क्या वह वेदों और आगम की कुल्हाड़ी-दरांती के सामने हार जाएगा? बिल्कुल नहीं.
सत्रहवीं सदी के वचन परंपरा के कवि हेमगल्ला हम्पा ने ये पंक्तियां शायद 21वीं सदी के वचन विद्वान एम.एम. कलबुर्गी के लिए ही लिखी होंगी, जिन्हें बीते 30 अगस्त को गोली मार दी गई. कलबुर्गी कन्नड़ के पुरालेखविद् थे, अपने निबंध संग्रह मार्ग 4 के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था और हम्पी स्थित कन्नड़ विश्वविद्यालय के वे कुलपति रह चुके थे. एक स्पष्ट और तीक्ष्ण मेधा को क्या, कभी उन लोगों की मामूली प्रताडऩाएं और बंदूकें खत्म कर पाएंगी जो खुद के आस्तिक होने का दावा करते हैं? कलबुर्गी का नाम तो अमर हो गया, भले पुलिस अब भी उनके हत्यारों का नाम जानने में कोई दिलचस्पी लेती न दिख रही हो.
दीन-दुखियों को उम्मीद बेचने वाले स्वयंभू भगवानों और देवियों के दौर में तथा उपभोग की सीढ़ी पर चढ़कर ईश्वर तक पहुंचने की आस लगाने वालों की भीड़ के बीच लोगों से अब यह कहना बहुत मुश्किल हो चला है कि वे सिर्फ तर्क में आस्था रखें. यह दौर तार्किक होने के लिहाज से ठीक नहीं, तर्कवादी होने की तो बात ही छोड़ दें. हक्वपा पूछते हैं, ''जिन भगवानों को तुम जरूरत के वक्त बेच देते हो और चोरों के डर से दफना देते हो, उन्हें मैं कैसे सही मानूं? ''
वचनों की रचना करने वाले 12वीं सदी के शैवमार्गी शरण अलग-अलग जातियों और पेशों से आते थे. इनमें गाय चराने वाले, रस्सी बनाने वाले, चर्मकार, तेल पेरने वाले शामिल थे. इनमें पुरुष, स्त्रियां दोनों थे. साहित्य अकादमी से छपे मध्यकालीन कन्नड़ साहित्य के एक सर्वेक्षण में जैसा कि एच.एस. शिवप्रकाश लिखते हैं, ''शरणों ने परंपरागत ग्रंथों और रीति-रिवाजों पर गुलामों-सी निर्भरता दूर रखते हुए निजी अनुभवों और सत्य के अन्वेषण पर बहुत बल दिया था. सभी नहीं, लेकिन ज्यादातर शरणों ने मंदिर में पूजा का इसलिए बहिष्कार किया क्योंकि मंदिरों के दरवाजे केवल उच्च जातियों के लिए खुले थे. ''
श्रेष्ठ शरण बासव ने एक सभागार अनुभव मंडप की स्थापना की थी जिसमें सभी जातियों के पुरुष और स्त्री आ सकते थे. वे वहां एक-दूसरे से बहस करते थे और अंधविश्वासों की आलोचना करते थे. शरण संप्रदाय का यह तर्कवादी गुण हालांकि 13वीं सदी आते-आते ऊंची जातियों के दमन के कारण मिटने लगा और धीरे-धीरे शरण की परंपरा पर वीराशैव के पुरोहित वर्ग का वर्चस्व हो गया. कलबुर्गी के शोध ने जब बासव, उनकी पत्नी नीलाक्विबके और भतीजे चन्नाबासव के इतिहास को नई रोशनी में सामने लाने का काम किया, तो लिंगायत समुदाय के ताकतवर लोगों में आक्रोश पैदा हो गया और उन्होंने कलबुर्गी को उनके लिखे का खंडन करने को बाध्य किया. अब जो बात सामने आ चुकी थी, उसे इतनी जल्दी मिटाया तो नहीं जा सकता था. दुनिया भर के इतिहास में समूची दास्तान यही है—समानता और तार्किकता के लिए संघर्ष, सत्ताधारी वर्ग और संरक्षणवादी ताकतों के हाथों उसका दमन और अपने तरीके से उपयोग.
