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अपने-अपने नायक : जाति ही पूछो  महापुरुषों की

सम्राट अशोक, पृथ्वीराज चौहान और ऐसे ही दूसरे राष्ट्रीय नायकों को जातिगत अस्मिता तक सीमित किए जाने की कोशिशों का जायजा.

राणा पुंजा, परशुराम, पृथ्वीराज चौहान और सम्राट अशोक (बाएं से दाएं)
राणा पुंजा, परशुराम, पृथ्वीराज चौहान और सम्राट अशोक (बाएं से दाएं)
अपडेटेड 24 अगस्त , 2022

विनय सुल्तान

यह 19 सितंबर, 2019 की बात है. फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने अपने 52वें जन्मदिन के मौके पर अपनी आने वाली नई फिल्म पृथ्वीराज की घोषणा की. यशराज फिल्म्स के बैनर तले बन रही इस फिल्म का निर्देशन चंद्रप्रकाश द्विवेदी कर रहे थे. मार्च 2020 में जयपुर के पास जमवा रामगढ़ में फिल्म की शूटिंग शुरू होते ही विवाद शुरू हो गया. श्री राजपूत करणी सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष महिपाल सिंह मकराणा अपने समर्थकों के साथ मौके पर पहुंच गए. उसके बाद का मंजर ठीक वैसा ही था जैसा जोधा-अकबर या पद्मावत की शूटिंग के दौरान हुआ था: हंगामा, नारेबाजी और तोड़-फोड़.

विवाद में नया मोड़ आया 7 मई, 2021 को. सोशल मीडिया वेबसाइट ट्विटर की ट्रेंडिंग लिस्ट में नया हैशटैग चमका, गुर्जर सम्राट पृथ्वीराज चौहान. इसके कुछ घंटों में जवाबी हैशटैग ट्रेंड होने लगा, राजपूत सम्राट पृथ्वीराज  चौहान. इस तरह से अतीत के एक सम्राट की जयंती दो जातिगत समूहों के बीच मोर्चाबंदी का सबब बन गई. 

सपादलक्ष या शाकंभरी के चौहान वंश के आखिरी सम्राट पृथ्वीराज चौहान पर गुर्जर समाज अपना दावा क्यों पेश कर रहा है? इस सवाल का जवाब देते हुए वीर गुर्जर महासभा से जुड़े इतिहासकार जितेश गुर्जर कहते हैं, ''जब आदमी पढ़ता-लिखता है तब उसे एहसास होता है कि हमारा अतीत तो बड़ा गौरवशाली था. उसे तोड़ा-मरोड़ा गया या ठीक से पेश नहीं किया गया. तब वह अपने इतिहास के लिए संघर्ष करना शुरू करता है. अभी गुर्जर समाज अपने इतिहास को स्थापित करने के लिए स्ट्रगल कर रहा है.’’

वीर गुर्जर महासभा पृथ्वीराज चौहान के गुर्जर होने के पक्ष में पृथ्वीराज के दरबारी कवि जयानक के लिखे हुए पृथ्वीराज विजय महाकाव्यं को सबूत के तौर पर पेश करती है. जयानक ने पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर के लिए गुर्जराधिपति शब्द का इस्तेमाल किया है. जितेश कहते हैं कि अगर पिता गुर्जर है तो पुत्र भी तो गुर्जर ही होगा.

दूसरा तर्क चंद्र बरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो के आधार पर दिया जाता है. जितेश कहते हैं, ''कई इतिहासकार गुर्जर शब्द को स्थानवाचक बताते हैं. लेकिन पृथ्वीराज रासो में एक छंद है, 'गुर्जर अहीर अस जाति दोई, तिन लील लोक सके ना कोई. इसका मतलब साफ है  कि गुर्जर यहां जाति के लिए इस्तेमाल हो रहा है.’’ 

वे यह भी कहते हैं, ''तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मध्यकाल तक यह परंपरा रही है कि जगहों के नाम शासक वंशों के आधार पर रखे जाते थे. जैसे राजस्थान का पुराना नाम राजपुताना था क्योंकि यहां राजपूतों का राज था. इसी हिसाब से गुजरात को गुर्जर देश तभी कहा जाएगा जब वहां गुर्जरों का राज रहा हो.’’

