
कोविड-19 की तुलना अक्सर स्पेनिश फ्लू से की गई है, जिसमें 1918 से 1920 के बीच करीब 5 करोड़ लोग मारे गए थे. उस फ्लू की एक मनहूस खासियत संक्रमण की एकाधिक विनाशकारी लहरें थीं, कुछ उसी तरह जैसे कोरोनावायरस के मामले में देखा जा रहा है. इस साल फरवरी में जब यूरोप कोविड-19 के मामलों की दूसरी जबरदस्त लहर की चपेट में था, भारत अपनी पीठ थपथपा रहा था.
यह सोचकर कि उसने वायरस पर काबू पा लिया है और 2020-21 की पहली छमाही में मंदी झेलने के बाद देश आर्थिक बहाली की राह पर है. मध्य मार्च आते-आते वह उजला आशावाद झूठा साबित हुआ, जब भारत में भी कोविड के मामले एक बार फिर उछाल भरने लगे. 20 अप्रैल को भारत में महज 24 घंटों के भीतर 2,59,000 नए मामले और 1,761 मौतें दर्ज की गईं.
कई राज्य सरकारें अब सार्वजनिक आवाजाही पर पाबंदियां लगा रही हैं. (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20 अप्रैल को नए राष्ट्रीय लॉकडाउन लगाने की बात नकार चुके हैं) ऐसे में कई लोग पूछ रहे हैं कि भारत की नाजुक आर्थिक बहाली पर इसके क्या नतीजे होंगे. इसमें कोई शक नहीं कि स्वास्थ्य सर्वोपरि है. अब भी कमजोर मेडिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर से लडख़ड़ाती हुई केंद्र और राज्य सरकारें जिंदगियां बचाने की जद्दोजहद में लगी हैं. वहीं लॉकडाउन की आर्थिक कीमत समझी जा चुकी हैं और इसे लागू करना बहुत सख्त विकल्प होगा.
पिछले साल भारत ने दुनिया का एक सबसे कठोर लॉकडाउन लगाया था, ताकि चिकित्सा के बुनियादी ढांचे को पराजित होने से बचाया सके और राज्य तथा निजी क्षेत्र को वायरस से निपटने के लिए चिकित्सा क्षमताएं बढ़ाने का वक्त मिल सके. इसका नतीजा यह हुआ कि भारत 40 सालों में अपनी पहली मंदी में धंस गया और वित्त वर्ष 2021 की पहली और दूसरी तिमाहियों में जीडीपी ग्रोथ ढहकर क्रमश: -23.9 और -7.5 फीसद पर आ गई.

इसकी मानवीय कीमत में लाखों नौकरियों का जाना भी शामिल था. प्यू रिसर्च सेंटर का 18 मार्च का एक विश्लेषण अनुमान जाहिर करता है कि भारत के मध्य वर्ग यानी रोज 10-20 डॉलर (750-1,500 रुपए) कमाने वालों की तादाद 2020 में 3.2 करोड़ घट गई. वहीं भारत के गरीबों (2 डॉलर या 150 रुपए या उससे भी कम कमाने वालों) की तादाद 7.5 करोड़ बढ़ गई.
सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआइई) का कहना है कि पिछले साल अप्रैल और सितंबर के बीच 1.9 करोड़ वेतनभोगी अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठे, जबकि एसकेओसीएच या स्कॉच ग्रुप के सर्वे का अनुमान है कि जून 2020 के आखिर तक एसएमएमई (सूक्ष्म, छोटे और मध्यम उद्यमों) में 2.5-3 करोड़ लोगों की नौकरियां चली गईं. दरकिनार समूहों के लिए कार्यरत एनजीओ ऐक्शनऐड इंडिया का डेटा कहता है कि पिछले साल लॉकडाउन के चलते अनौपचारिक क्षेत्र के 80 फीसद कामगार अपने काम-धंधे गंवा बैठे.
एक अनियोजित लॉकडाउन के परिणाम देख चुके नीति निर्माता अब इसे अंतिम उपाय के रूप में अपनाने के सिवाय लागू करने के प्रति अनिच्छुक दिखे. 20 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय लॉकडाउन से इनकार करते हुए कहा कि ये आखिरी विकल्प होना चाहिए और राज्य सरकारों से अपील की कि वे बुरी तरह प्रभावित जिलों के लिए माइक्रो कंटेनमेंट रणनीति अपनाएं. केंद्र आगे बढ़कर औद्योगिक समूहों के पास भी पहुंचा और उन्हें भरोसा दिलाया कि राष्ट्रीय लॉकडाउन लगाने पर विचार नहीं किया जा रहा है. 18 अप्रैल को एमएसएमई इकाइयों के मालिकों के साथ बैठक में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि वायरस को फैलने से रोकने के लिए कंटेनमेंट जोन बनाने पर ध्यान दिया जाएगा.
