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तीस साल की अस्मिता

गैर-बराबरी को लेकर विद्रोही तेवर रखने वाले एक नौजवान के शुरू किए थिएटर ग्रुप ने पूरे किए घटना प्रधान तीन दशक. उसकी आंदोलनधर्मिता से जुड़े किस्से आज दिल्ली और उत्तर भारत के जनमानस की जबान पर.

अनगढ़ों की आस : अरविंद गौड़ ने प्रतिभा के नाम पर किसी भी नए कलाकार को रिजेक्ट नहीं किया
अनगढ़ों की आस : अरविंद गौड़ ने प्रतिभा के नाम पर किसी भी नए कलाकार को रिजेक्ट नहीं किया
अपडेटेड 10 अप्रैल , 2023

अक्तूबर 1984. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरा दिल्ली सिख विरोधी हिंसा में झुलस रही थी. जान बचाने के लिए कई सिख परिवार घर छोड़कर रिलीफ कैंप में रह रहे थे. 21 साल का एक नौजवान शाहदरा के इसी किस्म के कैंप में बतौर स्वयंसेवक काम कर रहा था.

इस दौरान उसका सामना एक महिला से हुआ, जिसकी बिटिया की शादी चंद महीनों बाद होनी थी. पर जान बचाने की जल्दी में वह गहने घर पर ही छोड़ आई थी. अब उसे यह डर सता रहा था कि कहीं दंगाई घर न जला दें. उसने यह तकलीफ इस नौजवान को बताई. नौजवान दंगों के बीच उस महिला के जेवर लाने को तैयार हो गया. महिला के कहे अनुसार, पड़ोसी से चाबी ले वह उस घर में पहुंचा. जेवर सहेजे और रिलीफ कैंप की तरफ पैदल ही निकल पड़ा.

कुछ दूरी पर उसका सामना दंगाइयों के एक गिरोह से हो गया. नौजवान ने उस दौर के चलन के हिसाब से दाढ़ी बढ़ा रखी थी. लेकिन न तो उसके केश बढ़े हुए थे और न ही सर पर दस्तार बंधी थी. पर दंगाई 'सरदार-सरदार’ चिल्लाते उसकी तरफ लपके. हॉकी के मैदान पर पसीना बहा चुने नौजवान ने दौड़ लगाई और बच निकला. दंगों के दौर का खून से सना यथार्थ इस 21 साल के नौजवान के जीवन में अपनी पूरी नाटकीयता से घट रहा था. दौर बदला पर तीन चीजें इस नौजवान की जिंदगी से नत्थी होकर रह गईं: मानवीय मूल्य, करीने से बढ़ी दाढ़ी और नाटकीयता. नौजवान का नाम अरविंद गौड़.

गैर-बराबरी से अरविंद की पहली मुठभेड़ स्कूल के दौर में ही हो गई थी. उनकी पढ़ाई दिल्ली में ही विवेक विहार के एक सरकारी स्कूल में हुई थी. बगल में एक प्राइवेट स्कूल था. अरविंद याद करते हैं, ''आर्थिक तंगी के चलते पिताजी प्राइवेट स्कूल में दाखिला नहीं करवा पाए थे.

जब भी स्कूल जाता तो देखता कि बगल के स्कूल के छात्रों की वर्दी, बस्ते और क्लासरूम, सब हमसे बेहतर. बात चुभती.’’ इस गैर-बराबरी के खिलाफ पहला उनका पहला विद्रोह छठी क्लास में फूटा. स्कूल में छात्रों को बैठने के लिए टाट-पट्टी तभी मिलती जब कोई अधिकारी निरीक्षण के लिए आता. अरविंद के एक दोस्त के पिता मजदूर यूनियन में थे.

उसने अरविंद के सामने 'इन्कलाब’ का प्रस्ताव रखा. वे तैयार हो गए. अगले रोज इन दोनों के उकसावे पर छात्रों ने हड़ताल कर दी. इस पर दो चांटे मारकर उन्हें कक्षा में बैठा दिया गया. लेकिन नतीजा यह हुआ कि उस दिन से हर छात्र को बैठने के लिए टाट-पट्टी मिलने लगी. गैर-बराबरी के प्रति गुस्सा बचपन से ही पनपने लगा था. पर उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम नहीं मिल रहा था.

