
दरअसल, मेजर जनरल प्रबोध चंद्र पुरी (सेवानिवृत्त) के लिए उस दिन को भुला पाना नामुमकिन है. वह 15 अक्तूबर का दिन था. रोज की तरह 83 वर्षीय इस बुजुर्ग के लिए दिन शांति से बीत रहा था तभी हरियाणा के पंचकूला स्थित उनके घर पर फोन की घंटी बज उठी. दूसरी ओर से एक अधिकारी की आवाज आई—कड़क, सधी हुई और रौबदार.
केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) का वरिष्ठ अधिकारी होने का दावा करने वाले कॉलर ने पुरी से कहा कि उनका मोबाइल नंबर एक बड़े वित्तीय घोटाले में सामने आया है. ''अपनी इज्जत बचाने" और तत्काल जेल जाने से बचने के लिए उन्हें जांच में सहयोग करने का निर्देश दिया गया. उसके बाद 48 घंटे तक उन्हें खौफनाक अनुभव से गुजरना पड़ा.
पुरी को वीडियो कॉल का सामना करना पड़ा, जो असली सरकारी कार्यालय से आया लग रहा था. घोटालेबाजों की चाल बेहद भयावह थी—नजारा एकदम कोर्टरूम जैसा लग रहा था, जिसमें वे धोखेबाज जज, पुलिस अधिकारी और प्रवर्तन एजेंट की भूमिका निभा रहे थे. एकदम असली नजर आ रहे सरकारी दस्तावेजों के साथ वायरलेस की आवाजें भी सुनाई दे रही थीं.
हैरान-परेशान पुरी ने कई बैंक खातों में किस्तों में 82.27 लाख रुपए ट्रांसफर कर दिए. उन्हें बताया गया कि यह रकम उनके नाम को क्लियर करने के लिए "बाद में लौटा दी जाने वाली सुरक्षा जमा राशि" है, जब तक उन्हें सच का पता चला, तब तक घोटालेबाज लापता हो चुके थे, और पुरी आर्थिक रूप से बर्बाद हो चुके थे.
पुरी इस तरह के साइबर अपराध के शिकार बने पहले शख्स नहीं हैं. दरअसल, देशभर में विस्तृत स्टिंग ऑपरेशन के तौर पर स्थापित ढांचे के तहत बिछाए गए जाल में कई लोग फंस चुके हैं, जिनमें सेवानिवृत्त अधिकारी, वकील, बैंकर, डॉक्टर, प्रोफेसर, पत्रकार और यहां तक टेक-सेवी पेशेवर भी शामिल हैं, जो अपने जीवन की सारी जमा-पूंजी तक गंवा चुके हैं.
सितंबर में देश के सबसे बड़े टेक्सटाइल ग्रुप वर्धमान के अध्यक्ष एस.पी. ओसवाल के साथ धोखाधड़ी का मामला सबसे हाईप्रोफाइल था. साइबर अपराधियों ने एक वीडियो कॉल पर पूरे सुप्रीम कोर्ट का सत्र आयोजित कर डाला, जिसमें एक कलाकार तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की भूमिका में नजर आया और उनके सामने वरिष्ठ जांचकर्ताओं के तौर पर पेश धोखेबाजों ने आरोप लगाया कि ओसवाल के आधार कार्ड का दुरुपयोग एक बड़े धनशोधन घोटाले के लिए किया गया है.
कई दिनों तक उन्हें "डिजिटल गिरफ्तारी" में रखा गया, किसी से बातचीत करने की मनाही थी, और घोटालेबाज अपनी मांग बढ़ाते जा रहे थे. ओसवाल ने अंतत: 7 करोड़ रुपए उन खातों में ट्रांसफर कर दिए, जिनके बारे में उन्हें लगा कि वे सरकारी एस्क्रो एकाउंट हैं.
अब कहीं जाकर देश की जांच एजेंसियां डिजिटल धोखाधड़ी के नए तरीके की गंभीरता ठीक से समझ पा रही हैं. भारतीय साइबर अपराध समन्वय केंद्र (आई4सी) के सीईओ राजेश कुमार बताते हैं कि सिर्फ इस साल के पहले चार महीनों में भारतीय नागरिकों ने 'डिजिटल गिरफ्तारी' में फंसकर 120 करोड़ रुपए गंवाए हैं.