धार्मिक असहिष्णुता ने भले ही कर्नाटक में कलबुर्गी, महाराष्ट्र में नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे जैसे तर्कवादियों की हत्या कर दी हो; उन्होंने भले ही इंडियन रेशनलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष सनल एडमारूकू को निर्वासन में भेज दिया हो; पर क्या वे वास्तव में भारतीय दर्शन के समूचे इतिहास, चार्वाक परंपरा, भक्ति और सूफी संप्रदाय, अनीश्वरवाद, अज्ञेयवाद, सर्वेश्वरवाद तथा करोड़ों आम भारतीयों के सहज बोध को नष्ट कर पाने में समर्थ होंगे?
भविष्य को लेकर तो हम आशावादी हैं, लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं कर सकते कि हिंदुत्ववादी ताकतों से हमें तात्कालिक और स्पष्ट खतरा है. बजरंग दल का नेता भुवित शेट्टी जब यह ट्वीट करता है कि ''तब यूआर अनंतमूर्ति था और अब एमएम कलबुर्गी. हिंदूवाद का मजाक उड़ाओ और कुत्ते की मौत मरो. और डियर के.एस. भगवान, अगली बारी आपकी है'', तब उसके पितृ संगठन आरएसएस के नेता मोहन भागवत चुप क्यों रहते हैं?
वैसे तो वे आसपास की हर चीज और हर व्यक्ति की निंदा करने के लिए लगातार दूसरों का आह्वान करने में व्यस्त रहते हैं—कि मुसलमानों को आइएस की निंदा करनी चाहिए, मानवाधिकार समूहों को माओवादियों की निंदा करनी चाहिए, वगैरह-वगैरह. इससे भी कहीं मौजूं सवाल यह है कि शिक्षक दिवस पर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ने इस घटना की निंदा क्यों नहीं की?
हिंदुत्ववादी समूह यह तो चाहते हैं कि मुसलमान 'समाविष्ट' हो जाएं, लेकिन उन्हें इतने भी समावेश की छूट नहीं दी जा सकती कि वे रामायण पर लिखने लगें. मलयालम आलोचक एम.एम. बशीर को अचानक इस बात का इलहाम हुआ जब उन्हें फोन पर गालियां दी जाने लगीं. यहां तक कि हिंदुओं को भी रामायण पर अपनी मनमर्जी से लिखने या व्याख्या की छूट नहीं है. याद करें, ए.के. रामानुजम की थ्री हंड्रेड रामायणाज को, जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से निकलवा दिया गया था. जल्द ही यह स्थिति आने वाली है कि रामचरितमानस का गीता प्रेस से छपा संस्करण ही मान्य होगा.
बासव की स्पीकिंग ऑफ शिवा से ए.के. रामानुजम का अनुवाद किया हुआ एक अद्भुत हिस्सा है. वे लोग जो मौजूदा हालात से निराश हैं और वे भी जिन्हें हिंसा और राज्य पर अपने नियंत्रण के कारण गर्व है, दोनों को याद रखना चाहिए कि हर चीज एक वक्त के बाद गुजर जाती है:
अमीर लोग तो शिव के लिए मंदिर बनाएंगे, मैं गरीब, क्या करूंगा? मेरे पांव स्तंभ हैं और देह एक तीर्थ, मेरा शीश सोने का गुंबद है. हे संगम के देवता, सुनो, जो स्थिर हैं वे गिर जाएंगे जो गतिमान है वे बचे रहेंगे हमेशा.
(नंदिनी सुंदर दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं)
विवेक वालों की कहां है ठौर?
इसमें दो राय नहीं कि हिंदुत्ववादी ताकतें एक बड़ा खतरा पैदा कर रही हैं.

अपडेटेड 11 सितंबर , 2015
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