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आवरण कथाः निजीकरण का आखिर क्या है मंत्र

2021-22 के बजट में विनिवेश की जैसी मंशा सरकार ने दिखाई है, इससे पहले ऐसा कभी देखने को नहीं मिला. पर अर्थव्यवस्था को खाई से निकालने का यही अगर नया मॉडल है तो इसे कर दिखाना इतना आसान भी नहीं.

निजीकरण
निजीकरण

केंद्रीय बजट
विनिवेश

साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई थी, उसका एक ज्यादा यादगार नारा था 'न्यूनतम सरकार, अधिकतम राजकाज’ (मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस). यह नारा दरअसल सरकार का आकार-प्रकार और उसके कामकाज के उपक्रम घटाने का संकल्प था. इस मामले में खासकर एक क्षेत्र में उसके पास दिखाने को ज्यादा कुछ नहीं है और वह है सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) का विनिवेश.

हालांकि उसने 2014-15 से ही वक्त-वक्त पर कुल 6.57 लाख करोड़ के महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए, पर वे पूरे कम ही हुए और 2020-21 तक कुल 4.04 लाख करोड़ रुपए ही हासिल किए जा सके. बीते वित्तीय साल के आंकड़े तो खास तौर पर निराशाजनक हैं, जब 2.1 लाख करोड़ रुपए के लक्ष्य के विरुद्ध महज 31,000 करोड़ रुपए का ही विनिवेश राजस्व जुटाया जा सका.

इस सबके बावजूद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का 2021-22 का बजट इस प्रतिबद्धता को फिर दोहराता है. यही नहीं, आर्थिक उछाल और कर राजस्व दोनों के मामले में संभावनाएं नरम देखते हुए सरकार उम्मीद कर रही है कि वह बड़े विनिवेश से मिली रकम से आर्थिक बहाली के नए दौर को साकार करेगी. इस कोशिश में विनिवेश और सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग (डीआइपीएएम) प्रमुख भूमिका अदा करेगा.

बिकने को तैयार
बिकने को तैयार

इसका काम विनिवेश की कतार में लगे कुछेक सौ सार्वजनिक उपक्रमों को ऐसा बनाना है कि वे निवेशकों को आकर्षक दिखें. गैर-कर संसाधनों पर सरकार की निर्भरता को देखते हुए इस विभाग के कंधों पर एक मुश्किल काम आ पड़ा है. जरूरत को वरदान में बदलते हुए, वित्त सचिव और इस बजट के वास्तुशिल्पियों में से एक अजय भूषण पांडेय कहते हैं, ‘‘सवाल था कि धीमे-धीमे चलने का नजरिया अपनाएं या ऊंची छलांग लगाएं. यह बजट भविष्य में एक ऊंची छलांग है. योजना (सार्वजनिक क्षेत्र की) संपत्तियों को मुद्रा में बदलने की है; सरकार को केवल सहयोग देने का काम करना चाहिए.’’

विनिवेश के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए जिम्मेदार डीआइपीएएम के सचिव तुहिन कांत पांडेय कहते हैं, ‘‘भारत ऐसी स्थिति में है जहां उसे पीएसयू की बिक्री को लेकर कम भावुक होना चाहिए. इसके लिए निजी क्षेत्र की तरफ से जोश और उत्साह की जरूरत पड़ेगी, हम चाहते हैं कि ज्यादा लोग प्रतिस्पर्धा करें.’’ उनका इशारा बेशक मोदी सरकार के विनिवेश कार्यक्रमों के प्रति निजी क्षेत्र की अब तक फीकी प्रतिक्रिया की तरफ है. सांसद और वित्त मामलों की स्थायी समिति के अध्यक्ष जयंत सिन्हा मौजूदा परिप्रेक्ष्य में इस बिक्री की जबरदस्त अहमियत का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘‘यह सार्वजनिक संपत्तियों के विनिवेश और निजीकरण का निर्णायक क्षण है.’’