इसी अवधि में कुल मिलाकर साइबर अपराधों—जिसमें 'डिजिटल गिरफ्तारी', सेक्सटॉर्शन, ओटीपी घोटाले से लेकर निवेश धोखाधड़ी तक शामिल हैं—के कारण 1,776 करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ.
घोटालों के मास्टरमाइंड अत्यधिक संगठित, अंतरराष्ट्रीय आपराधिक सिंडिकेट का हिस्सा हैं, जो मुख्यत: कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड और म्यांमार आदि दक्षिणपूर्व एशियाई देशों से संचालित होते हैं, इसलिए इन मामलों की जांच मुश्किल हो जाती है. स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुद 27 अक्तूबर को अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में इस पर देशवासियों का ध्यान आकृष्ट करना पड़ा.
उन्होंने लोगों से ऐसे घोटालेबाजों के झांसे में न आने को कहा. मोदी ने कहा, "कोई भी सरकारी एजेंसी इस तरह की जांच के लिए कभी भी आपसे फोन या वीडियो कॉल के जरिए संपर्क नहीं करती है."
कैसे बनाते हैं शिकार
नए डिजिटल स्टिंग में न केवल आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया गया है, बल्कि इन्हें इस तरह डिजाइन किया जाता है कि पीड़ितों के सबसे बड़े डर का पूरा फायदा उठाया जा सके, खासकर यह देखते हुए कि देश में कानूनी प्रक्रिया को किसी सजा से कम नहीं माना जाता. इसकी शुरुआत पीड़ित को एक फोन कॉल आने के साथ होती है, जो आमतौर पर किसी छिपाए गए नंबर या किसी बड़े शहर, अमूमन दिल्ली या मुंबई के किसी स्थान से आती है. पकड़ में आने से बचने के लिए अपराधी अलग-अलग मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटरों से कई सिम कार्ड खरीदते हैं.
इन सिम का इस्तेमाल आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय गेटवे को बाइपास करने में किया जाता है, जो अक्सर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से आने वाली अंतरराष्ट्रीय कॉल को वॉयस ओवर इंटरनेट प्रोटोकॉल (वीओआईपी) सिस्टम के माध्यम से रूट करते हैं. इससे यह एकदम स्थानीय कॉल लगती है. कॉल करने वाले खुद को कूरियर सेवा या सरकारी संगठन के एजेंट बताते हैं, शुरुआत में उनका लहजा तटस्थ होता है ताकि लोगों से संपर्क बना सकें. फिर, चौंकाने वाला आरोप लगाने लगते हैं. मसलन, मनी लॉन्ड्रिंग, ड्रग या मानव तस्करी जैसे अपराधों में संलिप्त होने का आरोप ताकि लोग बुरी तरह डर जाएं.
अब, जैसे ही वे यह बताते हैं कि पीड़ित के आधार या पैन की जानकारी इसमें शामिल है, तब तक तो लोग होश खो चुके होते हैं. इंदौर के सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी का ही मामला देखें, जिन्हें बताया गया कि उनका फोन नंबर ड्रग तस्करी केस में सामने आया है.
बतौर एक पूर्व कानून प्रवर्तक वे आरोप की गंभीरता समझते थे. घोटालेबाजों ने उनके डर का लाभ उठाया, उन्हें "अपना नाम इससे हटवाने" के लिए एक करोड़ रुपए ट्रांसफर करने पर राजी किया. बेंगलूरू की 23 वर्षीया तकनीक विशेषज्ञ राबिया ठाकुर के केस में घोटालेबाजों ने फोन पर खुद को "लखनऊ पुलिस, सीमा शुल्क सूचना केंद्र" से जुड़ा बताकर कहा कि उनके नाम पर लखनऊ से कंबोडिया भेजे गए एक फेडएक्स पार्सल में कई पासपोर्ट और एटीएम कार्ड हैं.
एक बार जब शुरुआती संपर्क होने और आरोपों के बारे में बताने के बाद अगले कुछ दिन धोखेबाजों की गतिविधियां बढ़ जाती हैं. पीड़ितों को एक वीडियो कॉल में शामिल होने को कहा जाता है, जिसमें उन्हें नजर आने वाले दृश्य ध्यान से तैयार किए जाते हैं. राबिया से पूछताछ के लिए स्काईप डाउनलोड करने कहा गया.