इस पूरे मामले का दूसरा पक्ष राजपूत समुदाय का है. क्षत्रिय युवक संघ के संयोजक महावीर सिंह सरवड़ी कहते हैं, ''गुर्जर शब्द स्थान विशेष के लिए इस्तेमाल किया जाता था. रावण को लंकाधिपति कहा जाता था, इसका यह मतलब नहीं है कि उसकी जाति लंका थी. राजस्थान के दक्षिणी हिस्से और गुजरात के उत्तरी हिस्से को उस समय गुर्जर देश या गुर्जरात कहा जाता था और उस भू-भाग के राजा के लिए गुर्जराधिपति.

यहां से जो जातियां निकलीं वे आज भी अपने नाम के आगे गुर्जर लगाती हैं, जैसे गुर्जर गौड़ ब्राह्मण या गुर्जर प्रतिहार राजपूत. अगर आपकी पृथ्वीराज चौहान में श्रद्धा है तो किसे दिक्कत है. लेकिन कुछ लोग सस्ता प्रचार पाने के लिए इस किस्म के बवंडर खड़े करते हैं. लेकिन ऐसी घटनाएं जातिगत वैमनस्यता ही फैलाती हैं.’’

लेकिन पृथ्वीराज चौहान पर चर्चित किताब पृथ्वीराज चौहान: अ लाइट ऑन द मिस्ट इन हिस्ट्री लिखने वाले वीरेंद्र सिंह राठौड़ गुर्जर महासभा के दावों को सही नहीं मानते. उनके मुताबिक, ''पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर का ननिहाल गुजरात के पाटन में था. गुर्जरेश्वर या गुर्जराधिपति शब्द का उपयोग सोमेश्वर के नाना जयसिंह सिद्धराज के लिए हुआ है.’’

गुर्जर महासभा के दावों के पीछे की व्याख्या करते हुए राठौड़ कहते हैं, ''1950 के दशक में समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास ने टर्म दी थी संस्कृतिकरण. श्रीनिवास कहते हैं कि निचली और मध्य क्रम की जातियों में अक्सर यह देखा गया है कि वे अपने रीति-रिवाज, रहन-सहन, विचारधारा को द्विज जातियों के जैसा बनाने की कोशिश करती हैं. ऐसे परिवर्तनों के साथ-साथ वर्ण व्यवस्था में उच्च स्थान के लिए दावेदारी भी शुरू हो जाती है.’’

अक्षय कुमार की फिल्म पृथ्वीराज 3 जून हो रिलीज हो रही है और हो सकता है कि तब तक भारत के इस महान राजा की जातिगत पहचान को लेकर विवाद और बढ़ता दिखे.

जातिगत पहचान को लेकर चल रही रस्साकसी सिर्फ एक राजा या सम्राट या क्षेत्र तक सीमित नहीं है. पिछले दिनों कुछ ऐसा ही घटनाक्रम सम्राट अशोक को लेकर भी देखने को मिला. 

देश के इतिहास में दो ही शासकों—अशोक और अकबर को इतिहासकारों ने महान की उपाधि से नवाजा है. दोनों के बीच लगभग 1700 साल का फासला है. सिर्फ एक कड़ी दोनों को आपस में जोड़ती है. सभी धर्म और मतों के समान होने की नीति और जनता की भलाई के लिए किए गए प्रयास. कलिंग युद्ध के बाद अशोक को हिंसा की व्यर्थता समझ में आई.

इसके बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन आम लोगों की भलाई के लिए लगा दिया. क्या ईसा से ढाई सौ साल पहले इस महान सम्राट ने कभी सोचा भी होगा कि सदियों बाद उसकी पहचान को बाद महज एक समुदाय तक सीमित कर दिया जाएगा? लेकिन आज के दौर का सच यही है.

इस साल 8 अप्रैल को भाजपा ने बिहार की राजधानी पटना में सम्राट अशोक की जयंती का भव्य आयोजन किया. इस आयोजन के लिए भाजपा ने अपने कुशवाहा नेता सम्राट चौधरी को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी. सम्राट चौधरी अब तक भाजपा की राजनीति में बहुत सक्रिय नहीं थे. लेकिन वे उस कुशवाहा जाति के हैं, जिसे बिहार में सम्राट अशोक की जाति माना जाता है.

