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बॉलीवुड में नए टैलेंट से जगी उम्मीदें

बॉलीवुड में कहानी और किरदार नारी प्रधान फिल्मों के दौर को अच्छी मजबूती देने का काम कर रहे हैं. नए टैलेंट से उम्मीदें जगी हैं.

अपडेटेड 22 सितंबर , 2014
अच्छा कन्टेंट हमेशा टिका रहता है. ट्रेंड तो आते-जाते रहते हैं. फिल्म किसी भी सब्जेक्ट पर हो, कन्टेंट में दम होगा तो वह कामयाबी के पायदान चढ़ेगी. इधर हाल के वर्षों में ऐसा ही कुछ विमेन ओरिएंटेड फिल्मों के साथ भी हुआ है. जिन फिल्मों ने कामयाबी का स्वाद चखा, उनका कन्टेंट अच्छा था. वे हर तरह से ऑडिएंस को अपील करती थीं. इस वजह से वे अच्छे सिनेमा में तब्दील हो सकीं. अच्छी फिल्में बनेंगी तो वे कामयाब होंगी.

बॉलीवुड को समाज का आईना कहा जाता है. औरतों पर आधारित फिल्में आने और उनके कामयाब होने का यह मतलब कतई नहीं कि हमारा समाज औरतों को लेकर सेंसिटिव हो गया है, उनके प्रति संवेदनशीलता दिखाने लगा है. इस मामले में अभी लंबा फासला तय करना है. औरतों को लेकर सोसाइटी में अभी जो भी काम चल रहे हैं वे तो बस एक शुरुआत भर हैं. फिल्में भी उसमें अपने हिस्से का रोल निभाने की कोशिश कर रही हैं.

अकसर कहा जाता है कि फिल्में इश्यू बेस्ड होनी चाहिए. मेरा जोर इश्यूज की बजाए इमोशंस पर, जज्बात पर होता है. इंग्लिश विंग्लिश को ही लीजिए. उसमें मैंने लैंग्वेज और इंग्लिश को जरिया बनाया. उसके जरिए यह फिल्म एक इनसान के कॉन्फिडेंस की कहानी कहती है. सब्जेक्ट ऐसा होना चाहिए जो सबको अपील करे, आम आदमी को अपने से जोड़ सके. बॉलीवुड का तो रिकॉर्ड ही रहा है कि वह दो कदम आगे चलता है तो उसके बाद पांच कदम पीछे खिसक लेता है. इस रिकॉर्ड को दुरुस्त किए जाने की जरूरत है.

अभी हाल के कुछ वर्षों में बॉलीवुड में ऐसी फिल्मों की संख्या बढ़ी है, जिनमें फीमेल लीड को हीरो के बराबर ही सॉलिड रोल दिया गया है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि विमेन ओरिएंटेड फिल्मों के दिन लौटे हैं. 1980-90 का दशक एक ऐसा वक्त था, जब इस तरह की फिल्में सीन से एकदम ही गायब हो गई थीं. तब सिर्फ मर्दों वाली फिल्में ही बनती थीं.

बदलते दौर के साथ बॉलीवुड ने भी करवट ली है. अब हर साल नए सितारे और डायरेक्टर्स की नई जमात हिंदी सिनेमा से जुड़ती जा रही है. इस वजह से फिल्मों में लगातार नए किरदार और नई कहानियां आ रही हैं. बर्फी (2012) में झिलमिल चटर्जी बनीं प्रियंका चोपड़ा को ही लें. वे किसी मायने में रणबीर कपूर से कम नहीं थीं. कॉकटेल (2012) में वेरोनिका के रोल में दीपिका पादुकोण एकदम अलग और मॉडर्न लड़की की तस्वीर पेश करती हैं. चेन्नै एक्सप्रेस (2013) में भी दीपिका शाहरुख की टक्कर की थीं. पिछले दिनों आई हाइवे (2014) में नई नवेली आलिया भट्ट ने तो अपनी ऐक्टिंग से सबको हैरत में ही डाल दिया. एक सेंसिटिव सब्जेक्ट को उन्होंने अपनी ऐक्टिंग के जरिए दर्शकों के दिलों के करीब ला दिया. इधर, मरदानी को लेकर भी काफी कुछ सुनने को मिल रहा है. पूरी तस्वीर बदल रही है. डायरेक्टर और ऐक्टर सेंसिटिव सब्जेक्ट्स को छू रहे हैं और कुछ संजीदा काम करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन फिल्म बनाने वालों को लेकर एक बात दिमाग में रखना जरूरी हैः हम कोई सोशल ऐक्टिविस्ट नहीं, हम स्टोरीटेलर, कहानी कहने वाले लोग हैं. हम जो भी फिल्म बनाते हैं, उसमें बिजनेस फैक्टर भी रहता है. इसलिए हमारी कोशिश कंप्लीट फिल्म बनाने की रहती है. सारी जिम्मेदारी फिल्म इंडस्ट्री के कंधों पर ही नहीं होनी चाहिए. हम सिर्फ अच्छी फिल्में बनाने की कोशिश कर सकते हैं. सोसाइटी के अलग-अलग तबकों का भी फर्ज बनता है कि वे महिलाओं और उनसे जुड़े इश्यूज को लेकर आवाज उठाएं. चौतरफा कोशिश से ही पॉजिटिव शुरुआत संभव है.