पुलिस को शिकायत में राबिया ने बताया, "वीडियो कॉल में दूसरी ओर तीन लोग थे. उन्होंने कहा कि मुझे अपना बयान दर्ज कराना होगा और अपना विवरण साझा करना होगा. उन्होंने यह भी कहा कि मानव तस्करी और धनशोधन से जुड़े मामले में मेरे नाम पर गिरफ्तारी वारंट है."
सीबीआई, ईडी या ड्रग प्रवर्तन एजेंसी नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो जैसी केंद्रीय एजेंसियों के अधिकारी बनकर या फिर सुप्रीम कोर्ट से जुड़े होने का हवाला देने के दौरान धोखेबाज सोशल इंजीनियरिंग टूल के साथ-साथ डीपफेक वीडियो जैसी उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं, ताकि वे पूरे सेटअप को विश्वसनीय दिखा सकें. ओसवाल के मामले में जालसाज खुद को सीजेआई चंद्रचूड़ के तौर पर पेश कर रहे थे, जो स्काईप पर फर्जी सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई कर रहे थे.
अधिकतर पीडि़तों से कहा जाता है कि उन्हें 'डिजिटल गिरफ्तारी' के तहत रखा गया जबकि कानूनी तौर पर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. उन्हें बताया जाता है कि अपने परिवार को शर्मिंदगी से बचाने के लिए वे 'जांच' पूरी होने तक निगरानी में रहें. इस प्रक्रिया में पीडि़त को अलग-थलग रखने पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाता है. धोखेबाज मनोवैज्ञानिक दबाव बनाकर पीड़ितों को परिवार या दोस्तों से संपर्क नहीं करने देते हैं.
इसे सोशल इंजीनियरिंग रणनीति के साथ जोड़ा जाता है, जिसमें धोखेबाज पीड़ितों का आधार डेटा पता लगाकर या उनके सोशल मीडिया प्रोफाइल को ट्रैक करके पूरा साइको-सोशल प्रोफाइल तैयार करते हैं. फिर उस जानकारी के जरिए उन्हें फंसाते हैं और उनकी गोपनीय सूचनाएं निकलवा लेते हैं.
पहले तो वे पीड़ितों के परिजनों, हालिया यात्रा या वित्तीय संपत्तियों के बारे में जानकारी होने की बात दिखाकर अपना रौब जमाते हैं, और फिर धमकाने पर उतर आते हैं. मसलन, हैदराबाद में एक नर्सिंग होम के मालिक को धमकी दी गई कि अगर वह ऐसा नहीं करता है तो मुंबई में रहने वाली उसकी दो बेटियों का अपहरण कर लिया जाएगा.

पीड़ित को पूरी तरह अपने चंगुल में फंसाने के बाद धोखेबाज अपनी अगली चाल चलते हैं, और पैसे ऐंठने शुरू कर देते हैं. अमूमन यह उनको पूरे मामले से बचाने के नाम पर किया जाता है और सरकार के पास 'वापस कर दी जाने वाली सुरक्षा जमा राशि' की आड़ में पैसा ट्रांसफर करा लिया जाता है. पीड़ित के सहयोग करने की इच्छा दिखाने पर यह राशि धीरे-धीरे बढ़ा दी जाती है.
मसलन, पूर्व आईजीपी ने अपने साथ धोखाधड़ी होने के एहसास से पहले फर्जी अदालत के कहने पर 21 दिनों की अवधि में 2.14 करोड़ रुपए की सुरक्षा जमा राशि ट्रांसफर की.
राबिया ने सुरक्षा जमा के तौर पर किस्तों में 17 लाख रुपए का भुगतान किया. कुछ मामलों में पीड़ित को ऋण लेने या संपत्ति बेचने तक का निर्देश दे दिया जाता है. जैसा बेंगलूरू में एक महिला वकील के केस में हुआ, जिसे बताया गया कि उसे ड्रग तस्करी के मामले में फंसाया गया है और गिरफ्तारी से बचने के लिए 14 लाख रुपए ट्रांसफर करने पर राजी किया गया.
मनोवैज्ञानिक दबाव इतना गंभीर था कि उसने अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए 'स्ट्रिप सर्च' जैसी अपमानजनक मांगों को भी पूरा किया. संकट तब और बढ़ गया जब उसके नग्न वीडियो को लीक करने की धमकी देकर बाद में 10 लाख रुपए और हड़प लिए गए.
