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निजी क्षेत्र में रक्षा उत्पादन की बड़ी चुनौती

रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में उतरने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करें और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए वैश्विक हथियार निर्माताओं को राजी करें.

अपडेटेड 22 सितंबर , 2014
भारत में रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहन देने की जरूरत पर कोई दो राय नहीं हो सकती, लेकिन इसे हासिल करने की रणनीति पर काफी बहस हुई है. यूपीए सरकार ने इसे रक्षा उत्पादन नीति 2010 में जगह दी थी लेकिन वह विश्वसनीय रणनीति नहीं थी. नई एनडीए सरकार ने स्वदेशी रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहित करने की जरूरत पर बल दिया है. इसने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी कर दिया है.

जहां कहीं अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी तक पहुंच संभव हो, वहां चुनिंदा तरीके से 49 फीसदी से ज्यादा एफडीआइ की भी मंजूरी दी जा सकती है. ऐसे 49 फीसदी से ज्यादा एफडीआइ वाले प्रस्तावों के लिए इस अनिवार्यता में रियायत दी गई है कि आवेदक कंपनी का प्रबंधन किसी भारतीय के हाथ में होना चाहिए. नई शर्त यह लाई गई है कि कंपनी को उत्पाद डिजाइन और विकास के क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होना चाहिए.

ये बदलाव स्वागतयोग्य हैं. हालांकि रक्षा उत्पादन के आधार को सशक्त करने की समूची रणनीति के मामले में अब भी कई खामियां मौजूद हैं. इसे सशक्त करने के लिए व्यापक पारिस्थितिकी तंत्र के संदर्भ में कई ऐसे अहम मामले हैं जिनकी ओर नीति निर्माण के स्तर पर ध्यान दिया जाना होगा.

 रक्षा खरीद प्रणाली (डीपीपी) के अंतर्गत ‘मेक’ इन इंडिया की शुरुआत अभी नहीं हो सकी है. लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के ‘‘मेक इन इंडिया’’ के आह्वान का अर्थ है कि डीपीपी के तहत ‘‘निर्माण’’ की प्रक्रिया को बहाल किया जाए. इस प्रक्रिया में प्रोटोटाइप डिजाइन और विकास की कीमत को रक्षा मंत्रालय और कंपनी 80:20 के अनुपात में साझा करेंगे. ‘‘मेक इन इंडिया’’ के अंतर्गत शस्त्र प्रणाली और प्रौद्योगिकी का बौद्धिक संपदा अधिकार भारत के पास ही रहेगा.

अब तक ऐसी सिर्फ  दो परियोजनाएं जो शुरू हुई हैं, फ्यूचर इन्फैंट्री कॉम्बैट वेहिकल (एफआइसीवी) और टेक्टिकल कम्युनिकेशन सिस्टम (टीसीएस), दोनों की प्रगति बहुत मद्धिम है. इन दो परियोजनाओं का अनुभव इस बात की ओर इशारा करता है कि ऐसी परियोजनाओं को समयबद्ध तरीके से पूरा करने के मामले में रक्षा मंत्रालय और सैन्य बल मुख्यालय में काबिलियत और क्षमता का अभाव है.

 ‘‘मेक’’ इन इंडिया की 20 से 25 परियोजनाओं को आरंभ किए जाने की जरूरत है ताकि भारतीय रक्षा उत्पादन के समूचे पारिस्थितिकी
तंत्र में नई जान डाली जा सके. इस उद्देश्य से सैन्यबलों के लिए 2012-2027 की अवधि में लांग टर्म इंटिग्रेटेड पर्सपेक्टिव प्लानिंग (एलटीआइपीपी) के तहत पहचानी गई परियोजनाओं के बरअक्स इंटिग्रेटेड डिफेंस स्टाफ (आइडीएस) द्वारा व्यवहार्यता रिपोर्टें जारी किए जाने की जरूरत होगी.

रक्षा मंत्रालय में नियोजन की प्रक्रिया कमजोर है और उसे सशक्त बनाए जाने की जरूरत है. एलटीआइपीपी 2012-2027 अनिवार्यतः कुछ परियोजनाओं की अवधारणा, शस्त्र प्रणालियों और प्रौद्योगिकियों की एक सूची है जिसकी जरूरत सैन्यबलों को अपने रणनीतिक उद्देश्य और चुनौतियां पूरी करने के लिए पड़ती है और जिसका पूंजीगत व्यय के लिए बजटीय आवंटन के साथ कोई रिश्ता नहीं होता. एलटीआइपीपी 2012-2027 को सशक्त करने के लिए 15 वर्ष की समयावधि में योजना लक्ष्यों और उपलब्ध संसाधनों के बीच एक स्पष्ट संपर्क स्थापित करने की जरूरत है जिसमें एलटीआइपीपी को सुरक्षा पर कैबिनेट समिति से मंजूरी मिल सके.

उभरती हुई भू-रणनीतिक चुनौतियों से निबटने के लिए सैन्यबलों का गंभीर क्षमता संवर्द्धन सिर्फ संसाधन आधारित योजना से ही किया जाना संभव है. इसके अलावा भारत का रक्षा बजट भी जीडीपी का 0.75 फीसदी बढ़ाए जाने की जरूरत है.