भारतीय उद्योग जगत के लोग भी पूर्ण लॉकडाउन के खिलाफ हैं. सीआइआइ (कनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री) के 710 सीईओ के एक हालिया सर्वे ने बताया कि उनमें से 93 फीसद आंशिक लॉकडाउन के खिलाफ थे. उनमें से तीन-चौथाई ने कहा कि औद्योगिक उत्पादन पर इसका अच्छा-खासा असर पड़ेगा और इसके बजाय सुरक्षा नियमों का सख्ती से पालन करवाना चाहिए.
उद्योग की संस्था फिक्की ने 25 राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर किसी भी किस्म के लॉकडाउन से बचने का आग्रह किया और कहा कि कोविड की शृंखला को ज्यादा टेस्ट, ज्यादा अमल और जन जागरूकता अभियानों के जरिए तोड़ना चाहिए. वर्ल्ड बैंक ग्रुप के चीफ इकॉनोमिस्ट कारमेन रेनहार्ट ने हाल के एक इंटरव्यू में कहा कि भारत सरीखे विकासशील देशों के लिए कठोर लॉकडाउन कोई उपाय नहीं है और ‘‘कुछ लचीलेपन की मोहलत देने वाली कम कठोर (वायरस प्रबंधन नीतियों)’’ का सुझाव दिया.
भारत के जीडीपी में करीब 15 फीसद का योगदान देने वाले महाराष्ट्र ने, जहां नए कोविड मामले देश में सबसे ज्यादा हैं, अभी तक सबसे कठोर उपाय लागू किए हैं. सप्ताहांत में लॉकडाउन और रात के कर्फ्यू के साथ अप्रैल के आखिर तक गैर-अनिवार्य सेवाएं बंद कर दी गई हैं. 14 अप्रैल से महाराष्ट्र में 1 मई तक पूर्ण कर्फ्यू लगा दिया गया है, जिससे केवल अनिवार्य सेवाओं और निर्यात इकाइयों को छूट दी गई है.

17-18 अप्रैल को सप्ताहांत कर्फ्यू के बाद दिल्ली में 19 अप्रैल की शाम से सप्ताह भर लंबा कर्फ्यू शुरू हो गया, जबकि पड़ोसी उत्तर प्रदेश ने 17 अप्रैल से 35 घंटे के कर्फ्यू का ऐलान किया. भोपाल, इंदौर और बेंगलूरू सरीखे कई शहरी केंद्रों के स्थानीय प्रशासनों ने कर्फ्यू लगा दिए.
इस बार कर्फ्यू से लक्ष्यबद्ध छूट दी गई है. महाराष्ट्र ने अनौपचारिक क्षेत्र के सबसे बड़े रोजगार प्रदाता निर्माण क्षेत्र के कार्य जारी रखे हैं (अगर कामगार निर्माण स्थल पर ही रह रहे हों और उन्हें प्राथमिकता के आधार पर टीका लगाया गया हो). महाराष्ट्र से आने और जाने वाले ट्रकों की आवाजाही कर्फ्यू के बाद आधी रह गई है, जिसका असर फल, सब्जियों और कच्चे माल सरीखी जरूरी चीजों की ढुलाई पर पड़ा है. ट्रांसपोर्ट कंपनियां ड्राइवरों की कमी बता रही है, जब लोग कोविड के डर से राज्य छोड़कर जा रहे हैं.
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि वित्त वर्ष 2021-22 के आंकड़ों का अनुमान लगाना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन वे बताते हैं कि अगले कुछ महीने बेहद अहम होंगे. शीर्ष ब्रोकरों ने मोटे तौर पर 1 फीसद की चपत लगने का अनुमान जताया है. केयर रेटिंग्ज के चीफ इकॉनोमिस्ट मदन सबनवीस कहते हैं, ''(अगर पाबंदियां जारी रहीं) ग्रोथ 10 फीसद से भी नीचे गिर सकती है.’’ (जीडीपी ग्रोथ पिछले साल के आंकड़े मंस बदलाव के रूप में आंकी जाती है.
नाम भर के लिए ऊंची दर—10 फीसद—पिछले साल के निचले आधार का नतीजा है, मजबूत वृद्धि का नहीं.) शेयर बाजार पहले ही दहशत में मालूम देते हैं. सेंसेक्स 12 अप्रैल को 1,707.94 अंकों की भारी गिरावट का शिकार हुआ, जो 26 फरवरी के बाद इसकी सबसे बड़ी गिरावट थी. फरवरी के आइआइपी (औद्योगिक उत्पादन सूचकांक) के आंकड़े भी छह महीनों से सबसे निचले स्तर -3.6 फीसद पर आ गए, जो बताते हैं कि भारत की आर्थिक बहाली कितने नाजुक दौर में है.