अहमदाबाद में साइबर अपराध पुलिस उपायुक्त लवीना सिन्हा कहती हैं, "धोखेबाज पूरी तैयारी के साथ काम करते हैं. भावनाओं को हथियार बनाते हैं और सार्वजनिक अपमान, आपराधिक कार्रवाई का डर दिखा लोगों को विवश कर देते हैं. धीरे-धीरे दबाव बढ़ाते हैं, जिससे यही डर लोगों में घुटन भर देता है. फिर, नई चाल चलते हैं. पीड़ितों से सहानुभूति का दिखावा करते हैं और उन्हें सारे मामले से बाहर निकलने में मदद की पेशकश करते हैं. मगर उसके लिए बड़ी कीमत चुकाने को कहा जाता है."
वे बताती हैं कि पीड़ितों के लिए स्थिति ऐसी हो जाती है कि वे हकीकत और धोखे में अंतर तक नहीं समझ पाते. आखिरकार, उन्हें इस सबका खामियाजा भुगतना पड़ता है. नुक्सान सिर्फ वित्तीय ही नहीं होता बल्कि इसमें भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर पहुंची चोट कहीं ज्यादा गहरी होती है.
धोखाधड़ी का जाल
भारतीय जांच एजेंसियों ने अभी इन व्यापक और जटिल आपराधिक व्यवस्थाओं में लिप्त विशाल अंतरराष्ट्रीय नेटवर्कों का राजफाश करना शुरू ही किया है. उनका मानना है कि इनके मास्टरमाइंड कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड और म्यांमार सहित दक्षिणपूर्व एशिया में रह रहे हैं और इनमें भारतीय आपराधिक सहयोगियों के साथ मिलकर काम कर रहे चीनी माफिया बड़े पैमाने पर लिप्त हैं.
'डिजिटल गिरफ्तारी' घोटालों में इस्तेमाल कॉल सेंटर और लंबी-चौड़ी व्यवस्थाएं इन्हीं देशों में हैं, जो साइबर अपराध संचालन के कुख्यात केंद्र बन गए हैं. ये उन्हीं इलाकों में फलते-फूलते हैं जहां शासन व्यवस्था कमजोर है या जहां स्थानीय प्राधिकारियों की सीधी मिलीभगत है.
मसलन, कंबोडिया में इन घोटाले के केंद्र रसूखदार कुलीनों की मिल्कियत वाले अहातों के भीतर खुलेआम संचालित हो रहे हैं. लाओस में गोल्डन ट्राएंगल स्पेशल इकोनॉमिक जोन (जीटीएसईजेड) साइबर धोखाधडिय़ों सहित अवैध गतिविधियों का अड्डा बन गए हैं.
म्यांमार में कैरन स्टेट और शान स्टेट सरीखे सरहदी इलाकों ने घोटालों के अड्डों के तौर पर कुख्याति हासिल कर ली है, जिनकी पीठ पर अक्सर स्थानीय पेशेवर सैनिकों और सेना का हाथ होता है. कुछ जगहों पर तो ये कॉल सेंटर कसीनो या औद्योगिक पार्कों में स्थित हैं, जिसकी बदौलत इन्हें वैधता का लबादा तो मिल ही जाता है, स्थानीय कानून प्रवर्तन एजेंसियों से सुरक्षा भी हासिल हो जाती है.
यूएनओडीसी (यूनाइटेड नेशंस ऑफिस ऑन ड्रग्स ऐंड क्राइम) की रिपोर्ट का आकलन है कि पूर्वी और दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों में स्थित साइबर अपराध सिंडिकेटों ने 2023 में दुनिया भर में 18 अरब डॉलर से 37 अरब डॉलर का चूना लगाया. यूएसआईपी (यूनाइटेड स्टेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ पीस) की मई 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 के अंत में साइबर अपराधियों ने दुनिया भर से अनुमानित 64 अरब डॉलर (5.4 लाख करोड़ रुपए) की धोखाधड़ियों को अंजाम दिया, जिनमें से 3.54 लाख करोड़ रुपए जितनी भारी-भरकम रकम अकेले लाओस, कंबोडिया और म्यांमार के मार्फत भेजी गई है.