साल भर में कितना सौदा
केंद्र सरकार ने 2021-22 के लिए विनिवेश, निजीकरण और संपत्तियों के मौद्रिकीकरण से 1.75 लाख करोड़ रुपए का राजस्व जुटाने का लक्ष्य रखा है. हालांकि बीते दो साल में इस दिशा में उसकी कोशिशें हौले-हौले ही आगे बढ़ी हैं. केंद्र बीपीसीएल (भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड) के विनिवेश की समय सीमा कई बार आगे बढ़ा चुका है. एयर इंडिया में हिस्सेदारी की बिक्री के लिए अंतिम समय सीमा कई बार आगे बढ़ाने के बाद ही सरकार को बोलियां मिलीं.

निजी पूंजी की युक्तियां
निजी पूंजी की युक्तियां

वित्त मंत्री ने कहा है कि इन कंपनियों के साथ शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, आइडीबीआइ बैंक, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड, पवन हंस और नीलांचल इस्पात निगम सहित दूसरी कंपनियों का विनिवेश 2021-22 में पूरा कर लिया जाएगा. 2021-22 में सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों और एक सामान्य बीमा कंपनी के निजीकरण का काम भी हाथ में लेगी. इनके लिए विधायी संशोधन संसद के मौजूदा सत्र में ही लाए जा रहे हैं.

सरकार ने यह भी कहा है कि वह बस इने-गिने रणनीतिक क्षेत्रों में ही अपनी मौजूदगी बनाए रखेगी. इनमें एटमी ऊर्जा, अंतरिक्ष और रक्षा, परिवहन और दूरसंचार, बिजली, पेट्रोलियम, कोयला और अन्य खनिज तथा बैंकिंग, बीमा और वित्तीय सेवाएं शामिल हैं. विनिवेश के अगले दौर के लिए सार्वजनिक उपक्रमों की सूची तैयार करने का काम नीति आयोग को सौंपा जाएगा.

इस मामले में मोदी सरकार के सामने अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली भाजपा सरकार के अपनाए गए विनिवेश उपायों का अच्छा मॉडल मौजूद है. वाजपेयी सरकार 1998 और 1999-2004 के बीच सीपीएसई (सार्वजनिक क्षेत्र के केंद्रीय उपक्रम) के निजीकरण पर आक्रामक जोर देने के लिए जानी जाती थी. उसने 1999 में विनिवेश विभाग का गठन किया, जो 2001 में मंत्रालय बन गया और अरुण शौरी उसके पहले मंत्री बने.

उनकी देखरेख में वीएसएनएल, सेंटौर होटल्स, हिंदुस्तान जिंक और मारुति उद्योग सरीखे कई सीपीएसई को निजी हाथों में सौंपा गया था. इन कोशिशों से वाजपेयी सरकार ने 1998 से 2004 के बीच 36,960 करोड़ रुपए जुटाए थे. हालांकि ये विवादों से अछूते नहीं रह सके और यहां तक कि शौरी को भी उदयपुर के सरकारी स्वामित्व वाले एक होटल की बिक्री मंी कथित अनियमितताओं को लेकर उनके खिलाफ दायर एक मुकदमे से जूझना पड़ा है.

पाले के दूसरी ओर कौन
कुछ लोगों का कहना है कि विनिवेश प्रक्रिया में लाभदायक उद्यमों को नहीं बल्कि उन्हीं उद्यमों को बेचना चाहिए जिन्हें लाभदायक बनाने के लिए उनका प्रबंधन बदलने की जरूरत है. कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ''सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की चाहे जो कमजोरियां हों, वे ऐसी धुरी हैं जिसके चारों तरफ कई सारे कार्यक्रम विकसित और लागू किए गए हैं. थोक के भाव निजीकरण तो कोई जवाब न हुआ.’’

