अकसर खेल की दुनिया में स्मृति लेख लिखना आसान माना जाता है. कुछ शेरो-शायरी भरी पंक्तियां लिख दीजिए, थोड़ा-बहुत छौंक आंकड़ों का लगा लीजिए, कुछ यादगार लम्हों को छिड़क दीजिए और लीजिए, एक औसत किस्म का विदाई आलेख तैयार है, जो पाठकों को मोटे तौर पर संतुष्ट करने के लिए काफी होगा. पर सचिन तेंडुलकर की तारीफ में कुछ लिखना बिल्कुल अलग चीज है-ऐसे हर किसी के लिए यह निजी तौर पर जुड़े होने जैसा है जो उनके बल्ले की उदारता से प्रभावित हुए हैं. उनका कॅरियर उन्हीं की कहानी नहीं, यह हर उस भारतीय का निजी इतिहास है जो क्रिकेट के प्रति जुनून रखता है.
हमारी जिंदगी के ज्यादातर दिन साधारण ही होते हैं. वे शुरू होते हैं और खत्म हो जाते हैं, बिना कोई ऐसी छाप छोड़े, जिसे लंबे समय तक याद रखा जा सके. लेकिन बुधवार 15 नवंबर, 1989 का दिन कुछ अलग ही था. पहली बार घुंघराले बालों वाला 16 साल का लड़का भारत की जर्सी पहने क्रिकेट मैदान में उतरा था. हमें याद है कि हम उस दिन कहां थे. जैसे हमें याद है कि हम क्या कर रहे थे, जब उसने 1994 में ऑकलैंड की एक ठंडी सुबह में पहली बार वन डे मैच में ओपनिंग की थी. जब वह 1996 में चौन्ने में पाकिस्तान के खिलाफ अकेले ही लड़ाई लड़ रहा था और कुछ ही रन से चूक गया. जब 1998 में शारजाह में उसने अकेले ही ऑस्ट्रेलिया को रौंदकर रख दिया था. जब उसने 2004 में सिडनी में ऑफ-साइड में कोई स्ट्रोक लगाए बिना 241 रन बना डाले. जब उसने अपने कॅरियर के 21वें साल में ग्वालियर में जमकर बल्ला घुमाते हुए वन-डे मैचों में दोहरा शतक बना डाला. और जब वानखेड़े स्टेडियम में भारत के 2011 विश्व कप जीतने के बाद टीम के खुशी से पागल सभी साथियों ने उन्हें कंधे पर उठा लिया. क्रिकेट के बिना सचिन की कल्पना करना बहुत ही मुश्किल है. उसी तरह सचिन के बिना क्रिकेट की कल्पना करना भी कोई आसान बात नहीं है. लेकिन शायद सबसे मुश्किल यह सोचना है कि हमारा अपना रूखा-सूखा जीवन अब उनकी प्रतिभा के उत्साह से लबरेज नहीं रहेगा.