खुद ये स्कैमर या घोटालेबाज स्थानीय ऑपरेटरों, अंतरराष्ट्रीय धोखाधड़ी नेटवर्कों और अक्सर मानव तस्करी के शिकार लोगों का मिश्रण हैं, जो 'साइबर गुलामी' के जाल में फंस जाते हैं. इन कॉल सेंटरों की ओहदेदारी की व्यवस्था के तीन स्तर हैं—जमीनी स्तर के कॉलर, सुपरवाइजर और टीम लीडर, तथा मास्टरमाइंड. जमीनी स्तर के ज्यादातर कॉलर भारत, नेपाल और बांग्लादेश सरीखे देशों से ऊंची तनख्वाह वाली नौकरियों के वादे की आड़ में फुसलाकर लाए शिकार होते हैं.
आते ही उनके पासपोर्ट जब्त कर लिए जाते हैं और उन्हें लगातार निगरानी के बीच कैदखाने जैसी परिस्थितियों में स्कैमर का काम करने को मजबूर किया जाता है. विरोध करने वालों को हिंसा और भुखमरी झेलनी पड़ती है या उन्हें दूसरे स्कैम संचालकों को बेच दिया जाता है.
साइबर गुलामों को छद्म रूप धारण करने, मनोवैज्ञानिक तिकड़मों और क्षेत्रीय लहजों का कठोर प्रशिक्षण दिया जाता है ताकि उनके कॉल प्रामाणिक लगें. इनके हैरतअंगेज पैमाने को दर्ज करने वाली दो रिपोर्ट के मुताबिक, जिनमें से एक संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ और अपराध कार्यालय ने तथा दूसरी यूनाइटेड स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ पीस ने इसी साल प्रकाशित की, 60 से ज्यादा देशों के करीब 3,00,000 साइबर गुलाम इन इलाकों में फंसे हुए हैं.
इनमें कई भारतीय भी हैं. 5,000 से ज्यादा भारतीय अकेले कंबोडिया में फंसे हैं. सरकारी रिकॉर्ड से पता चलता है कि जनवरी 2022 और मई 2024 के बीच विजिटर वीजा पर कंबोडिया, थाईलैंड, म्यांमार और वियतनाम गए 73,138 भारतीयों में 29,466 अब तक वापस नहीं आए. साइबर गुलामी का दायरा तब सामने आया जब ओडिशा के राउरकेला जैसे शहरों के परिवार काम के लिए विदेश गए लापता रिश्तेदारों की रिपोर्ट लिखवाने लगे.
इस खतरे के पैमाने से चिंतित विदेश मंत्रालय भारतीय नागरिकों को बचाने के लिए कंबोडिया, लाओस और म्यांमार के साथ उच्चस्तरीय बातचीत कर रहा है. नोम पेन्ह और विएंतिएन स्थित भारतीय दूतावासों ने कंबोडिया और लाओस में साइबर गुलाम बने 828 भारतीयों को वापस लाने में मदद की. साइबर गुलामी नेटवर्कों पर नजर रखने के लिए सरकार ने इंटरपोल और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के साथ भी गठजोड़ किया है.
इन बचाए गए भारतीय नागरिकों में से कुछ ने खुलासा किया कि इन कार्रवाइयों को कितने व्यवस्थित ढंग से अंजाम दिया जाता है. उनके यहां भर्ती, धोखाधड़ी करने और धनशोधन के अलग-अलग विभाग हैं. इन ऑपरेशनों के सुपरवाइजर और टीम लीडर अक्सर उस मूल देश (जैसे कंबोडिया और लाओस) के स्थानीय होते हैं जो रोजमर्रा का कामकाज देखते हैं और जमीनी कॉलर पर नजर रखते हैं.
ओहदेदारी के शीर्ष पर कथित तौर पर चीनी नागरिक होते हैं, जो नेटवर्क को संगठित और नियंत्रित करते हैं. वे पैसा जुटाने, परिष्कृत तकनीकी व्यवस्थाएं बनाने और चुराए धन का शोधन करने के लिए जिम्मेदार होते हैं. म्यांमार ने जुलाई 2023 से 49,000 संदिग्धों को टेलीकॉम और इंटरनेट धोखाधड़ियों से जुड़े 19.4 लाख मामलों में उनकी लिप्तता की वजह से चीन को प्रत्यर्पित किया है.