कुछ दूसरे लोगों की राय में, केंद्र की घोषणाओं को शब्दश: नहीं बल्कि थोड़े संदेह के साथ लिया जाना चाहिए. क्रिसिल के चीफ इकोनॉमिस्ट डी.के. जोशी कहते हैं, ‘‘विनिवेश के मोर्चे पर सरकार अब तक बहुत आक्रामक नहीं रही है. मुमकिन है इस साल वह अपनी योजनाएं पूरी कर पाए क्योंकि इनमें से कुछेक के लिए उसने पहले से तैयारी कर रखी है.’’ अहम बात अलबत्ता यह होगी कि सरकार विपक्ष और ट्रेड यूनियनों के संभावित विरोध के आगे विनिवेश कार्यक्रम कैसे लागू करती है. जोशी कहते हैं, ''यह बड़ा कदम है बशर्ते इसे अंजाम पर पहुंचाया जाए. इसे लागू करना ही बड़ी समस्या है.’’

सरकार को सत्तारूढ़ गठबंधन और अपने सहयोगी दलों के विरोध से भी जूझना होगा. आरएसएस से जुड़े संगठन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने विनिवेश कार्यक्रम की आलोचना करने में जरा देर नहीं की. उसने कहा कि ''केंद्रीय बजट में आत्मनिर्भर भारत की खूबसूरत अवधारणा को एफडीआइ (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश) और विनिवेश के साथ मिलाना कर्मचारियों को मायूस करने वाला है.’’ बीएमएस 12 फरवरी से चेन्नै में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की तीन दिवसीय बैठक में तय करेगी कि इन बजट प्रस्तावों का विरोध किस ढंग से किया जाए.

इसी तरह, आरएसएस और आर्थिक क्षेत्र में उससे जुड़े संगठनों के प्रतिनिधि संगठन स्वदेशी जागरण मंच का लंबा इतिहास रहा है जिसमें उन्होंने विनिवेश और एफडीआइ बढ़ाने के प्रस्तावों का तीखा विरोध किया है. असल में, वे अब भी पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और शौरी के आलोचक हैं. मंच के राष्ट्रीय समन्वयक अश्विनी महाजन कहते हैं, ''हम निजीकरण या एफडीआइ के खिलाफ नहीं लेकिन कोई साफ वजह तो होनी चाहिए.’’ वे विनिवेश कार्यक्रम पर राष्ट्रीय बहस के पक्षधर हैं. यह भी कि एफडीआइ से उपभोक्ताओं को कैसे फायदा होगा, साफ-साफ समझाया जाए.

महाजन के शब्दों में, ''हमने पहले ही कह दिया है कि बीपीसीएल, शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया या एयर इंडिया सरीखे उपक्रमों के रणनीतिक विनिवेश की कोई जरूरत नहीं है.’’ बीपीसीएल को मुनाफा देने वाला उद्यम बताते हुए वे कहते हैं कि ऐसी संपत्तियों को शेयर बाजार में उतारना चाहिए और पेशेवर प्रबंधन के हाथों चलाया जाना चाहिए, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के साथ भी इसी तरह निबटा जाना चाहिए. वे इससे सहमत नहीं कि निजीकरण से हमेशा अच्छा प्रबंधन ही आता है. ''पिछले साल निजी क्षेत्र के दो बैंक धराशायी हो गए.’’