40 वर्षीय सचिन ने 10 अक्तूबर को यह ऐलान कर दिया कि वेस्ट इंडीज के खिलाफ होने जा रही दो टेस्ट मैचों की सीरीज उनकी आखिरी सीरीज होगी. इस सीरीज में वे 200 टेस्ट मैच खेलने के कीर्तिमान को छू लेंगे. यह एक ऐतिहासिक विदाई है, जो आलोचकों के लिए हमेशा मुफीद नहीं बैठती, जो यह चाहते हैं कि टीम के खिलाड़ी हद दर्जे के निस्वार्थी हों और बिना किसी ढोल-तमाशे के बस यूं ही विदा हो लें. खुद सचिन के लिए यह बहुत आश्वस्त करने वाला फैसला नहीं हो सकता क्योंकि दिसंबर में दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर जाने वाली भारतीय टीम को उनकी कितनी सख्त दरकार होगी, इस समझना मुश्किल नहीं. लेकिन यह बात सचिन ने काफी पहले और कई बार तो इंटरव्यू लेने वालों के भारी दबाव में आकर कह दी थी कि वे उस वक्त खेलना छोड़ देंगे, जब उन्हें लगेगा कि अब वे खेल का पूरा मजा नहीं ले पा रहे. उन्होंने तय किया कि यही वह समय है.
पिछले 24 साल में सचिन एक ऐसी मिसाल बन गए हैं, जिसने पूरी एक पीढ़ी को परिभाषित किया है. एक चमत्कारी बालक से लेकर, सुपरस्टार और अनुभवी अगुआ तक, उन्होंने हर भूमिका बखूबी निभाई है. लेकिन खेल जगत की कई दूसरी महान हस्तियों के उलट वे सिर्फ एक एहसास या सनसनी ही नहीं हैं. उन्होंने इतने अविश्वसनीय आंकड़े जुटा लिए हैं-करीब 16,000 टेस्ट रन, 18,426 वन-डे रन, 100 अंतरराष्ट्रीय शतक-कि आप अपने जीवन और काल में उनके असर को नहीं समझ सकते. वे विवियन रिचर्ड्स की तरह नहीं हैं, जिनकी आभा उस समय कई गुना बढ़ जाती थी जब वे च्युइंग गम चबाते हुए आलस के साथ पिच पर चलते थे. या ब्रायन लारा की तरह, जिनका एक कवर ड्राइव पूरे सीजन टिकट का पैसा वसूल देता था. सचिन की कहानी सिर्फ स्कोर कार्ड से ही बताई जा सकती है. अगर डब्लू.जी. ग्रेस फ्रंट फुट और बैक फुट दोनों पर खेलने वाले पहले बैट्समैन थे और डोनाल्ड ब्रेडमैन ऐसे परफेक्शनिस्ट जिन्होंने बल्ले को अपनी कलाइयों का स्वाभाविक विस्तार बना दिया था, तो सचिन बल्लेबाजी को आंकड़ों के ऐसे ऊंचे मुकाम तक ले गए जहां सिर्फ संख्याएं ही पूरी कहानी बयान कर देती हैं. उन्होंने इतने लंबे समय में, इतना ज्यादा करके रख दिया है कि बाकी खिलाडिय़ों के लिए इसे छूना कोई आसान काम नहीं होगा.

उनके जीवन की शुरुआती यात्रा उतनी ही मनमोहक है जैसी हम टीवी पर देखते हैं. पेड़ से आम चुराते पकड़े जाने पर एक शरारती बच्चे की तरह उन्हें रमाकांत आचरेकर के लिए पास ले जाया गया. सचिन की क्रिकेटर के रूप में पहली कमाई 25 पैसे का एक सिक्का थी. यह सिक्का उनके कोच ने इस शर्त पर उनको दिया था कि उन्हें आउट हुए बगैर नेट सेशन पूरा करना होगा. वे आचरेकर के स्कूटर पर पीछे बैठकर एक जगह से दूसरी जगह, एक मैच से दूसरे मैच तक पहुंचते थे और एक दिन में चार मैच तक खेलते थे. मैच के लिए तैयार होना उनके लिए जुनून बन गया. वे अब भी किसी टेस्ट मैच के पहले ठीक से सो नहीं पाते हैं. विडंबना ही कहिए कि ऑस्ट्रेलियाई लेग स्पिनर शेन वार्न सरीखे उनके कुछ प्रतिद्वंद्वी उधर इस चिंता में नहीं सो पाते थे कि अगली सुबह सचिन उनका न जाने क्या हाल करें.
उनका उदय संयोग से एक नए उदारीकृत भारत के साथ हुआ, जिसने सचिन को और भी खास बना दिया. 2001 में 100 करोड़ रु. का कॉन्ट्रेक्ट और 2006 में 200 करोड़ रु. का करार, ये ऐसी गाथाएं हैं जो यह बताती हैं कि तेजी से बदलता एक मुल्क उनके लिए सचमुच कितनी चाहत रखता है. उनकी व्यक्तिगत संपत्ति अब करीब 720 करोड़ रु. तक पहुंच गई है. अगर वे नए किस्म के भगवान थे तो टीवी विज्ञापनों ने उन्हें एक स्वर्ग भी उपलब्ध कर दिया. ऐसे ही एक विज्ञापन में वे एक कुर्सी पर विराजमान हैं और एक स्टंप से गेंदें मार रहे हैं, पृष्ठभूमि में ‘‘गोविंदा आला रे’’ की तर्ज पर ‘‘सचिन आला रे’’ उकेरा गया है.