इस आयोजन के लिए उत्तर प्रदेश के उप- मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को खास तौर पर आमंत्रित किया गया था. वह इसलिए क्योंकि मौर्य न सिर्फ कुशवाहा हैं, बल्कि उनका उपनाम मौर्य है, जिस मौर्य वंश के सम्राट अशोक थे. इस मौके पर पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा, ''जहां राम हैं, वहीं लव-कुश हैं. लव-कुश और कहीं जाने वाले नहीं.

नरेंद्र मोदी ने कुशवाहा समाज को सम्मान दिया है, यूपी में केशव प्रसाद मौर्य को उप-मुख्यमंत्री बनाया है. इसलिए कुशवाहा समाज आज भाजपा के साथ है.’’ इस आयोजन में सुशील मोदी लव-कुश यानी राज्य की कुर्मी और कुशवाहा जाति को भाजपा का हिस्सा बता रहे थे, जबकि अब तक माना जाता रहा है कि इन जातियों का झुकाव नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) की तरफ है.

अशोक को मौर्य समुदाय से जोड़े जाने के सिलसिले की शुरुआती जड़ें हमें 1933 में देखने को मिलती हैं. इस समय कांग्रेस सबसे बड़ा राजनैतिक मंच था और बिहार कांग्रेस कमेटी में सवर्णों का वर्चस्व था. 1933 के मई में बिहार की तीन बड़ी खेतिहर जातियों कोइरी, कुर्मी और यादव ने इस वर्चस्व को तोड़ने के लिए त्रिवेणी संघ नाम का संगठन खड़ा किया.

इस दौरान अपनी जाति की गोलबंदी को खड़ा करने के लिए ऐतिहासिक नायकों का सहारा लिया गया. कोइरी समाज अपनी उत्पत्ति का पहला सिरा भगवान राम के बेटे कुश और दूसरा सिरा अशोक तक ले जाता है.

जहां बिहार में भाजपा सम्राट अशोक की जयंती के जरिए कुर्मी-कोइरी समाज में अपनी पकड़ मजबूत करने की कवायद में है, वहीं उत्तर प्रदेश में महान दल अशोक की जयंती जोर-शोर से मनाता हुआ नजर आता है. महान दल के संस्थापक केशव देव मौर्य कहते हैं, ''इतिहास में कई जगह चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक महान को क्षत्रिय बताया गया है, लेकिन मौर्य समाज आज क्षत्रिय की कैटेगरी में नहीं आता है.

दरअसल, उस समय समाज में वैदिक नियम लागू थे. वर्ण कर्म से निर्धारित होते थे. अशोक राजा थे इसलिए क्षत्रिय कहे गए. हम भी उसी वंश से हैं. लेकिन बाद में हम लोग खेती करने लगे तो हमारा वर्ण बदल गया.’’ 

नायकों को जातियों के खांचों में बांटने की कवायद केवल जाति क्रम में निचली कही जाने वाली जातियों तक सीमित नहीं है. इसका एक उदाहरण 3 मई, 2022 को दिखा, जब राजधानी पटना में परशुराम जयंती का बड़ा आयोजन हुआ. भूमिहार-ब्राह्मण एकता मंच की तरफ से आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव थे.

इसकी पृष्ठभूमि हाल ही में हुए बोचहा उपचुनाव तक जाती है, जिसमें राजद ने जीत दर्ज की थी. उस वक्त ऐसा कहा जा रहा था कि राजद ने यह जीत भूमिहारों की मदद से दर्ज की. वे भूमिहार जो सवर्ण जाति के होने की वजह से भाजपा के स्वाभाविक सहयोगी माने जाते हैं. इस कार्यक्रम में तेजस्वी ने कहा, ''हम रिश्ता सुधारने आए हैं. हम लोग अगर एक हो जाएं तो हमें हराने वाला कोई नहीं. अभी त चूड़ा-दही सनाता, खाय के बारी भी आई.’’

