एक हफ्ते के भीतर सेना और आतंकी संगठन, दोनों ही एक बार फिर सुर्खियां बटोरने में कामयाब रहे हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार चर्चा की वजह दो एक-दूसरे से बिल्कुल अलग किस्म की घटनाएं बनी हैं. पहली घटना बंगलुरू में एक आतंकी हमले की है तो दूसरी नौसेना में कथित वाइफ-स्वैपिंग की. रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी के हाल के बयानों से जाहिर है कि वाइफ-स्वैपिंग के ये आरोप पहले ही साबित हो चुके हैं और यही वजह है कि उन्होंने दोषियों को कड़ी सजा देने के लिए कदम उठाने की बात कही है. यहां तक कि इन बयानों से पहले ही मीडिया को देखने-सुनने वाले हलकों में यह चर्चा शुरू हो गई कि नौसेना में तो इस तरह की बातें होती रहती हैं.
सेना पर केंद्रित और उससे जुड़े दूसरे मामलों की तरह इस बार भी हम में से ज्यादातर लोगों ने जांच प्रक्रिया के पूरा होने से पहले ही जल्दबाजी में अपने-अपने निष्कर्ष निकाल लिए हैं. लेकिन इस पूरे वाकए को एक कहानी कहीं ज्यादा दिलचस्प बना देती है और वह कहानी है एक नौसैन्य अफसर की बरखास्तगी की. उसे ‘‘अपने साथी अफसर की पत्नी का स्नेह पात्र बन बैठने’’ के आरोप के चलते बरखास्त किया गया था. हास्यास्पद ढंग से तैयार किया यह आधा-अधूरा वाक्य दरअसल सेना में एक दंडनीय अपराध है.
इस गुत्थी के बारे में मेरे निष्कर्ष सैन्य बलों के बारे में तीन स्तरों पर बनी समझदारी पर आधारित हैं. मेरे अंदर मौजूद एक सैन्य अफसर की पत्नी को गहरा सदमा लगा है, अंदर मौजूद लैंगिक समानता की पैरोकार आरोपी के खून की प्यासी है, जबकि मेरी अकादमिक रूह टीवी पर और अखबारों में इस विषय पर चल रहे ‘‘फौजी-ड्रामे’’ को देख रही है. मुख्यधारा के मीडिया ने जो सियासी विमर्श शुरू किया है, उसमें आतंकवाद को बहुत बड़े तामझाम के साथ पेश किया गया है. यही बात सैन्य मामलों में दिखती है.
भारतीय सेना सामाजिक दायरों में अपने संतुलित और शोर-शराबे से दूर रहने वाले स्वभाव के चलते जानी जाती है. आजादी के लंबे अरसे बाद तक सेना की गतिविधियों और उससे संबंधित सूचनाओं को समाज के बड़े हिस्से तक पहुंचाने की कोई आधिकारिक व्यवस्था नहीं थी. ब्रिटिश अधिकारी रैंकों और मेडल के अलावा अकड़ और हिकारत की विरासत छोड़कर भारत से विदा हुए थे. बाद में उसी अकड़ को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ दिया गया. इन्हीं वजहों से सेना के बारे में जागरूकता की कमी, अटकलबाजियों और गलत धारणाओं का दौर शुरू हुआ. वक्त के साथ हालात और खराब हुए क्योंकि सेना ने भी आम लोगों के साथ एक सीधा संपर्क बनाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई.
नब्बे के दशक में सार्वजनिक सूचना के क्षेत्र में बुनियादी तौर पर बदलाव हुए, लेकिन सैन्य तंत्र उसी पुराने ढर्रे पर चलता रहा. 1999 के करगिल युद्ध के दौरान पहली बार भारतीय सैन्य तंत्र खासकर आर्मी ने एक छोटे-से समूह को मीडिया के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार किया. आर्मी ने एक सीमित स्तर पर ही सही पर पहली बार उस लड़ाई के बारे में उस आम जनता के साथ संवाद स्थापित करने की जरूरत महसूस की, जिसकी बिना पर वह लड़ाई लड़ रही थी. उस वक्त पूरा मुल्क राष्ट्रभक्ति की बयार में बहा चला जा रहा था. युद्ध के सीधे प्रसारणों, शहीद सैनिकों और शोक में डूबे उनके परिजनों की तस्वीरों ने वही दृश्य पैदा किया, जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुवर्ण चटर्जी ने ‘‘थिएटर ऑफ श्रद्धांजलि’’ का नाम दिया था.
हाल में कश्मीर में भारतीय सीमा क्षेत्र के भीतर पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा दो भारतीय सैनिकों के सिर काटकर ले जाने वाली घटना का भी ऐसा ही कवरेज किया गया था. मीडिया द्वारा सेना की इन छिट-पुट गतिविधियों को बढ़-चढ़कर बताने का असर खतरनाक है. इससे जंग का माहौल तैयार होता है.
हो सकता है कि इस मामले की कई परतें हों, जिनका सच वक्त बीतने के साथ सामने आ पाए. यदि नेवी अधिकारी की पत्नी का आरोप सही साबित हो जाता है तो निश्चित रूप से उसके पति और संभावित रूप से शामिल वरिष्ठ अधिकारियों पर यौन शोषण का मामला चलेगा. इस बात की भी संभावना है कि यह मामला शादी से जुड़े किसी कड़वे अनुभव का नतीजा हो. दोनों ही स्थितियों में नेवी किसी-न-किसी पृष्ठ भूमि में रहेगी ही. अभी यह समझा जाना बाकी है कि अगर यह मामला वाइफ-स्वैपिंग का भी है, (जो कि पत्नी द्वारा लगाए गए आरोपों से मेल नहीं खाता) तो भी इसके लिए सेना में कोई नियम नहीं है. सेना वास्तव में बहुत रूढ़िवादी है और यह बात सेना की उस छवि के एकदम उलट है, जो बगैर किसी शोध और तैयारी के बनाई गई फिल्मों और टीवी सीरियलों ने हमारे मन में बिठा दी है. सेना में जरूरत से ज्यादा घुलने-मिलने को बढ़ावा नहीं दिया जाता है.
इस मामले ने उन गलतियों को उजागर किया है, जो मुख्यधारा मीडिया सेना से जुड़ी खबरों की कवरेज के दौरान करता है. उसके निशाने पर मामले से जुड़े हुए लोगों की बजाए पूरी संस्था होती है. वह आधी-अधूरी बातों के आधार पर निष्कर्ष निकालता है और सनसनीखेज शब्दावली का इस्तेमाल करता है. बीते दिनों भ्रष्टाचार और हिंसा के मामलों में सेना के अधिकारियों के नाम सामने आए हैं और हर मामले में मीडिया ने यही गलती की है. इन गलतियों से सेना के बारे में सतही बहसें हो रही है और निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं.
निष्ठा गौतम दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.