पैसा कैसे आता-जाता है
साइबर स्कैमर ठगे गए धन को बेहद सधे और परिष्कृत ढंग से निकालते हैं. उसमें म्यूल एकाउंट यानी जालसाजी से हासिल धन को ठिकाने लगाने के लिए खोले गए बैंक खातों और डिजिटल गेटवे के पेचीदा वित्तीय जाल शामिल होता है. यह जालसाजों के हाथों स्थानीय एजेंटों के जरिए सिम कार्ड खरीदने और बैंक खाते खोलने से शुरू होता है.
निशाना अक्सर कम आमदनी वाले लोगों को बनाया जाता है, जैसे रिक्शा चालक या दिहाड़ी मजदूर, जिन्हें छोटी-मोटी रकम की एवज में बैंक खाते खोलने के लिए राजी किया जाता है. चुराए गए या जोर-जबरदस्ती से हासिल दस्तावेजों से खोले गए ये खाते म्यूल एकाउंट कहे जाते हैं. ऐसे सारे म्यूल एकाउंट जालसाजों के वित्तीय नेटवर्क का अहम हिस्सा होते हैं, जिनकी बदौलत वे गुमनाम रहकर तेजी से धन का हस्तांतरण कर पाते हैं.
पुलिस जांच से खुलासा होता है कि साइबर अपराधी धन के अबाध हस्तांतरण के लिए रूटेड यानी पूर्ण नियंत्रण के लिए अनलॉक की गई मोबाइल डिवाइस और स्वचालित प्रणालियों का इस्तेमाल कैसे करते हैं. रूटेड डिवाइस उनके भीतर बनी सुरक्षा खूबियों को दरकिनार कर देते हैं, जिसकी बदौलत जालसाज ओटीपी (वन टाइम पासवर्ड) को बीच में ही पकड़ लेते हैं और म्यूल खाताधारक को पता चले बिना धन का हस्तांतरण करवा पाते हैं.
गुजरात में हाल ही में मारे गए एक छापे में ऐसे ही एक ऑपरेशन का पर्दाफाश हुआ, जिसमें भारत के म्यूल एकाउंट का सिरा ताइवानी जालसाजों से जुड़ा पाया गया, जो इतनी दूर बैठकर धन की साज-संभाल के लिए रूटेड डिवाइस का इस्तेमाल कर रहे थे. वडोदरा और सूरत सरीखे शहरों में स्थित घोटाले के स्थानीय अड्डों ने चुराया गया धन हासिल, हस्तांतरित और शोधित किया.
म्यूल खातों से यह धन गैर-पंजीकृत पेमेंट गेटवे के जरिए निकाला जाता है, जिससे वे अंतरराष्ट्रीय सरहदें पार कर पाते हैं और पकड़े भी नहीं जाते. गुजरात पुलिस ने म्यूल खातों को तीन स्तरों में वर्गीकृत डिजिटल पेमेंट गेटवे से जुड़ा पाया—ऑनलाइन सट्टे के लिए टी1, निवेश घोटालों के लिए टी2 और 'डिजिटल गिरफ्तारी' सरीखी ज्यादा पेचीदा धोखाधड़ियों के लिए टी3. धन की आवाजाही के निशान अक्सर क्रिप्टोकरेंसी एक्सचेंजों पर जाकर खत्म होते हैं.
उनकी राह ताइवान और दुबई सरीखी अन्य वित्तीय जन्नतों में सक्रिय वित्तीय चैनलों से होकर गुजरती है. डिजिटल मुद्राओं की तरफ इस बदलाव ने जांचकर्ताओं के काम को और भी मुश्किल बना दिया है, क्योंकि क्रिप्टोकरेंसी पारंपरिक बैंकिंग प्रणालियों को दरकिनार कर देती हैं. जालसाज पीड़ित के धन हस्तांतरित करने और यह धोखाधड़ी का एहसास होने पर अपने खाते को फ्रीज करवाने और शिकायत दर्ज करवाने के बीच हुई देरी का भी फायदा उठाते हैं. वह धन इतने वक्त में शोधन के कई स्तरों से होकर गुजर चुका होता है.
गुजरात की जांच से, जिसमें 17 भारतीयों और चार ताइवानी नागरिकों को गिरफ्तार किया गया है, पता चला कि ये जालसाज रोज 1-2 करोड़ रुपए कमा रहे थे और रोज 10 करोड़ रुपए उगाहने के लिए अपने नेटवर्क के विस्तार का मंसूबा बना रहे थे. ऐसा करने के लिए ताइवानी ऑपरेटर भारत में और ज्यादा स्थानीय एजेंटों को भर्ती करने की तैयारी कर रहे थे.