चूड़ा-दही बिहार में मकर-संक्रांति का पर्याय रहा है. लेकिन अब यह राजनीति में यादव-भूमिहार गठजोड़ के रूपक की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है.  ऐसा कहा जाने लगा कि राजद का पुराना 'माइ’ समीकरण यानी मुस्लिम-यादव गठजोड़ अब 'भू-माइ’ समीकरण यानी भूमिहार-मुस्लिम-यादव गठजोड़ में बदल गया है. 

बिहार की राजनीति पर नजर 
रखने वाले राजनीतिक टिप्पणीकार  निराला कहते हैं, ''राजद लंबे समय से भूमिहारों को अपने पाले में करने की कोशिश करता रहा है. लालू जी इस समीकरण को साधने में बहुत सफल नहीं हो पाए, मगर तेजस्वी को थोड़ी सफलता मिलती दिख रही है.’’ 

ऐतिहासिक नायक किसी भी जातिगत गोलबंदी को बांधने के लिए उपयोगी औजार साबित हुए हैं. लेकिन दिक्कत तब खड़ी होती है जब एक ही नायक पर एक से ज्यादा जातियां अपना दावा पेश कर देती हैं. महाराजा सुहेल देव की कहानी कुछ इसी तरह की है.

''भारत का इतिहास सिर्फ वह नहीं है, जो देश को गुलाम बनाने वालों, गुलामी की मानसिकता के साथ इतिहास लिखने वालों ने लिखा, भारत का इतिहास वह भी है जो भारत के सामान्य जन में, भारत की लोकगाथाओं में रचा-बसा है. जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ा है. महापुरुषों को राजनैतिक चश्मे से देखना गलत है.’’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 फरवरी, 2021 को उत्तर प्रदेश में बहराइच की चित्तौरा झील के किनारे बन रहे महाराजा सुहेल देव स्मारक का शिलान्यास करते हुए यह बात कही थी. इस बयान के जरिए वे एक तरह से महापुरुषों को राजनैतिक चश्मे से न देखने की अपील कर रहे थे. लेकिन यह उलटबांसी ही है कि वही सुहेल देव ऐसे ऐतिहासिक नायक हैं जिन पर पूर्वांचल में जमकर राजनीति हुई है और खुद भाजपा इस मामले में खूब सक्रिय रही है.

सुहेल देव के नाम पर राजनीति की शुरुआत 1950 में हुई. समाजशास्त्री बद्री नारायण ने अपनी किताब फैसिनेटिंग हिंदुत्व: सैफ्रन पॉलिटिक्स ऐंड दलित मोबिलाइजेशन में इस घटना का तफ्सील से ब्यौरा दिया है. 1950 के अप्रैल में हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और राम राज्य परिषद ने संयुक्त रूप से चित्तौरा में राजा सुहेल देव की याद में एक मेले का आयोजन किया था. इस मेले के विरोध और आयोजन को लेकर तब बहराइच में दंगे जैसे हालात बन गए थे और दिलचस्प बात है कि आखिर में सुहेल देव की स्मृति में जो कार्यक्रम हुआ उसकी अगुवाई कांग्रेस ने की. 

इसके बाद सुहेल देव को फिर से याद किया गया सन 2001 में. तब आरएसएस ने एक नया मोर्चा बनाया महाराजा सुहेल देव सेवा समिति. इस सेवा समिति के जरिए संघ परिवार ने पासी समुदाय को अपने साथ जोड़ने के प्रयास शुरू किए. 

पंद्रह साल बाद भाजपा ने सुहेल देव की याद को ताजा करने की कोशिशें तेज कर दीं. 24 फरवरी, 2016 को पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह ने बहराइच का दौरा किया. बसंत पंचमी के मौके पर लगने वाले मेले में सुहेल देव की मूर्ति का अनावरण हुआ. 29 दिसंबर, 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले सुहेल देव के नाम पर डाक टिकट जारी किया. 

6 फरवरी, 2021 को उन्होंने बहराइच में सुहेल देव स्मारक और सुहेल देव मेडिकल कॉलेज का वर्चुअल शिलान्यास किया. राजनैतिक विश्लेषकों ने इसे पासी और राजभर वोटों को भाजपा की तरफ खींचने की कवायद के तौर पर देखा.