बड़ी ताकत के साथ उतनी ही बड़ी जिम्मेदारियां भी आती हैं और पाश्चात्य संस्कृति की इस कहावत को सचिन से बेहतर और कौन समझ सकता है. हमेशा विनम्र, हमेशा रोल मॉडल की भूमिका निभाने को तैयार सचिन आमतौर पर क्रिकेट के बारे में विचारों को अपने सीने में दफन रखते हैं. इसलिए कभी-कभी उनकी ऐसी छवि बन जाती है कि वे अपनी बल्लेबाजी के बारे में इतने ज्यादा आत्ममुग्ध हैं कि प्रशासन और दिशा-निर्देशन जैसे दूसरे अहम मसलों की चिंता ही नहीं करते. हालांकि कई मौकों पर अप्रत्याशित ढंग से दखल देकर उन्होंने अपनी बात के वजन को साबित किया है. 2007 के विश्व कप में हार के बाद जब ऐसा लगने लगा कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड कोच ग्रेग चौपल से रिश्ते नहीं तोड़ेगा, सचिन ने दखल दिया और उनका एक लाइन का बयान सभी को याद हैः ‘‘पानी सर से ऊंचा हो गया है.’’ इसके बाद बीसीसीआइ के पास कोई विकल्प नहीं बचा-कोच ग्रेग चैपल को बरखास्त कर दिया गया.

पिछले चारेक साल में सौरव गांगुली, अनिल कुंबले, राहुल द्रविड़ और वी.वी.एस. लक्ष्मण जैसे खिलाड़ी विदा हुए. उस स्वर्णिम पीढ़ी में सबसे पहले आने और अब सबसे अंत में सचिन के जाने के बाद आखिरकार अब सबका ध्यान एक नई तरह की भारतीय टीम पर जाएगा. भारत की खुशकिस्मती ही कहिए कि इसका मध्य क्रम व्यवस्थित दिख रहा है. चेतेश्वर पुजारा द्रविड़ की तरह खेलने वाले खिलाड़ी हैं, विराट कोहली को शायद सचिन का उत्तराधिकारी बनाते हुए नंबर चार पर भेजा जाए. लेकिन सचिन की गैर-मौजूदगी वाले भारतीय बल्लेबाजी क्रम का अभ्यस्त होने में अभी समय लगेगा. ऑस्ट्रेलिया के ओपनर मैथ्यू हेडन ने एक बार कहा था, ‘‘मैंने ईश्वर को देखा है. वह भारत में नंबर चार पर बल्लेबाजी करता है.’’ लेकिन अब ऐसी बल्लेबाजी देखने को नहीं मिलेगी.

सचिन की क्रिकेट गाथा बेशक अभी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है. इसका उपसंहार वेस्ट इंडीज के खिलाफ अगले दो टेस्ट मैचों में लिखा जाएगा. वैसे तो यह कोई खास सीरीज न थी, लेकिन उनकी विदाई की वजह से इसे अचानक जबरदस्त अहमियत मिल गई है. यह आखिरी मौका होगा, जब भारत का दूसरा विकेट गिरने पर समर्थक भीड़ पक्षपातपूर्ण ढंग से खुशियां मनाते हुए भारतीय खेल जगत का प्रसिद्ध जुमला दोहराएगीः ‘‘सच-इन, सच-इन.’’ वे पहली गेंद का सामना करने से पहले अपना हेल्मेट ठीक करेंगे, बल्ला आगे टिकाकर उठक-बैठक करेंगे. पूरी संभावना है कि वे इसे मिड-ऑन की ओर खेल देंगे और नॉन-स्ट्राइकर बल्लेबाज को इशारा करेंगे कि इस पर रन नहीं है. लेकिन इन दो मैचों के बाद ऑन ड्राइव से चौका, अपर कट से लगता छक्का और फिर कोई इतिहास बनाने के बाद सिर के साथ ही बल्ले को भी आसमान की ओर उठा देना, यह सब बस दिल में जज्बा पैदा करने वाले वीडियो क्लिप तक ही सीमित रह जाएगा. निश्चित रूप से आपको यह याद रहेगा कि जब वे आखिरी बार पैवेलियन लौटे तो आप कहां थे.