नाटक भी अरविंद के भीतर पनप रहे गुस्से की अभिव्यक्ति का पहला माध्यम न था. रचनात्मकता का पहला अंकुर कविता की शक्ल में फूटा. अस्सी के आस-पास का दौर था. चेहरे पर अभी रुंआल उग ही रही थी. पढ़ने-लिखने के सिलसिले में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के चक्कर लगने लगे, जहां का ड्रामा ग्रुप उस दौर में शबाब पर था. अरविंद ने इससे पहले अखबार में नाटकों की समीक्षा पढ़ी थी, देखा न था. लाइब्रेरी में पहली बार रिहर्सल और फिर उन्हें मंच पर घटते देखा. उनकी भी दिलचस्पी बढ़ी. शुरुआत में नुक्कड़ नाटक में छोटे-मोटे रोल मिले. पर उन्हें इस कला का कहन समझ में आने लगा.

अरविंद को शुरुआती दौर में दो ऐसे बड़े रंगकर्मियों की संगत मिली जो अपने आप में चलते-फिरते स्कूल थे: हबीब तनवीर और इब्राहीम अलकाजी. तनवीर के साथ उन्हें पहली बार बड़े नाटक में बैक-स्टेज संभालने का तजुर्बा हुआ. अलकाजी के साथ उन्होंने जरूरी बुनियादी अनुशासन सीखा. पर इस बीच एक संपादक के साथ हुई बहस के चलते उनका एक पांव फिसलकर पत्रकारिता में आ गिरा. केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी और दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुछ छात्र सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे.

छात्रों की पुलिस के साथ झड़प हुई और लाठीचार्ज हो गया. छात्रों ने कुछ बसों में आगजनी कर दी. अगले दिन नवभारत टाइम्स में पूरा ब्यौरा छपा. पांच छात्रों को हिरासत में लेने का जिक्र था. पर पांचवां छात्र (अरविंद) दूसरे दिन अखबार के संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय’ के चैंबर में जा पहुंचा.

अरविंद ने पूरी घटना पर लड़ पड़ने की मुद्रा में अज्ञेय के सामने सफाई रखी: मेरा आंदोलन से कोई लेना-देना न था. दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी से घर लौट रहा था कि राजेंद्र नगर बस स्टैंड पर पुलिस ने बेवजह हिरासत में ले लिया. अज्ञेय ने अरविंद को वह सब लिखकर देने को कहा. अगले दिन यह शिकायत 'संपादक के नाम पत्र’ की शक्ल में छप गई. बस, जल्द ही वे नाटकों की समीक्षा लिखने लगे. नवभारत टाइम्स में नाटकों से जुड़ा साप्ताहिक कॉलम आने लगा.

अब बात 1989 की. पहली जनवरी को 'जन नाट्य मंच’ से जुड़े सफदर हाशमी साहिबाबाद के झंडापुर में नुक्कड़ नाटक हल्ला बोल कर रहे थे, तभी चाकू मारकर उनकी हत्या कर दी गई. देश भर के कलाकारों में आक्रोश छा गया. इस हत्या से उपजे गुस्से ने दिल्ली में कुछ बुनियादी सवाल खड़े करने शुरू किए: सांस्कृतिक संस्थानों की कमान कलाकारों के हाथ में क्यों नहीं? सरकार उन्हें स्वायत्तता क्यों नहीं देती? राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रेपर्टरी/रंगमंडल में हड़ताल हो गई.

दूसरी तरफ कठपुतली कलाकार श्रीराम सेंटर के बाहर धरने पर बैठे थे. उनके समर्थन के लिए एक साझा मोर्चा बनाया गया पर यह ढाई महीने लंबा धरना आपसी फूट के चलते नाकाम हो गया. अरविंद उससे सक्रियता से जुड़े थे. इस घटना ने थिएटर और मंडी हाउस से दिल को बेजार कर दिया.

अरविंद बतौर स्वतंत्र पत्रकार पहले से काम करते रहे थे. इस बार उन्होंने नए उभरते इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरफ रुख किया. प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआइ) की इलेक्ट्रॉनिक इकाई उस वक्त खबरों के अलावा दूरदर्शन के लिए डॉक्युमेंट्री भी बनाया करती थी. वहां वे बतौर रिसर्चर लग गए. थिएटर से होने के नाते ऑडियो-विजुअल माध्यम की बुनियादी समझ उन्हें थी. अब कैमरा-एडिटिंग और दूसरे तकनीकी पक्ष की समझ मिल रही थी. मन रम रहा था पर दिमाग के एक कोने में नाटक अब भी अटका हुआ था. दो साल पीटीआइ में काम करने के बाद उन्होंने फिर से नाटक की दुनिया में लौटने का मन बनाया.