लेकिन सुहेल देव की विरासत पर सिर्फ भाजपा का दावा नहीं है. 2002 में पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और बाद में अपना दल में रह चुके ओम प्रकाश राजभर ने अपनी नई पार्टी खड़ी की. इसका नाम रखा भारतीय समाज पार्टी. यह पार्टी मुख्य तौर पर राजभर समुदाय की गोलबंदी के राजनैतिक स्वर के तौर पर खड़ी हुई थी. अब्दुर रहमान चिश्ती की लिखी मिरात-ए-मसूदी में सुहेलदेव के भरथरु समुदाय से होने की बात लिखी गई है.

इस आधार पर राजभर ने सुहेलदेव को अपने समुदाय के एक नायक की तरह स्थापित करना शुरू किया. भारतीय समाज पार्टी ने अपने शुरुआती दौर में 'जय सुहेलदेव’ को अभिवादन की तरह प्रचलित करना शुरू किया और बाद में भारतीय समाज पार्टी के आगे सुहेलदेव का नाम ही जोड़ लिया. पूर्वांचल में राजभर समुदाय की आबादी करीब 18 फीसद है. यह 60 से ज्यादा विधानसभा सीटों को प्रभावित करती है. ऐसे में सुहेलदेव हर राजनैतिक पार्टी के लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं.

उत्तर प्रदेश और बिहार की चर्चा जातिगत गोलबंदी के लिए सबसे ज्यादा होती है लेकिन ऐतिहासिक नायकों पर दावेदारी को लेकर यह रस्साकशी इस वन्न्त दक्षिणी राजस्थान में भी सुर्खियां बटोर रही है और इसके केंद्र में हैं राणा पुंजा. इस घटनाक्रम को समझने में 25 अगस्त, 2015 एक अहम तारीख मानी जा सकती है. उस दिन डूंगरपुर के श्री भोगीलाल पंड्या महाविद्यालय में एक बड़े राजनैतिक आंदोलन की कोपलें फूट रही थीं. अब तक सामाजिक संगठन की पहचान रखने वाला संगठन 'आदिवासी भील परिवार’ पहली बार चुनावी राजनीति में उतरा था.

इस चुनाव में आदिवासी परिवार के छात्र संगठन भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा ने पहली बार में ही छात्रसंघ की चारों सीटें जीतकर सनसनी पैदा कर दी थी. इसके बाद जब कॉलेज से निकला छात्रों का विजय जुलूस सदर थाने के सामने के चौराहे पर पहुंचा तो उपद्रव खड़ा हो गया. छात्र चौराहे पर राणा पुंजा की तस्वीर और अपने झंडे लगा रहे थे और पुलिस उन्हें ऐसा करने से रोक रही थी. यह चौराहा आने वाले वक्त में भील अस्मिता आंदोलन का पहला मोर्चा बनने जा रहा था.

कुछ दिन पहले ही वहां जैन समाज के लोगों ने प्रशासन की इजाजत लिए बगैर मुनि तरुण सागर की तस्वीर लगा दी थी. आदिवासी परिवार ने इसका विरोध किया और वहां राणा पुंजा की तस्वीर लगाने की मांग की थी. आदिवासी भील परिवार संगठन 2015 में अस्तित्व में आया था. शुरू में यह भीलों को सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से जागरूक करने का काम करता था. राणा पुंजा, काली बाई, गोविंद गुरु जी आदिवाई नायक इस सांस्कृतिक जागरण अभियान के केंद्र में थे. राणा पुंजा की मूर्ति इस अस्मिता आंदोलन के लिए नाक का सवाल बन गया.
 
2016 से 2022 तक कई चीजें बदल गई थीं. आदिवासी परिवार ने भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) को अपना राजनैतिक मोर्चा बना लिया था. उसके दो विधायक राजस्थान विधानसभा में थे. नगर परिषद ने मुनि तरुण सागर की मूर्ति के लिए अलग चौराहा चिन्हित कर दिया. नगर परिषद ने राणा पुंजा की एक मूर्ति भी बनवा ली जिसे सदर थाने के सामने के चौराहे पर लगना था. लेकिन कांग्रेस और बीटीपी के बीच रस्साकशी के चलते मामला लटका हुआ था. बीटीपी की मांग थी कि मूर्ति के सिलसिले में कोई शिलापट्ट नहीं लगेगा. कांग्रेस के स्थानीय विधायक चाहते थे कि मूर्ति का अनावरण पूरे सरकारी प्रोटोकॉल के तहत हो. 