सचिन तेंडुलकर एक युवा, उभरते भारत के प्रतीक हैं. लग्जरी कारें, मोबाइल फोन, लैपटॉप, इंटरनेट, शुरू में ही छह अंकों की तनख्वाह और एक चमकदार भविष्य की उम्मीद, इन सबको वे पीछे छोड़ चुके हैं. वे इस बात का जीता-जागता प्रतीक हैं कि युवा और कामयाब होकर कैसे आपक एक आइकॅन बन सकते हैं. यह भी शायद उतना ही मौजूं है कि वे ऐसे समय में बाहर जा रहे हैं, जब लडख़ड़ाती अर्थव्यवस्था, लकवाग्रस्त सरकार और महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध की वजह से देश का मिजाज उदासी भरा है. पहले हम ऐसी परेशानियों के दौर को भुलाने के लिए सचिन की तरफ देख लिया करते थे. अब हम किसकी तरफ देखेंगे?
हमारी जिंदगी के ज्यादातर दिन साधारण ही होते हैं. वे शुरू होते हैं और खत्म हो जाते हैं, बिना कोई ऐसी छाप छोड़े, जिसे लंबे समय तक याद रखा जा सके. लेकिन बुधवार 15 नवंबर, 1989 का दिन कुछ अलग ही था. पहली बार घुंघराले बालों वाला 16 साल का लड़का भारत की जर्सी पहने क्रिकेट मैदान में उतरा था. हमें याद है कि हम उस दिन कहां थे. जैसे हमें याद है कि हम क्या कर रहे थे, जब उसने 1994 में ऑकलैंड की एक ठंडी सुबह में पहली बार वन डे मैच में ओपनिंग की थी. जब वह 1996 में चौन्ने में पाकिस्तान के खिलाफ अकेले ही लड़ाई लड़ रहा था और कुछ ही रन से चूक गया. जब 1998 में शारजाह में उसने अकेले ही ऑस्ट्रेलिया को रौंदकर रख दिया था. जब उसने 2004 में सिडनी में ऑफ-साइड में कोई स्ट्रोक लगाए बिना 241 रन बना डाले. जब उसने अपने कॅरियर के 21वें साल में ग्वालियर में जमकर बल्ला घुमाते हुए वन-डे मैचों में दोहरा शतक बना डाला. और जब वानखेड़े स्टेडियम में भारत के 2011 विश्व कप जीतने के बाद टीम के खुशी से पागल सभी साथियों ने उन्हें कंधे पर उठा लिया. क्रिकेट के बिना सचिन की कल्पना करना बहुत ही मुश्किल है. उसी तरह सचिन के बिना क्रिकेट की कल्पना करना भी कोई आसान बात नहीं है. लेकिन शायद सबसे मुश्किल यह सोचना है कि हमारा अपना रूखा-सूखा जीवन अब उनकी प्रतिभा के उत्साह से लबरेज नहीं रहेगा.

40 वर्षीय सचिन ने 10 अक्तूबर को यह ऐलान कर दिया कि वेस्ट इंडीज के खिलाफ होने जा रही दो टेस्ट मैचों की सीरीज उनकी आखिरी सीरीज होगी. इस सीरीज में वे 200 टेस्ट मैच खेलने के कीर्तिमान को छू लेंगे. यह एक ऐतिहासिक विदाई है, जो आलोचकों के लिए हमेशा मुफीद नहीं बैठती, जो यह चाहते हैं कि टीम के खिलाड़ी हद दर्जे के निस्वार्थी हों और बिना किसी ढोल-तमाशे के बस यूं ही विदा हो लें. खुद सचिन के लिए यह बहुत आश्वस्त करने वाला फैसला नहीं हो सकता क्योंकि दिसंबर में दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर जाने वाली भारतीय टीम को उनकी कितनी सख्त दरकार होगी, इस समझना मुश्किल नहीं. लेकिन यह बात सचिन ने काफी पहले और कई बार तो इंटरव्यू लेने वालों के भारी दबाव में आकर कह दी थी कि वे उस वक्त खेलना छोड़ देंगे, जब उन्हें लगेगा कि अब वे खेल का पूरा मजा नहीं ले पा रहे. उन्होंने तय किया कि यही वह समय है.
पिछले 24 साल में सचिन एक ऐसी मिसाल बन गए हैं, जिसने पूरी एक पीढ़ी को परिभाषित किया है. एक चमत्कारी बालक से लेकर, सुपरस्टार और अनुभवी अगुआ तक, उन्होंने हर भूमिका बखूबी निभाई है. लेकिन खेल जगत की कई दूसरी महान हस्तियों के उलट वे सिर्फ एक एहसास या सनसनी ही नहीं हैं. उन्होंने इतने अविश्वसनीय आंकड़े जुटा लिए हैं-करीब 16,000 टेस्ट रन, 18,426 वन-डे रन, 100 अंतरराष्ट्रीय शतक-कि आप अपने जीवन और काल में उनके असर को नहीं समझ सकते. वे विवियन रिचर्ड्स की तरह नहीं हैं, जिनकी आभा उस समय कई गुना बढ़ जाती थी जब वे च्युइंग गम चबाते हुए आलस के साथ पिच पर चलते थे. या ब्रायन लारा की तरह, जिनका एक कवर ड्राइव पूरे सीजन टिकट का पैसा वसूल देता था. सचिन की कहानी सिर्फ स्कोर कार्ड से ही बताई जा सकती है. अगर डब्लू.जी. ग्रेस फ्रंट फुट और बैक फुट दोनों पर खेलने वाले पहले बैट्समैन थे और डोनाल्ड ब्रेडमैन ऐसे परफेक्शनिस्ट जिन्होंने बल्ले को अपनी कलाइयों का स्वाभाविक विस्तार बना दिया था, तो सचिन बल्लेबाजी को आंकड़ों के ऐसे ऊंचे मुकाम तक ले गए जहां सिर्फ संख्याएं ही पूरी कहानी बयान कर देती हैं. उन्होंने इतने लंबे समय में, इतना ज्यादा करके रख दिया है कि बाकी खिलाडिय़ों के लिए इसे छूना कोई आसान काम नहीं होगा.