अब साल 1992. एक तरफ बाबरी मस्जिद ढहाई जा रही थी. दूसरी तरफ अरविंद गौड़ बिखरी चीजों को जोड़कर कुछ गढ़ने की कोशिश में थे. अस्मिता थिएटर ग्रुप उसी दौर में पैदा हुआ एक विचार था. ग्रुप ने पहले नाटक की तैयारी शुरू की. भीष्म साहनी का हानूश  खेलने का फैसला हुआ. जोड़-तोड़कर पैसे जमा किए और श्रीराम सेंटर का बेसमेंट ऑडिटोरियम बुक करवाया गया. फरवरी 1993 में नाटक होना था. साहनी खुद शो देखने आने वाले थे.

महीनों की तैयारियों के बाद अरविंद अपने थिएटर ग्रुप के साथ पहली दफा मंच पर जा रहे थे. पर शो से एक रात पहले एक और नाटकीयता उनके इंतजार में थी. नाटक के मुख्य अदाकार ने मेहनताने की मांग रख दी. उधार के पैसे पर हॉल बुक हुआ हो तो कलाकार के लिए पैसे कहां से आते. कहा गया कि टिकट बिकने के बाद मिले पैसों से मेहनताना मिल जाएगा. पर बात न बनी. दूसरा कलाकार लेने को चंद घंटों का समय था. शो से ऐन पहले कई कलाकारों के किरदार बदले गए.

कच्ची-पक्की तैयारी के साथ नाटक हुआ और उम्मीद के उलट अच्छा हुआ. गच्चा देने वाला ऐक्टर एनएसडी का पढ़ा हुआ था और आजकल सिनेमा में है. उसकी अदाकारी की बहुत धमक थी. वहीं से अरविंद ने सबक सीखा: ''बड़े नामों के पीछे भागने की बजाए अनगढ़ अदाकारों को नाटक सिखाऊंगा. मैं खुद ऐक्टर बनने आया था पर एक बड़े डायरेक्टर ने कद-काठी और शक्ल-ओ-सूरत देखते हुए मुझे रोल देने से मना कर दिया. यह बात मेरे दिमाग में घर कर गई. उसी का नतीजा था कि अस्मिता में सीखने आने वाले किसी भी कलाकार को मैंने रिजेक्ट नहीं किया.’’

कुछ महीने बाद अरविंद फिर श्रीराम सेंटर लौटे पर पुख्ता तैयारी के साथ. गिरीश कारनाड का नाटक तुगलक खेला गया, बेसमेंट के उसी हॉल में पर इस दफा पैर रखने की भी जगह न थी. लोगों ने अस्मिता के तुगलक को बहुत सराहा. फिर अरविंद ने पीछे मुड़कर न देखा. लेकिन अस्मिता की असल पहचान बनी उसके नुक्कड़ नाटकों की वजह से.

अस्सी और नब्बे के दौर में नुक्कड़ नाटक वामपंथी आंदोलन का पर्याय बने हुए थे. जन नाट्य मंच और इंडियन प्रोग्रेसिव थिएटर एसोशिएसन (इप्टा) नुक्कड़ नाटक करने वाले दो बड़े ग्रुप थे. जन नाट्य मंच का जुड़ाव सीपीएम और इप्टा का सीपीआइ के साथ था. इनके नुक्कड़ नाटकों के मूल में कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार हुआ करता था.

अरविंद ने महिलाओं से जुड़ी समस्याएं, जाति व्यवस्था, भ्रष्टाचार और पुस्तकालय जैसे विषय उठाने शुरू किए. अरविंद कहते हैं, ''पार्टी की विचारधारा के प्रचार की मजबूरी में कई जरूरी मुद्दे नुक्कड़ का विषय नहीं बन पाते थे. मैंने इन मुद्दों पर काम किया. इससे नुक्कड़ नाटक एक खास विचारधारा के प्रभाव से आजाद हुआ.’’

और फिर 2011. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन वह मौका था जब अस्मिता को देश भर में बड़ी पहचान मिली. अरविंद गौड़ इस आंदोलन से जुड़े शुरुआती लोगों में थे. वे इंडिया अगेंस्ट करप्शन की कोर कमेटी के सदस्य थे. भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू इस नागरिक आंदोलन की आखिरी परिणति एक राजनैतिक पार्टी के तौर पर हुई. अरविंद अपने ग्रुप को किसी राजनैतिक दल की सांस्कृतिक इकाई बनाने से बाल-बाल बचे.