फोर्ब्स मार्शल के चेयरमैन नौशाद फोर्ब्स ने एक हालिया इंटरव्यू में कहा, ''महाराष्ट्र में तमाम गैरजरूरी चीजों की बंदी अगर 1 मई तक ही जारी रहती है, तो यह (बहुत ज्यादा) नुक्सानदेह नहीं होगी. उपभोक्ता शर्ट या टीवी की खरीदारी तीन हफ्तों के लिए बस टाल भर रहे होंगे. लेकिन अगर यह 1 मई के बाद भी जारी रहती है तो नतीजे कहीं ज्यादा बड़े होंगे.’’

आइसीआरए में चीफ इकॉनोमिस्ट अदिति नैयर कहती हैं, ‘‘धारणाओं के बिगड़ने के साथ 2022 के वित्त वर्ष के पहले आधे हिस्से में मांग में कुछ कमी आ सकती है और साल के पहले हिस्से की कुछ मांग साल के दूसरे हिस्से में जा सकती है.’’ आइसीआरए ने वित्त वर्ष 2022 में भारत की जीडीपी ग्रोथ के करीब 10-10.5 फीसद रहने की उम्मीद जाहिर की है, जो उसके पहले के 10-11 फीसद के अनुमान से कम है.
ईवाइ इंडिया के पॉलिसी एडवाइजर डी.के. श्रीवास्तव कहते हैं कि पहली तिमाही के वृद्धि के अनुमान घटाकर कम करने पड़ सकते हैं, जिससे वित्तीय साल 2021-22 के समग्र पूर्वानुमान भी कम हो जाएंगे. वे कहते हैं, ‘‘भारत में वैक्सीन का (राष्ट्रीय) वितरण अभीष्ट से बहुत कम साबित हो रहा है. हम उम्मीद करते हैं कि वैक्सीन की जरूरत अगले पांच सालों तक बनी रहेगी. इसे दुरुस्त करना बेहद जरूरी है.’
पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग का अनुमान है कि इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही की वृद्धि 2019-20 के वित्त वर्ष से भी कम रहेगी. वे कहते हैं, ''हमें रोज 4,00,000 केसों के लिए तैयार रहना चाहिए.’’ जहां हाई फ्रीक्वेंसी या उच्च आवृत्ति संकेतक तत्काल चिंताजनक नहीं हैं, वहीं कुछ संकेतक खुदरा आवाजाही (स्टोर और मनोरंजन स्थलों पर आने वाले उपभोक्ताओं की तादाद) में गिरावट दिखा रहे हैं. उम्मीद है कि कृषि एक बार फिर अकेला उजला आर्थिक क्षेत्र साबित होगा, जिसकी वृद्धि 2021-22 में 3.5 फीसद रहने का अनुमान है.
सच यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान संक्रमणों की दूसरी लहर के लिए कतई तैयार नहीं थे. पिछले साल की पहली पूर्णबंदी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था खासी तेजी से खुली और मॉल, जिम के साथ धार्मिक मेलों तथा राजनैतिक रैलियों सरीखी गतिविधियों के ऊंची जोखिम वाले क्षेत्रों से पाबंदियां हटाई जा रही थीं. ऐसे में मास्क लगाने के अनुशासन में ढिलाई आ गई जबकि वैक्सीन की शुरुआत गड़बड़ा गई. दि न्यूयॉर्क टाइम्स का अनुमान है कि इजराइल की करीब 56 फीसद आबादी को पूर्ण टीका लग गया है जबकि भारत में यह 1.3 फीसद है. नई मेडिकल और आर्थिक दहशत को रोकने के लिए टीकाकरण बेहद अहम है.
कोटक महिंद्रा एसेट मैनेजमेंट के एमडी नीलेश शाह कहते हैं, ''आर्थिक गतिविधियों पर अभी तक बुरा असर नहीं पड़ा है. लेकिन सब कुछ वैक्सीन लगने और क्षेत्रीय लॉकडाउन पर निर्भर करेगा. अगर कोविड पर तेजी से काबू पा लिया जाता है, तो अर्थव्यवस्था बाल-बाल बच निकलेगी. अगर लंबे या बड़े लॉकडाउन लगते हैं, तो हम जून 2020 की तिमाही दोहराई जाती देखेंगे. हमारे लिए अप्रैल के आखिर तक (नए मामलों को सख्ती से रोकना) जरूरी है.’’