उनके जीवन की शुरुआती यात्रा उतनी ही मनमोहक है जैसी हम टीवी पर देखते हैं. पेड़ से आम चुराते पकड़े जाने पर एक शरारती बच्चे की तरह उन्हें रमाकांत आचरेकर के लिए पास ले जाया गया. सचिन की क्रिकेटर के रूप में पहली कमाई 25 पैसे का एक सिक्का थी. यह सिक्का उनके कोच ने इस शर्त पर उनको दिया था कि उन्हें आउट हुए बगैर नेट सेशन पूरा करना होगा. वे आचरेकर के स्कूटर पर पीछे बैठकर एक जगह से दूसरी जगह, एक मैच से दूसरे मैच तक पहुंचते थे और एक दिन में चार मैच तक खेलते थे. मैच के लिए तैयार होना उनके लिए जुनून बन गया. वे अब भी किसी टेस्ट मैच के पहले ठीक से सो नहीं पाते हैं. विडंबना ही कहिए कि ऑस्ट्रेलियाई लेग स्पिनर शेन वार्न सरीखे उनके कुछ प्रतिद्वंद्वी उधर इस चिंता में नहीं सो पाते थे कि अगली सुबह सचिन उनका न जाने क्या हाल करें.
उनका उदय संयोग से एक नए उदारीकृत भारत के साथ हुआ, जिसने सचिन को और भी खास बना दिया. 2001 में 100 करोड़ रु. का कॉन्ट्रेक्ट और 2006 में 200 करोड़ रु. का करार, ये ऐसी गाथाएं हैं जो यह बताती हैं कि तेजी से बदलता एक मुल्क उनके लिए सचमुच कितनी चाहत रखता है. उनकी व्यक्तिगत संपत्ति अब करीब 720 करोड़ रु. तक पहुंच गई है. अगर वे नए किस्म के भगवान थे तो टीवी विज्ञापनों ने उन्हें एक स्वर्ग भी उपलब्ध कर दिया. ऐसे ही एक विज्ञापन में वे एक कुर्सी पर विराजमान हैं और एक स्टंप से गेंदें मार रहे हैं, पृष्ठभूमि में ‘‘गोविंदा आला रे’’ की तर्ज पर ‘‘सचिन आला रे’’ उकेरा गया है.

बड़ी ताकत के साथ उतनी ही बड़ी जिम्मेदारियां भी आती हैं और पाश्चात्य संस्कृति की इस कहावत को सचिन से बेहतर और कौन समझ सकता है. हमेशा विनम्र, हमेशा रोल मॉडल की भूमिका निभाने को तैयार सचिन आमतौर पर क्रिकेट के बारे में विचारों को अपने सीने में दफन रखते हैं. इसलिए कभी-कभी उनकी ऐसी छवि बन जाती है कि वे अपनी बल्लेबाजी के बारे में इतने ज्यादा आत्ममुग्ध हैं कि प्रशासन और दिशा-निर्देशन जैसे दूसरे अहम मसलों की चिंता ही नहीं करते. हालांकि कई मौकों पर अप्रत्याशित ढंग से दखल देकर उन्होंने अपनी बात के वजन को साबित किया है. 2007 के विश्व कप में हार के बाद जब ऐसा लगने लगा कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड कोच ग्रेग चौपल से रिश्ते नहीं तोड़ेगा, सचिन ने दखल दिया और उनका एक लाइन का बयान सभी को याद हैः ‘‘पानी सर से ऊंचा हो गया है.’’ इसके बाद बीसीसीआइ के पास कोई विकल्प नहीं बचा-कोच ग्रेग चैपल को बरखास्त कर दिया गया.

