करीब तीन सप्ताह पहले मैं रोम में टिबर नदी पर बने पुल पर खड़ी थी कि मुझे आकाश में अद्भुत नजारा दिखाई दिया. स्टारर्लिंग (मैना की यूरोपीय प्रजाति) का झुंड हजारों की तादाद में नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे पर उड़ रहा था, मानो एक काली चादर बिछाकर उनके नृत्य की लुभावनी भंगिमाएं उकेरी जा रही हों. उन पक्षियों की उड़ान में बौलशोई बैले की बेहतरीन कलाकारों से भी ज्यादा मखमली लयबद्धता थी जो टिबर के आरपार फैल गई थी. वे पलभर के लिए पेड़ों की शाखों पर बैठकर फिर उड़ जातीं. मैं सम्मोहित-सी उन्हें देख रही थी.
मैं लंबे समय से आनंद के विचार पर सोचती रही हूं. मुझे ‘प्लेजर’ शब्द अजीज है. इस लफ्ज को बोलते समय जबान से जिस अंदाज में इसका आगाज होता है, वह इसके कोश के अलौकिक खजाने को दर्शाने के लिए काफी है. प्लेजर. न प्लीज, या प्लीजेंट, या प्लीजिंग-ये शब्द सपाट से नजर आते हैं. सुख में भी वह बात नहीं. प्लेजर इन सबसे अलग कुछ और ही जमीन पर पोषित होता है. इसमें शरीर शामिल है-देना और लेना. वक्ष, नाखून, पेट, गर्दन, जांघ, दिल. यह शरीर को उसी तरह तृप्त कर देता है जैसे सेक्स, भोजन या पूर्णमासी की रात करती है. प्लेजर, शारीरिक और आध्यात्मिक, दोनों है.
मैं चाहती थी कि मेरा पहला उपन्यास आनंद (प्लेजर) के बारे में हो. मैं बस इतना जानती थी कि मुझे विभिन्न प्रवृत्ति के पात्र गढऩे हैं जो अपनी आकांक्षाओं की तलाश में अकेले अपने सफर पर निकलते हैं. उपन्यास की शुरुआत से पहले मैंने नाम तय कर लिया थारू द प्लेजर सीकर्स. मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाते: ‘‘कैसा चल रहा है तुम्हारा सॉफ्ट पोर्न प्रोजेक्ट?’’ मुझे उन्हें समझना पड़ता कि मेरे लिए आनंद का अर्थ उनकी परिभाषा से मेल नहीं खाता. मैं अपने पसंदीदा यूनानी दार्शनिक-एपिक्युरस का अनुसरण कर रही हूं जिनके लिए आनंद एक पुण्यकर्म था न कि पाप. किसी की आकांक्षा को नकारने की बजाए उसे परितृप्ति देना शांति का मार्ग है.
काल का ग्रास बन चुके अन्य महान यूनानियों की तुलना में एपिक्युरस का जो गुण मुझे आकर्षित करता है वह है उनका अपने स्कूल में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देना. यह 2,500 साल पहले की बात है. उस जमाने में उनकी विचारधारा इतनी उदार और प्रगतिशील थी, जितनी आज भी नहीं है.
क्या पुरुष और स्त्री को महसूस होने वाले आनंद का पैमाना अलग-अलग है? कहना मुश्किल है. मुझे लगता है कि यह शरीर से ज्यादा खुदमुख्तारी से जुड़ा है. हाल के ट्रस्टलॉ पोल में हिंदुस्तान को विश्व में अफगानिस्तान, कांगो और पाकिस्तान के बाद चौथा सबसे खतरनाक देश माना गया, जहां औरतें सुरक्षित नहीं. क्या एक औसत हिंदुस्तानी औरत को औसत हिंदुस्तानी पुरुष के मुकाबले परम आनंद हासिल करने का हक है?
रोम छोडऩे से पहले मैं अपने 86 वर्षीय दोस्त लुसियो डेला सेटा से मिलने गई, जो मनोविश्लेषक हैं. उन्होंने तनाव दूर करने की विधा में विशिष्टता हासिल की है. लूसियो ने बताया कि ज्यादातर लोग समझते हैं कि तनाव बढऩे से दिल की धड़कन बढ़ जाती है. पर वास्तव में बात उलटी है, दिल की धड़कन के बढऩे से तनाव बढ़ता है. दूसरे शब्दों में, शरीर जानता है कि डर या खतरे को कैसे महसूस किया जाता हैरू त्वचा, पेशियों, खून में. दिमाग उसे कॉसेस करता है. मुझे लगता है कि यही प्रक्रिया आनंद के संदर्भ में भी संपन्न होती है.
बाद में मुझे मालूम हुआ कि हर साल सर्दियों में हजारों की संख्या में स्टारलिंग्स रोम की धरती पर प्रवास के लिए उतरते हैं. आसमान में उनकी कलाबाजी से सजी रंगोली से छलककर उनके पंखों की गुनगुनाहट फिजा में फैल जाती है. उनके व्यवहार का भौतिक सिद्धांत अब भी स्पष्ट नहीं, लेकिन चमत्कार है कि वे कभी आपस में नहीं टकराते, उनका एक-दूसरे के नजदीक आना दिखावा नहीं (ये मेरे विचार हैं).
इस व्यवहार में जीने की लालसा और कला छिपी है. पंखों की फडफ़ड़ाहट उन्हें गर्म रखती है और इस तरह एक साथ घूमने से वे अपने दुश्मन बाज से अपना बचाव भी कर लेते हैं जो उनके झुंड में प्रवेश नहीं कर पाता. यह दृश्य मुझे हिंदुस्तानी औरतों और उनके आनंद की धारणा के बारे में सोचने के लिए विवश कर रहा है; क्या हम साथ मिलकर अपना जीवन बनाए रखने की लड़ाई की कमान थाम सकती हैं?