 रक्षा उत्पादन में एफडीआइ को भले ही बढ़ा दिया गया है, लेकिन एक पहलू जिसकी अकसर उपेक्षा कर दी जाती है वह यह है कि मौलिक रक्षा उपकरणों के वैश्विक निर्माता (ओईएम) अपनी मातृ सरकारों की मंजूरी के बगैर प्रौद्योगिकी हस्तांतरण करने की स्थिति में नहीं होते. इसीलिए एफडीआइ नीति के अंतर्गत उद्यम स्तर के संबंधों को पीछे से सरकारों के बीच कूटनीतिक रिश्तों से सहारा दिए जाने की जरूरत होगी. ऐसा करने के लिए देशों और महाद्वीपों के पास कई किस्म के विकल्प मौजूद हैं और इनके बीच के परस्पर इंतजाम को इस बहुध्रुवीय विश्व में रणनीतिक उद्देश्यों से संचालित होना होगा.

भारत ने रक्षा उत्पादन करने वाले सरकारी उपक्रमों से बार-बार खरीदने का ऐसा विकल्प चुन लिया है जहां उसकी नैतिक जवाबदेही, जोखिम और खतरे कम हो जाते हैं क्योंकि ये कंपनियां खुद सरकारी होती हैं. इस मॉडल से निजात पाना ही अहम चुनौती है ताकि भारत के निजी क्षेत्र को रक्षा उत्पादन में उतरने को प्रोत्साहित किया जा सके.

प्रतिस्पर्धी बोलियों के माध्यम से मूल्य निर्धारण के अभाव में इकलौता विकल्प कीमत में मूल्य संवर्द्धन का रह जाता है. इसके लिए निजी और सरकारी कंपनियों के मूल्य ढांचे का गहरा विश्लेषण करना जरूरी हो जाता है.

अगर पनडुब्बी जैसे जटिल उपकरणों के निर्माण के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना है, तब उन्हें परियोजनाएं देने के लिए हमें प्रतिस्पर्धी बोली वाली प्रणाली का कोई विकल्प खोजना होगा. केलकर समिति ने 2005 में सिफारिश की थी कि निजी क्षेत्र की कंपनियों को राष्ट्रीय चैंपियन करार दिया जाए और उन्हें रक्षा प्रोजेक्ट सौंपे जाएं. रक्षा मंत्रालय इस प्रस्ताव पर आगे नहीं बढ़ सका है. अगर देश को निजी क्षेत्र में रक्षा उत्पादन का सशक्त आधार तैयार करना है तो इस गतिरोध को तोडऩा होगा.

 ऐसा नहीं हो सकता कि देश ऊंची कीमतों पर ऐसे स्वदेशी निर्माण करता रहे जो वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी न हों. बताया जाता है कि सुखोई एसयू-30एमकेआइ के देसी उत्पादन की कीमत रूस से पूरी तरह तैयार ऐसा विमान आयात करने के मुकाबले कहीं ज्यादा पड़ती है. रक्षा उत्पादन की सरकारी कंपनियों और आयुध कारखानों ने उच्च कीमत वाला ऐसा ढांचा बनाए रखा है कि उन्हें जब कभी निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा मिलेगी, वे कमजोर पड़ जाएंगे. चूंकि वैश्विक प्रतिस्पर्धा की असली कसौटी निर्यात है, लिहाजा रक्षा विनिर्माण आधार का निर्यातोन्मुखी होना समूची रणनीति का आवश्यक अंग होना चाहिए.

 इसके अलावा प्रौद्योगिकी और ऑर्डर के प्रवाह को सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र की तरफ मोड़ा जाना भी ‘‘बाइ ऐंड मेक’’ प्रणाली के तहत एक अहम जरूरत है. हाल ही में ऑरो के बेड़े को बदलने के लिए रक्षा मंत्रालय द्वारा ओईएम के हाथ में भारत से निजी कंपनी को चुनने का अधिकार दिया जाना एक स्वागतयोग्य कदम है. ऐसे ही फैसलों से भारतीय रक्षा तंत्र में सरकारी उपक्रमों के प्रति गहरे पैठे आग्रह को दुरुस्त किया जा सकेगा और भारत के निजी क्षेत्र को बढऩे का मौका दिया जा सकेगा.

पिछले 13 वर्ष के अनुभव इस मामले में धुंधले रहे हैं और भारत के निजी क्षेत्र में रक्षा उत्पादन अब भी मामूली बना हुआ है. अगर देश को एक विश्वसनीय सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान में तब्दील करना है तो रणनीतिक दृष्टि और दिशा देने की जरूरत होगी. यह देश आज की तारीख में पिछले दशक की रफ्तार से पीछे खिसकना मंजूर नहीं कर सकता.

(विवेक रे रक्षा मंत्रालय में 2010 से 2012 के बीच महानिदेशक (अधिग्रहण) थे. वे फिलहाल सातवें वेतन आयोग के सदस्य हैं. इस लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)
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