14 अप्रैल, 2022 को अंबेडकर जयंती के मौके पर बीटीपी विधायक राजकुमार रोत और राम प्रसाद डिन्डोर अपने समर्थकों के साथ चौराहे पर पहुंचे और राणा पुंजा की मूर्ति लगा दी. नगर परिषद की शिकायत पर दोनों विधायकों सहित 150 लोगों के खिलाफ मुकदमा हो गया. 

इसके चार दिन बाद 19 अप्रैल को राजस्थान सरकार के कैबिनेट मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीय और विधायक गणेश घोघरा की मौजूदगी में शहर के सिंटेक्स तिराहे पर नगर परिषद की बनवाई हुई प्रतिमा का अनावरण कर दिया गया. पांच दिन में शहर में राणा पुंजा की दो मूर्तियां लग चुकी थीं. लेकिन बीटीपी ने कांग्रेस की मूर्ति में नुक्स निकाल दिया. उस पर राणा पुंजा का पूरा नाम नहीं लिखा था. पूरा नाम मतलब 'राणा पुंजा भील.’ 

राणा पुंजा की पहचान एक ऐसे भील सरदार के तौर पर है जिसने मुगल आक्रमण के वक्त महाराणा प्रताप के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी. मेवाड़ रियासत का कोट ऑफ आर्म्स 1861 से 1874 के बीच महाराणा शंभू सिंह के समय में डिजाइन हुआ था. इस पर एक तरफ राजपूत और दूसरी तरफ भील सैनिक को दिखाया गया है. आम मान्यता यह है कि एक तरफ महाराणा प्रताप और दूसरी तरफ राणा पुंजा को जगह दी गई है. लेकिन क्या सच में ऐसा ही है?

1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी उदयपुर आए थे. उन्होंने मोती मगरी स्थित प्रताप स्मारक पर राणा पुंजा की मूर्ति का अनावरण किया. इस पर लिखा  था 'भीलू राजा राणा पुंजा.’’ संविधान सभा के सदस्य रहे बलवंत सिंह मेहता ने राजीव गांधी को खत लिखकर कहा कि राणा पुंजा को भील कहना मेवाड़ के इतिहास के साथ अन्याय है. बाद में मूर्ति से राणा पुंजा का नाम हटा दिया गया. इसी तरह, 1997 में राजस्थान सरकार ने उदयपुर के पानरवा में राणा पुंजा का स्मारक बनवाने की घोषणा की थी. लेकिन बलवंत सिंह मेहता, मेवाड़ राजपरिवार और पानरवा ठिकाने के संयुक्त विरोध के बाद यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया.

मेवाड़ के भोमट इलाके में पडऩे वाला पानरवा ठिकाना अपना ताल्लुक सोलंकी राजपूतों से जोड़ता है. पानरवा ठिकाने से ताल्लुक रखने वाली कृष्णा कुमारी सोलंकी बताती हैं, ''हमारे परिवार का संबंध अन्हिलवाड़ा पाटन के सोलंकी राजपरिवार से है. हमारे पुरखे पाटन से सिरोही और वहां से देसुरी होते हुए मेवाड़ आए थे. ठाकुर भोज सिंह ने मेवाड़ में नया ठिकाना रूपनगर कायम किया. वहां से दो पीढ़ी बाद अखेराज जी भोमट के इलाके में आए. अखेराज जी की पीढ़ी में पांच पीढ़ी बाद राणा पुंजा का जन्म हुआ था. हमारे इलाके और सेना दोनों में भील बहुतायत में थे. इसी वजह से राणा पुंजा को कई जगह 'भीलू राणा’ भी कहा गया.’’