पिछले चारेक साल में सौरव गांगुली, अनिल कुंबले, राहुल द्रविड़ और वी.वी.एस. लक्ष्मण जैसे खिलाड़ी विदा हुए. उस स्वर्णिम पीढ़ी में सबसे पहले आने और अब सबसे अंत में सचिन के जाने के बाद आखिरकार अब सबका ध्यान एक नई तरह की भारतीय टीम पर जाएगा. भारत की खुशकिस्मती ही कहिए कि इसका मध्य क्रम व्यवस्थित दिख रहा है. चेतेश्वर पुजारा द्रविड़ की तरह खेलने वाले खिलाड़ी हैं, विराट कोहली को शायद सचिन का उत्तराधिकारी बनाते हुए नंबर चार पर भेजा जाए. लेकिन सचिन की गैर-मौजूदगी वाले भारतीय बल्लेबाजी क्रम का अभ्यस्त होने में अभी समय लगेगा. ऑस्ट्रेलिया के ओपनर मैथ्यू हेडन ने एक बार कहा था, ‘‘मैंने ईश्वर को देखा है. वह भारत में नंबर चार पर बल्लेबाजी करता है.’’ लेकिन अब ऐसी बल्लेबाजी देखने को नहीं मिलेगी.

सचिन की क्रिकेट गाथा बेशक अभी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है. इसका उपसंहार वेस्ट इंडीज के खिलाफ अगले दो टेस्ट मैचों में लिखा जाएगा. वैसे तो यह कोई खास सीरीज न थी, लेकिन उनकी विदाई की वजह से इसे अचानक जबरदस्त अहमियत मिल गई है. यह आखिरी मौका होगा, जब भारत का दूसरा विकेट गिरने पर समर्थक भीड़ पक्षपातपूर्ण ढंग से खुशियां मनाते हुए भारतीय खेल जगत का प्रसिद्ध जुमला दोहराएगीः ‘‘सच-इन, सच-इन.’’ वे पहली गेंद का सामना करने से पहले अपना हेल्मेट ठीक करेंगे, बल्ला आगे टिकाकर उठक-बैठक करेंगे. पूरी संभावना है कि वे इसे मिड-ऑन की ओर खेल देंगे और नॉन-स्ट्राइकर बल्लेबाज को इशारा करेंगे कि इस पर रन नहीं है. लेकिन इन दो मैचों के बाद ऑन ड्राइव से चौका, अपर कट से लगता छक्का और फिर कोई इतिहास बनाने के बाद सिर के साथ ही बल्ले को भी आसमान की ओर उठा देना, यह सब बस दिल में जज्बा पैदा करने वाले वीडियो क्लिप तक ही सीमित रह जाएगा. निश्चित रूप से आपको यह याद रहेगा कि जब वे आखिरी बार पैवेलियन लौटे तो आप कहां थे.

सचिन तेंडुलकर एक युवा, उभरते भारत के प्रतीक हैं. लग्जरी कारें, मोबाइल फोन, लैपटॉप, इंटरनेट, शुरू में ही छह अंकों की तनख्वाह और एक चमकदार भविष्य की उम्मीद, इन सबको वे पीछे छोड़ चुके हैं. वे इस बात का जीता-जागता प्रतीक हैं कि युवा और कामयाब होकर कैसे आपक एक आइकॅन बन सकते हैं. यह भी शायद उतना ही मौजूं है कि वे ऐसे समय में बाहर जा रहे हैं, जब लडख़ड़ाती अर्थव्यवस्था, लकवाग्रस्त सरकार और महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध की वजह से देश का मिजाज उदासी भरा है. पहले हम ऐसी परेशानियों के दौर को भुलाने के लिए सचिन की तरफ देख लिया करते थे. अब हम किसकी तरफ देखेंगे?