वे याद करते हैं, ''शांति भूषण जी के घर पर हो रही मीटिंग में पहली बार राजनैतिक पार्टी बनाने का प्रस्ताव आया. मैंने प्रस्ताव का विरोध नहीं किया. मेरा बस यही कहना था कि मैं आंदोलन के साथ था. अगर आगे राजनैतिक रास्ता अख्तियार करना है तो मेरा और इंडिया अगेंस्ट करप्शन का साथ यहीं तक था. मेरे कई साथियों ने मुझसे कहा कि मैं बड़ी भूल कर रहा हूं. लेकिन मेरे दिमाग में यह बात बहुत साफ थी. मुझे किसी राजनैतिक दल का हिस्सा नहीं बनना.’’

आज अरविंद गौड़ और उनके थिएटर ग्रुप अस्मिता के रंगकर्म का सिलसिला तीन दशक से मुसलसल जारी है. इस थिएटर ग्रुप ने फिल्म उद्योग को कई अच्छे कलाकार दिए. लेकिन अस्मिता का असल योगदान नुक्कड़ को आम लोगों तक पहुंचाने और आम लोगों की पहुंच नुक्कड़ तक बनाने की रही है. लक्ष्मी नगर के एक स्कूल की साधारण-सी इमारत से चलने वाला यह थिएटर ग्रुप आज भी सामाजिक मुद्दों पर नुक्कड़ करने वाला सबसे सक्रिय थिएटर ग्रुप है.

''मेरे नाटकों में सामाजिक-राजनैतिक तेवर होता है. मैं सीधे-सीधे अपनी बात कहता हूं. मुझे आर्टिस्टिक अप्रोच की उतनी जानकारी नहीं है’’


बातचीत: अरविंद गौड़

''मैं नाटक का मजदूर हूं’’

 आप तीस साल से लगातार रंगकर्म से जुड़े हुए हैं. कभी ऊब नहीं हुई?

यह तो हर पेशे में होता है. ख़ास तौर से ऐसे पेशे में जो आर्थिक रूप से बेहद अस्थिर हो. मैं खुद को नाटक का मजदूर कहता हूं. मैंने अप्रशिक्षित लोगों के साथ नाटक करना चुना है. उन्हें तैयार करना बहुत मेहनत का काम है. लेकिन इस सिलसिले में हम लगातार नई चुनौती से भिड़ते हैं. हर नए कलाकार के साथ हर दिन नया सीखने को मिलता है. इसलिए मन ऊबता भी है तो कुछ देर के लिए.

 आपके आलोचक कहते हैं कि आप रंगकर्मी कम एक्टिविस्ट ज्यादा हैं.

यह सच है. अगर अंदर का आक्रोश ही खत्म हो जाएगा तो काम करने की तलब भी मिट जाएगी. एक्टिविस्ट कोई बुरा शब्द नहीं है. इसे पिछले दौर में नकारात्मक तौर से पेश करने की कोशिश जरूर हुई है. मेरे नाटकों में एक सामाजिक-राजनीतिक तेवर होता है. मुझे आर्टिस्टिक अप्रोच की जानकारी उतनी नहीं है. मैं सीधे-सीधे अपनी बात कहता हूं.

एक नाटक में मनोरंजन के तत्वों की जितनी दरकार है मैं उतनी रखने की कोशिश करता हूं. लेकिन मैं कला और एक्टिविज्म के हवाले से नाटक को बांटता नहीं हूं. इतना फीसदी कला और इतना फीसदी एक्टिविज्म. मैं कथ्य की मजबूती में भरोसा रखता हूं. हम चुनते उसी स्क्रिप्ट को हैं जिसका कथ्य हमारे हिसाब से मजबूत होता है. मैं कला के लिए कला नहीं करता.

 आप एक्टिविज्म की बात करते हैं. यह तो बहुत सारे थियेटर ग्रुप कर रहे हैं. फर्क क्या है?

मेरे आसपास जो घट रहा मैं उससे आंखें नहीं बंद कर सकता. लेकिन मेरे एक्टिविज्म में फर्क यह है कि मैंने कभी किसी पार्टी का झंडा नहीं उठाया. मैं मुद्दों को लेकर आगे बढ़ता हूं. राजनीतिक हितों को नहीं. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में मैं शुरुआती कोर कमेटी के सात सदस्यों में से था. लेकिन जब उस आंदोलन ने राजनीतिक रास्ता अख्तियार किया तो मैंने किनारा कर लिया. मैंने किसी भी राजनीतिक पार्टी से किसी भी किस्म का लाभ नहीं लिया.

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