लेकिन भारतीय ट्राइबल पार्टी के नेता कांति भाई रोत कृष्णा कुमारी सोलंकी के दावे को जायज नहीं मानते. उनका कहना है, ''राणा पुंजा भील का जन्म मेरपुर में हुआ. आज भी मेरपुर में आपको 'होळकी’ गोत्र के भील मिल जाएंगे. इसे ही बाद में लिखने की कठिनाई के चलते सोलंकी कर दिया गया. आज तक के इतिहास में कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जब भील किसी गैर आदिवासी के नेतृत्व में लड़े हों.

अगर राणा पुंजा ने हल्दीघाटी में भीलों का नेतृत्व किया था, तो उन्हें गैर भील नहीं माना जा सकता. दूसरी बात आप राजपूतों का इतिहास देख लो. आपको कहीं भी पुंजा नाम नहीं मिलेगा. पुंजा भीलों में बेहद प्रचलित नाम रहा है. हम राणा पुंजा को भीलों का नायक मानते हैं और इस पर कायम हैं.’’

आखिर ऐतिहासिक नायकों को जातिगत खांचों में बांटने का फायदा किसको है? राजनैतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे इस सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं, ''यह कोई नई बात नहीं है. बहुत लंबे अरसे से ऐसा किया जा रहा है. खास तौर पर ऐसी जातियां जो निचले पायदान पर हैं उनकी कोशिश रहती है कि उनके नायकों को नई चमक-दमक, नए आभामंडल के साथ पेश किया जाए. यह उनके वर्तमान को नई ताकत देता है. इनको राजनैतिक संरक्षण भी मिल जाता है. यह पैंतरेबाजी हर पार्टी करती आई है.’’

डिजिटल दौर में नायकों को केंद्र में रखकर शुरू हुए आंदोलन सिर्फ सड़क तक सीमित नहीं हैं. ये साइबर स्पेस में भी आ गए हैं, जिसका प्रभाव क्षेत्र बड़ा और टिकाऊ है. यही वजह है कि हाल के दौर में इस किस्म के आंदोलन ज्यादा बड़े और तीखे होते दिखाई दे रहे हैं.

उत्तर भारत में सबऑल्टर्न नायकों के महिमामंडन की शुरुआत बामसेफ और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने की. उत्तर प्रदेश में बसपा जब सत्ता में आई तो दलित नायक-नायिकाओं के किस्से आम होने लगे. झलकारी बाई, बिजली पासी, उदादेवी जैसी तब तक अल्पज्ञात दलित आइकॉन की मूत्रि़यां राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल जैसे सार्वजनिक पार्कों में स्थापित की गईं.

अपने मतदाताओं को रिझाने का बसपा का नुस्खा काफी हद तक कारगर रहा. देशभर में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की चिर परिचित मुत्रियां लगाई जाने लगीं. उन्हें तोड़ने-फोड़ने की घटनाएं भी आम होने लगीं. लेकिन नायक-नायिकाओं के जरिए दलितों का काफी हद तक सशक्तीकरण हो गया. 

अब यह प्रक्रिया प्रभावशाली जातियों में भी साफ देखी जा रही है. परशुराम जयंती, महाराणा प्रताप जयंती जैसे मौके सवर्ण जातियों के लिए ताकत की नुमाइश का जरिया बन गए हैं. यह ताकत की नुमाइश ही वह तुरुप का इक्का है जिसके जरिए जातियां और उनके नेता राजनैतिक सौदेबाजी करते हैं.

नायकों को जातिगत खांचे में बांटने की कवायद उन पार्टियों के लिए मुफीद है जिनका बड़ा जनाधार एक जाति या समूह से आता है. बीटीपी के लिए राणा पुंजा, सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी के लिए राजा सुहेल देव या महान दल के लिए सम्राट अशोक के इर्द-गिर्द जातिगत लामबंदी फायदे का सौदा है.

ऐतिहासिक नायक-नायिका इस देश के हैं, किसी समुदाय-जाति विशेष के नहीं. जातिगत लामबंदी के अपने फायदे हो सकते हैं लेकिन इस देश में पहले ही बहुत ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनैतिक फॉल्टलाइन हैं. बेहतर होगा कि सियासी पार्टियां वोट की खातिर उन्हें न उभारें क्योंकि यह मुल्क पहले ही बहुत विभाजनकारी मुद्दों से जूझ रहा है.    

—साथ में पुष्यमित्र.

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