आरएसएस के कई नेता भी बड़े पैमाने पर निजीकरण के हक में नहीं. नाम न छापने की शर्त पर उसके एक शीर्ष नेता कहते हैं, ''हम समझते हैं कि व्यवसाय में होना सरकार का काम नहीं. बहुत ज्यादा अफसरशाही के कारण भी निगम पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाते और यह अक्सर भ्रष्टाचार की वजह होता है. (फिर भी) विनिवेश और संपत्तियों के मौद्रिकीकरण में न केवल सावधानी की बल्कि सभी से मशविरे की भी जरूरत है.’’ संघ विचारक और आरबीआइ के बोर्ड से जुड़े सतीश मराठे कहते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रबंधन और कामकाजी ढांचे में सुधार की जरूरत है न कि उनकी मिल्कियत में.
हालांकि भाजपा प्रमुख जे.पी. नड्डा ने केंद्रीय बजट की तारीफ करते हुए इसे 'आत्मनिर्भर भारत’ का बजट बताया, लेकिन पार्टी के कई शीर्ष नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि निजीकरण, संपत्ति मौद्रिकीकरण और निजी पूंजी अच्छा अर्थशास्त्र भले हों, राजनैतिक तौर पर इन्हें लोगों के गले उतार पाना बेहद मुश्किल है. एक नेता ने कहा, ''ज्यादातर विशेषज्ञ यही कहेंगे कि कृषि क्षेत्र के हालिया सुधार अच्छी योजनाएं हैं, इनके पीछे इरादा अच्छा है और इनसे किसानों को लाभ होगा.

लेकिन हमारे लिए इसे उन्हीं लोगों के गले उतार पाना मुश्किल हो रहा है जिन्हें इसका फायदा मिलेगा.’’ भाजपा काडर में आम भावना यही है कि जिन लोगों की अहमियत है उन्हें ही इन प्रस्तावों के फायदे समझा पाने में भारी कमी रह गई है. वही नेता कहते हैं, ‘‘निजीकरण और मौद्रिकीकरण में एक नकारात्मक नैरेटिव खड़ा करने की क्षमता है कि सब कुछ बेचा जा रहा है, देश को बेचा जा रहा है.’’

देखो, ध्यान भटक न जाए
विश्लेषक वृद्धि के इस नए मॉडल यानी लाखों करोड़ रुपए की सरकारी संपत्तियों का मौद्रिकीकरण करने और व्यवसाय तथा संपत्ति निर्माण में सरकार की मौजूदगी घटाने को अर्थशास्त्र के केनेसियन सिद्धांत का अनुगामी बताते हैं, जिसमें खैरात बांटने की बजाए बुनियादी ढांचे के जरिए मांग बढ़ाने पर जोर दिया गया है. इसकी समानता 1980 के दशक के मारग्रेट थैचर के ब्रिटेन से बताई जा रही है, जिसमें आर्थिक वृद्धि को रफ्तार देने के लिए जबरदस्त निजीकरण का अभियान छेड़ दिया गया था.

सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने केंद्र की सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (पीएसई) से जुड़ी नीति की पड़ताल की है और वह इस पर अमल की करीब से निगरानी करेगा. पीएसयू में हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया में बहुस्तरीय स्वीकृतियां शामिल हैं. इससे कई समितियां जुड़ी हैं जिनमें कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली एक समिति और अधिकारप्राप्त मंत्रियों का एक समूह भी शामिल है.

तुहिन पांडेय कहते हैं कि हरेक परियोजना के गुण-दोषों के आधार पर अलग-अलग फैसले लिए जाएंगे क्योंकि हरेक पीएसयू का विनिवेश अलग और अनूठी चुनौतियां लेकर आएगा. केंद्र सरकार जहां निवेशकों को आकर्षित करने की उम्मीद कर रही है, वहीं उसे उन बारीकियों पर ध्यान देगा होगा जिनकी उसने एयर इंडिया की विनिवेश प्रक्रिया में अनदेखी कर दी थी. मसलन, कौन संप्रभु गारंटियां ले सकता है या कौन स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजनाओं के लिए भुगतान कर सकता है, वगैरह.

बैंकरों और निवेशकों से निबटने के लिए सरकारी कर्ताधर्ताओं को व्यवहार कुशलता के कई हुनर भी विकसित करने होंगे. सरकार के साथ काम कर चुके एक निवेश सलाहकार कहते हैं, ‘‘प्रतिफल तो यही है कि कंपनी को अच्छी से अच्छी कीमत पर बेचा जाए, पर सरकार प्रस्ताव के निवेदन की अर्जी देने के लिए किसी को भी आमंत्रित कर लेती है. निवेश बैंकरों से 45 मिनट के प्रेजेंटेशन 15 मिनट में देने को कहा जाता है और जो मानदेय राशि उन्हें दी जाती है वह महज एक रुपया है!’’