स्थानीय गिरफ्तारियां कर ली गई हैं, पर विदेशी मास्टरमाइंड अब भी पकड़ से बाहर हैं. भारत के कई ऑपरेटरों का विदेशी सिंडिकेटों से कोई सीधा जुड़ाव नहीं है. इसके बजाए वे उन बिचौलियों की तरह काम करते हैं जो म्यूल खातों और वित्तीय गेटवे का सुचारू संचालन करवाते हैं.
पुलिस जांच में इन घोटालों को अंजाम देने में बैंकों के अंदरूनी लोगों की संलिप्तता के बारे में चौंकाने वाले ब्योरों का भी खुलासा हुआ. मसलन, पुरी के मामले में उनसे ठगा गया धन 70 से ज्यादा बैंक खातों के जरिए निकाला गया, जिनमें वह एक खाता भी था जो पंजाब के मुक्तसर में एचडीएफसी बैंक की रुपाणा शाखा में किन्हीं सुमन रानी के नाम पर था.
सुमन ने स्वीकार किया कि उसने 5,000 रुपए के बदले दूरदराज से यह खाता खोला था. आगे की जांच शाखा प्रबंधक प्रीत इंद्रा तक ले गई, जिन्होंने धोखाधड़ी से खाता खोलने में मदद की थी. उसके साथ अपराध में लिप्त एक और साथी मुकेश था, जिसने चेकों के जरिए खाते से पैसा निकलवाया, और जो लगातर उनके संपर्क में था.
कई साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों ने आरबीआइ की वित्तीय प्रणाली में उन कमजोरियों की तरफ इशारा किया है जिनका फायदा जालसाज उठाते हैं. छोटे वक्त के अनुबंध पर रखे गए बैंक कर्मचारियों या बाहरी स्रोत के रूप में काम कर रहे केवाइसी (नो योर कस्टमर) एजेंटों की संवेदनशील डेटा तक पहुंच होती है, जिसे वे बेच देते हैं या उसका दुरुपयोग करते हैं.
कुछ बैंक और खासकर उनकी छोटी शाखाएं पुराने पड़ चुके सॉफ्टवेयरों और ढीले-ढाले आंतरिक नियंत्रणों के साथ काम करते हैं, जिससे कर्मचारियों के लिए पता चले बिना व्यवस्थाओं को तोडऩा-मरोड़ना आसान हो जाता है. फ्लोरिडा में रहने वाले डॉयचे बैंक के डायरेक्टर पंकज ओझा कहते हैं, "भारत में डिजिटल बैंकिंग डेटा की प्राइवेसी के मामले में अमेरिका के मुकाबले कुछ हद तक जोखिम से घिरी है. बैंकिंग व्यवस्था में नियामक बैंकों को खामियां दूर करने के लिए मजबूर करके बेहद अहम भूमिका अदा करता है."
सरकार क्या कर रही है
तेजी से कार्रवाई, लगातार पीछे लगे रहना और अक्सर किस्मत डिजिटल गिरफ्तारी के घोटालों में गंवाया गया धन वापस हासिल करने में शायद आपकी मदद कर सकते हैं, पर पूरा पैसा कभी नहीं मिलता. सेवानिवृत्त आईजीपी विकास ने 2.14 करोड़ रुपए से ज्यादा रकम उन खातों में हस्तांतरित कर दी थी जिन्हें उन्होंने सरकारी खाते समझा था; पुलिस की तरफ से त्वरित कार्रवाई और बैंकों के साथ तालमेल की बदौलत उन्हें 1.7 करोड़ रुपए वापस मिले, बाकी 40 लाख रुपए का अब भी कोई अता-पता नहीं है.
गुजरात में पुलिस ने शिकायत मिलने के कुछेक घंटों के भीतर कार्रवाई की और उन म्यूल खातों को फ्रीज करवा दिया जिनमें 12 लाख रुपए जमा थे. मगर ज्यादातर लोगों के लिए देशी-विदेशी बैंक खातों की उस भूलभुलैया के कारण धन वापस पाना मुश्किल होता है जिसे तोड़ने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत होती है.
