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समाज का प्रतिबिंब है सिनेमा

वह जमाना गया जब लिफाफा देखकर मजमून भांप लिया जाता था. आज चित्र को मत देखें, चरित्र देखें.

अपडेटेड 29 सितंबर , 2014
सिनेमा समाज का प्रतिनिधि नहीं बल्कि प्रतिबिंब है. जैसे-जैसे समाज बदलता है, सिनेमा भी बदलता है. पहले हमारे हीरो टीचर, पुलिसवाले या फिर क्रांतिकारी हुआ करते थे. वे समाज के उन तबकों से होते थे जो समाज में स्वच्छ छवि रखते थे या विशेष होते थे. साहूकार, जमींदार और अन्य ताकतवर लोग विलेन के तौर पर होते थे जो सत्ता की ताकत का इस्तेमाल खुद के लिए करते थे. लेकिन समय ने करवट ली. जंजीर में अमिताभ बच्चन कॉमनमैन को लेकर आए. थोड़े समय तक काला पत्थर, सुहाग, मुकद्दर का सिकंदर में इसी तरह का हीरो नजर आया. विलेन भी उसी के मुताबिक आना लाजिमी था.

दौर बदल रहा था, और फिर थोड़े अंतराल के बाद एक ऐसा विलेन आया जो हीरो की ही तरह कॉमनमैन था. पहले ऐसे विलेन आते थे जो दूर से पहचान लिए जाते थे, हीरो या तो उनके चक्कर में फंस जाता था या उससे बच के निकल जाता था. लेकिन नया विलेन अलग था. उसकी परिभाषा अलग थी. वह ऐसा शख्स था जिस पर हम ध्यान नहीं देते या फिर ऐसा इनसान था जिसको हम कोई महत्व नहीं देते या फिर जिसकी शक्ल भी हमको याद नहीं रहती. 1999 में दुश्मन का गोकुल पंडित ऐसा ही किरदार था. पोस्टमैन आपको डाक देने आता है, लेकिन अगर वह आपको कहीं बाहर मिल जाए तो आप उसको पहचान भी नहीं पाते. ये ऐसे किरदार थे जिनकी कोई खास पहचान नहीं थी. इस समय तक विलेन आपके बीच से गुजरने वाला ऐसा शख्स बन गया था जिसकी कोई पहचान नहीं थी. यह ऐसा विलेन है जिसे आप पहचान नहीं पाते. यह ज्यादा मुश्किलें पैदा करने वाला है.

हीरो और विलेन का अंतर देखना दिलचस्प है. दोनों की अपनी-अपनी फैन फॉलोइंग होती है. उनका अपना ग्रुप और पावर होती है. लेकिन अंतर यह होता है कि हीरो जहां समाज की ताकत का इस्तेमाल समाज निर्माण में करता है वहीं विलेन समाज की ताकत का इस्तेमाल स्वांत: सुखाय करता है. यही दोनों में सबसे बड़ा अंतर होता है. आज का विलेन कोई व्यक्ति नहीं, एक तरह की मानसिकता, प्रकृति या सोच है. व्यक्तियों को पकड़ा या रोका जा सकता. लेकिन प्रवृत्तियों, मानसिकता या सोच को नहीं पकड़ा जा सकता है. बस, इस तरह की मानसिकता पैदा हुई और उससे नए तरह का विलेन निकला.

वक्त के साथ हीरो और विलेन के गुण बदले हैं. हीरो ने विलेन वाले गुणों को आत्मसात करना शुरू किया तो विलेन ने भी हीरो वाले गुणों को अपने अंदर समाना शुरू कर दिया. आवारापन के मलिक साहब कुछ इसी तरह के इनसान थे. नकारात्मक होते हुए भी उनमें सकारात्मक गुण थे. इसी तरह समाज का बदला चेहरा विलेन के तौर पर भी सामने आता है. आज भू-माफिया, नेता या सत्ता पर काबिज शख्स जैसे विलेन आते हैं. यानी समाज ये किरदार बिंब के प्रतिबिंब के रूप में सामने आते हैं.

अगर आप सिंघम के बाबा, मरदानी के देह व्यापार करने वाले विलेन या फिर एक विलेन के रितेश देशमुख को देखें तो बाबा को संघर्ष के तांत्रिक लज्जा शंकर, मरदानी के विलेन को कलयुग के फरीद या फिर एक विलेन के रितेश देशमुख की तुलना गोकुल पंडित से कर सकते हैं. कहने का मतलब यह है कि हम कलेवर बदल रहे हैं, कहानियां तो वही चली आ रही हैं.

नए विलेन की एक खास बात चेहरा भी है. उदाहरण के लिए टीवी पर दिखाई जाने वाली महिला पात्रों को ही लें. ये हसीन चेहरे घर जोडऩे का नहीं बल्कि तोडऩे का काम करते नजर आते हैं. उनके चरित्र के नायकत्व वाले पक्ष को नहीं बल्कि खलनायकत्व वाले पक्ष को दिखाया जाता है. इसी तरह अब चेहरे पर जाना अतीत की बात हो चुका है. आज के विलेन को देखकर यह बात कही जा सकती है कि शक्ल पर मत जाइए. वह जमाया गया जब लिफाफा देखकर मजमून जान लिया करते थे. अगर आप चेहरा देखकर यकीन करते हैं तो कहीं न कहीं धोखा जरूर खाएंगे.

सकारात्मक पहलू यह है कि पहले हीरो विलेन का काम करना कतई पसंद नहीं करते थे. फिल्मी दुनिया कई हिस्सों में बंटी हुई थी. मसलन, हर फिल्म में कॉमेडी के लिए पूरा अलग ग्रुप होता था. कॉमेडियन के लिए गाने और प्रेमिका भी होती थी. दौर बदला. हीरो खुद कॉमेडी करने लगे. यह रुझान कुछ दिनों तक चला और अब हीरो ने विलेन का भी काम शुरू कर दिया. इससे सकारात्मक संकेत मिलता है कि कलाकार का संबंध कला से है न कि हीरो, विलेन और कॉमेडियन से. अब रोल अहम होते जा रहे हैं. लंबे समय से कॉमेडियन, विलेन और हीरो को लेकर बहस होती आई है. लेकिन अब यह सीमाएं समाप्त हो गई हैं. अगर हीरो विलेन बन रहा है तो विलेन भी रोमांटिसिज्म लिए हुए है. मसलन, धड़कन में सुनील शेट्टी, डर में शाहरुख खान, धूम-3 में आमिर खान और वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई दोबारा में अक्षय कुमार ने ऐसे ही किरदार निभाए हैं.

यह सुखद संदेश है. अब कलाकारों को अलग-अलग विभागों में बांटना बंद हो रहा है. अब किरदार अच्छा या बुरा नहीं रहा है. अहम यह है कि उसे अच्छे तरीके से किया गया है या खराब तरीके से. कला का एप्रिसिएशन अब लोगों को समझ आने लगा है. अब हीरो विलेन बनता है या विलेन हीरो का रोल करता है, मायने सिर्फ ऐक्टिंग के ही होते हैं. यह बात भी याद रखने वाली है कि जिस तरह रूप सुंदर है लेकिन स्वरूप विकृत है, चित्र सुंदर है लेकिन चरित्र विकृत है. उसी संदर्भ में कह सकते हैं कि यह दौर चरित्र को देखने का है न कि सिर्फ चित्र को.

लेखक बॉलीवुड ऐक्टर हैं
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