एक और मिसाल देते हुए एक फंड मैनेजर 2013 का वह तजुर्बा याद दिलाते हैं जब भारत के सबसे बड़े बैंकों में से एक ने लंदन में एक रोड शो आयोजित किया था. ब्रिटेन के एक अग्रणी फंड के मैनेजरों के साथ बैठक में बैंक के अफसर करीब 45 मिनट तक तो बैंक का इतिहास ही बताते रहे और बैंक के डूबत खाते के कर्ज सरीखे अहम मुद्दे पर चर्चा के लिए वक्त ही न छोड़ा. 

मसलों को तेजी से सुलझाने के लिए अधिकारियों की मानसिकता में आमूल बदलाव लाने और उन्हें ताकतवर बनाने की भी जरूरत है. पांडेय इस बात का भी जिक्र करते हैं कि मुकदमेबाजी किस तरह विनिवेश के एजेंडे को नुक्सान पहुंचा रही है. बीपीसीएल के निजीकरण के मामले में निवेश की योजना से ठीक पहले वेतन के निबटारे और कर्मचारी स्टॉक खरीद योजना के मुद्दों को लेकर अदालतों में मुकदमों का अंबार लग गया था.

दूसरे देश निवेशकों के लिए लाल कालीन बिछाते हैं; भारत में निवेशकों को अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है. इसमें ऊपर से मामूली दिखने वाले मुद्दे भी शामिल हैं, मसलन निवेशकों को भीतर जाने के पास हासिल करने के लिए सरकारी मंत्रालयों के बाहर लंबा इंतजार करना पड़ता है, जिससे सौदे करने में उनकी दिलचस्पी घट जाती है.

मकसद दो, योजना एक
बजट की एक बड़ी घोषणा में रेलवे, हाइवे और बुनियादी ढांचे की सार्वजनिक अवसंरचना संपत्तियों के मौद्रिकीकरण के लिए केंद्र की 'नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन’ का जिक्र किया गया है. फीडबैक इंफ्रा के चेयरमैन विनायक चटर्जी कहते हैं, ''बजट जुगलबंदी की तरह है जिसमें दो हाथ तबला बजाते हैं. एक हाथ सड़कों, बुनियादी ढांचे और लोक निर्माण कामों पर ध्यान केंद्रित करता है, दूसरा संपत्तियों के मौद्रिकीकरण पर.’’ रेलवे और ऊर्जा क्षेत्र में यह जुगलबंदी साफ दिखाई देती है.

इस मामले में, वित्त मंत्री सीतारमण ने भारतीय रेलवे के सुधार के अंग के तौर पर रेलवे की तरफ से विकसित किए जा रहे समर्पित मालढुलाई गलियारों (डीएफसी) के संपत्ति मौद्रिकीकरण की बात कही है. निजी कंपनियों को मालगाडिय़ों का मालिक होने और उनका संचालन करने देने के अलावा, रेलवे ने सहायक कंपनी रेलटेल से भी कहा है कि वह डीएफसी के साथ-साथ फैले 2,800 किमी लंबे ऑप्टिकल फाइबर के मौद्रिकीकरण के तरीकों की पड़ताल करे.

सीतारमण ने बजट भाषण में भारतीय रेलवे के ‘मिशन 2030’ की भी चर्चा की, जिसके तहत बुनियादी ढांचे को उन्नत बनाना और उपभोक्ता सुविधाओं में सुधार लाया जाना है. इसके लिए अगले दशक के दौरान 50 लाख करोड़ रुपए के निवेश चाहिए होगा. इस साल सीतारमण ने रेलवे के लिए 1.1 लाख करोड़ रुपए रखे हैं, जो पिछले साल के 70,000 करोड़ रुपए के आवंटन से 57 फीसद ज्यादा हैं.