सरकारी सूत्रों का कहना है कि मई या जून के आखिर तक वैक्सीन की इतनी कमी नहीं रह जाएगी. सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया महीने में 7 करोड़ और भारत बायोटेक 1 करोड़ वैक्सीन बनाएगी और 5 करोड़ रूस की स्पुतनिक वैक्सीन के साथ महीने में कुल 13 करोड़ या जून तक 30 करोड़ के आसपास वैक्सीन होंगी. वितरण के लिए प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के लिहाज से शाह हॉटस्पॉट के लोगों को पहले वैक्सीन लगाने का सुझाव देते हैं.
जहां तक वित्तीय जवाब की बात है, केंद्र की खर्च की क्षमता में फिलहाल सुधार आया है. पिछले साल भारत के कर संग्रह बजट अनुमान से बेहतर रहे. मार्च 2021 में माल और सेवा कर (जीएसटी) संग्रह 1.23 लाख करोड़ रुपए रहा जो जीएसटी आने के बाद सबसे ज्यादा था. मगर जल्द किसी केंद्रीय राहत पैकेज की उम्मीद कम ही लोग कर रहे हैं. सबनवीस कहते हैं, ''जब तक पूर्ण लॉकडाउन (केंद्र की तरफ से) नहीं होता, (केंद्रीय) राहत का कोई सवाल ही नहीं है.’’
वे यह भी कहते हैं कि राहत के खर्चों के लिए राज्य सरकारों की क्षमताएं अलग-अलग हैं, ''महाराष्ट्र सरीखे राज्य का बजट ज्यादा बड़ा है, लिहाजा 5,500 करोड़ रुपए चुकाना कोई बड़ा मुश्किल नहीं है. दूसरे राज्यों को ऐसे उपाय मुश्किल लग सकते हैं.’’ ज्यादातर राज्य पहले ही भारी उधारियां ले रहे हैं. केयर रेटिंग्ज के मुताबिक, 2021 के वित्तीय साल में 28 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों ने कुल 7.98 लाख करोड़ रुपए उगाहे, जो 2022 के वित्तीय साल के 6.35 लाख करोड़ रुपए से 26 फीसद ज्यादा थे. 2021-22 की पहली तिमाही में महाराष्ट्र पर सबसे ज्यादा 25,000 करोड़ रुपए का कर्ज माना जाता है.
लॉकडाउन से वाकई फायदा उठाने वाला ई-कॉमर्स है, जिसमें पिछले साल बड़ी वृद्धि देखी गई. मगर जब महाराष्ट्र सरीखे राज्य गैरजरूरी वस्तुओं की ढुलाई पर भी पाबंदियां लगा रहे हैं, ऑनलाइन बिक्री भी दबाव में है. कुछ मैन्यूफैक्चरिंग फर्म बेहतर ढंग से तैयार हैं क्योंकि कामगार उनकी फैक्ट्रियों के परिसरों में ही रह रहे हैं.
फेडरेशन ऑफ इंडियन माइक्रो, स्मॉल ऐंड मीडियम एंटरप्राइजेस (एफआइएमएसएमई) के बोर्ड सदस्य और सोनीपत हरियाणा के राय औद्योगिक क्षेत्र के प्रेसीडेंट राकेश छाबड़ा कहते हैं, ''हमने अपने 50-60 फीसद कामगारों के फैक्ट्रियों में ही रह सकने का इंतजाम किया है, ताकि उत्पादन न रुके. हमने टेस्टिंग भी खुली रखी है और हर हफ्ते टीका शिविर लगा रहे हैं.’’
आने वाले हफ्तों में सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि भारत कितनी तेजी से मेडिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करता है और टीके कितने असरदार ढंग से लगाए जाते हैं. केंद्र को राज्यों के साथ तालमेल बनाकर रोजगार सुरक्षा जाल भी बनाने पड़ेंगे. भारत को एक और आर्थिक धक्का गवारा नहीं.
आर्थिक दुष्प्रभावों के डर से केंद्र सरकार राष्ट्रीय लॉकडाउन लगाने के प्रति उत्सुक नहीं दिख रही है
50 से 60 फीसदी कर्मचारी अब हमारी फैक्ट्री में ही रह सकते हैं. ऐसे में उत्पादन बाधित नहीं हुआ है.
—राकेश छाबड़ा, प्रेसिडेंट, राई इंडस्ट्रियल एरिया, सोनीपत और सदस्य, एफआइएमएसएमई बोर्ड
कोविड पर अगर जल्द काबू पा लिया गया तो हम बड़े आर्थिक नुक्सान से बच जाएंगे. अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम जून 2020 जैसी तिमाही फिर देख सकते हैं.
—नीलेश शाह, प्रबंध निदेशक, कोटक महिंद्रा एसेट मैनेजमेंट