केंद्र सरकार ने इस बढ़ते खतरे से निबटने के लिए हाल में अपनी कोशिशें तेज कर दी हैं. गृह मंत्रालय ने विभिन्न राज्यों के बीच जांच में तालमेल के लिए इसी अक्तूबर में एक समिति बनाई, क्योंकि पुलिस बलों को इन जालसाजियों के पीछे छिपे मास्टरमाइंडों का पता लगाने के लिए अक्सर जूझना पड़ता है. गृह मंत्री अमित शाह ने आई4सी के तहत दिल्ली में राष्ट्रीय साइबर फॉरेंसिक लैबोरेटरी की स्थापना का ऐलान किया, जो 1,100 से ज्यादा अधिकारियों को साइबर फॉरेंसिक का प्रशिक्षण दे चुकी है.
इस पहल को जिला और तहसील स्तरों तक बढ़ाने की योजनाओं पर काम चल रहा है. इसके अलावा जामताड़ा, मेवात, हैदराबाद और अहमदाबाद सरीखे प्रमुख इलाकों में संयुक्त साइबर समन्वय टीमें गठित की गई हैं, जबकि शीर्ष शैक्षिक संस्थाओं के साथ मिलकर 5,000 साइबर कमांडो की विशिष्ट साइबर कमान इकाई विकसित की जा रही है. बैंकों, टेलीकॉम प्रदाताओं, आइटी फर्मों और कानून प्रवर्तन के बीच सहकार को बढ़ावा देने के लिए साइबर धोखाधड़ी निषेध केंद्र (सीएफएमसी) का उद्घाटन भी किया गया है.
मगर विशेषज्ञों का कहना है कि ये उपाय नाकाफी हैं. सुसंगत साइबर सुरक्षा कानून नहीं होने और साथ ही सीमा-पार जांच के लिए सीमित संसाधनों की वजह से समग्र स्थानीय कोशिशें भी अंतराष्ट्रीय जालसाजियों के मामले में कम पड़ जाती हैं. इन जालसाजियों में सहायक एक अहम कारक भारत की अनूठी पहचान संख्या प्रणाली आधार है. इसका मुकाबला करने के लिए साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ अनिवार्य सरकारी सेवाओं से इतर आधार का इस्तेमाल करने के लिए ज्यादा सख्त दिशानिर्देशों की वकालत कर रहे हैं.
निजी संस्थाओं में आधार का इस्तेमाल सीमित करके और दुरुपयोग करने पर सख्त सजाएं लागू करके ऐसी पहचान आधारित जालसाजियों को रोका जा सकता है. डिजिटल गिरफ्तारी से जुड़ी जालसाजियों के खतरे से निबटने के लिए सरकार को मजबूत साइबर सुरक्षा कानून लागू करने चाहिए, सीमा-पार सहयोग बढ़ाना चाहिए, पहचान से जुड़े डेटा की सुरक्षा सख्त करनी चाहिए.
भारतीय अधिकारियों का अलबत्ता कहना है कि जालसाज बैंकिंग टेक्नोलॉजी या साइबर सुरक्षा की खामियों पर उतना भरोसा नहीं करते जितना पीड़ितों के साथ मनोवैज्ञानिक चालबाजियां करने पर भरोसा करते हैं.
वित्त मंत्रालय के तहत वित्तीय सेवा विभाग की पूर्व अतिरिक्त सचिव दक्षिता दास कहती हैं, "पड़ताल और नियंत्रण के उपाय हैं, जैसे बैंकों की तरफ से तय धन के हस्तांतरण की सीमाएं, ओटीपी और ज्यादा बड़ी रकम पर खाताधारकों को कॉलबैक करना. मगर कोई स्वेच्छा से रकम ट्रांसफर कर दे, तो आप क्या कर सकते हैं?"
बैंक तथा प्रवर्तन अधिकारी भी कहते हैं कि दो सीधे-सादे कदम ठगी को रोक सकते हैं—जागरूकता और सतर्कता. ज्यादातर बैंकों ने ग्राहकों के लिए साइबर घोटालों से संबंधित एडवाइजरी जारी की है. दास कहती हैं, "आप फोन काट दें तो जालसाजी होगी ही नहीं." इस सलाह का पालन करके आप अपना धन और अपने को सदमे से बचा सकते हैं.
—प्रदीप आर. सागर और अभिषेक जी. दास्तिदार
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