हमारी फिल्में इंटरनेशनल फिल्म अवाड्र्स में बहुत कम जगह बना पाती हैं. इसी से इनके स्टैंडर्ड का अंदाजा लग जाता है. लगान को छोड़ दें तो और किसी फिल्म का नाम ध्यान में ही नहीं आता, जिसके नाम ऐसी उपलब्धि दर्ज हो. एक और अहम बात, हमारे यहां क्वालिटी की बजाए क्वांटिटी पर ज्यादा जोर रहता है. साल भर में 500 से ज्यादा फिल्में रिलीज हो जाती हैं लेकिन उनमें से याद इक्का-दुक्का ही रहती हैं. इस ट्रेंड को बदलना होगा. सिर्फ प्रॉफिट और गिनती के पैमाने पर फिल्में बनाने से कहानी गौण हो जाती है. फिल्म अच्छी होगी और कन्टेंट सॉलिड होगा तो फिल्में खुद दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचेंगी और पैसे की बारिश करेंगी.

समय-समय पर महिलाओं को लेकर यादगार फिल्में बनाई जाती रही हैं, जिनमें नर्गिस की मदर इंडिया (1957), जया भादुड़ी की गुड्डी (1971) और मिली (1975), मीना कुमारी की पाकीजा (1972), रेखा की उमराव जान (1981), मनीषा कोइराला की बॉम्बे (1995) और काजोल की दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे (1995) ऐसी ही फिल्में हैं. इस कड़ी में हम 2000 के बाद की फिल्मों को देखें तो तब्बू की चांदनी बार (2001) और चीनी कम (2007), विद्या बालन की परिणीता (2005), पा (2009) और कहानी (2012) और श्रीदेवी के अभिनय वाली मेरी फिल्म इंग्लिश विंग्लिश (2012) को रखा जा सकता है. ये वे फिल्में हैं, जिन्होंने औरत के पूरे स्ट्रगल और पूरी शख्सियत को दमदार अंदाज में पेश किया.

इधर तीन-चार साल में आई फीमेल ऐक्टर्स और उनकी फिल्में इशारों में बता रही हैं कि आगे का सफर कैसा रहने वाला है. ये ऐक्टर्स परदे पर तरह-तरह के किरदार निभा रही हैं. वे जिंदगी को अपने ढंग से जीने, सिर्फ एक औरत होने के एहसास से आगे निकल रही हैं. एक मजूबत पुलिस अफसर परदे पर नजर आती है तो एक लड़की अकेले हनीमून पर निकल जाती है. एक लड़की अपने शोषण के खिलाफ आवाज उठाती है. यानी औरतों के लिए ऐसे किरदार गढ़े जा रहे हैं, जो असल जिंदगी के करीब हैं. कुल मिलाकर फिल्म बनाने वालों की सोच बदल रही है. अब औरतें सिर्फ शो-पीस की तरह फिल्मों में नहीं आतीं, बल्कि उन्होंने अपना वजूद हासिल कर लिया है. नया टैलेंट उम्मीदें जगा रहा है.

(लेखिका इंग्लिश विंग्लिश की डायरेक्टर हैं)
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