यह रकम मौजूदा परियोजनाओं को पूरा करने के अलावा रेलमार्गों के विद्युतीकरण और उत्तरपूर्वी राज्यों तथा जम्मू-कश्मीर में रेलवे नेटवर्क के विस्तार पर खर्च की जाएगी. बजट में नए डीएफसी पर काम शुरू करने की घोषणा भी की गई है. इनमें से एक 1,115 किमी लंबे पूर्व तटीय गलियारे के जरिए पश्चिम बंगाल के खडग़पुर को आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से जोड़ेगा, जबकि दूसरा 935 किमी लंबा मार्ग विजयवाड़ा स्थित बंदरगाह को नागपुर (महाराष्ट्र) और इटारसी (मध्य प्रदेश) से.

पिछले साल केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अगले सात सालों के दौरान 109 मार्गों पर 151 निजी ट्रेनें चलाने की योजना को मंजूरी दी थी. अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो पहली खेप में 12 निजी रेलें मार्च 2023 से चलने लगेंगी. ये ट्रेनें भारतीय रेलवे की 2,800 एक्सप्रेस और मेल ट्रेनों से सीधे प्रतिस्पर्धा करेंगी. अलबत्ता संपत्तियों के मौद्रिकीकरण और मालढुलाई के साथ-साथ सवारियों के लिए भी निजी ट्रेनें चलाने के लिए रेलवे को नियामक नियुक्त करने की जरूरत होगी.

ऐसे एक प्राधिकार के नहीं होने की वजह से इस क्षेत्र में आने वाली कुछ शुरुआती निजी कंपनियों का तजुर्बा अच्छा नहीं रहा है. 2006 में जब तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने मालढुलाई को निजी क्षेत्र के लिए खोला था, तो करीब 6,000 करोड़ रुपए के कुल निवेश के साथ 16 निजी कंपनियां इस क्षेत्र में दाखिल हुई थीं. कंटेनर ट्रेन संचालकों की एसोसिएशन के आंकड़ों से पता चलता है कि 2020 के आखिर तक उन्हें करीब 700 करोड़ रुपए का घाटा उठाना पड़ा. संचालक घाटे की मुख्य वजह बीते 14 सालों में ढुलाई प्रभार का दोगुना हो जाना बताते हैं, जो उनकी परिचालन लागत का 60-70 फीसद होता है.

इस मामले में नियामक की नियुक्ति राजनैतिक रूप से संवेदनशील मुद्दा है और उसे विरासत के कई मुद्दों से निबटना होगा. मसलन, सवारी परिवहन कारोबार भारतीय रेलवे के लिए घाटा देने वाला हिस्सा है. वह अपनी करीब 57 फीसद परिचालन लागत सवारी टिकटों की बिक्री से पूरी करता है और बाकी लागत मालढुलाई की आमदनी के जरिए क्रॉस-सब्सिडी से पूरी की जाती है. नियामक को क्रॉस-सब्सिडियों में कटौती करनी पड़ेगी.

यानी या तो सवारी किराये बढ़ाए जाएं या सब्सिडियों का बोझ सरकारी खजाना उठाए. इसके बावजूद, निजी कंपनियों के आने से कुछ शुरुआती फायदों की संभावना है, जैसे रोलिंग स्टॉक (लोकोमोटिव, कोच, वगैरह) की मांग में इजाफा, क्योंकि निजी फर्म खुद अपने रेलवे यार्ड विकसित करेंगी. कंपनियों के लिए ज्यादा अनुकूल ढांचा न केवल निजी कंपनियों और पूंजी को लाने में मदद करेगा बल्कि उम्मीद है कि इससे रेलवे को अपनी टेक्नोलॉजी को उन्नत बनाने में भी मदद मिलेगी.

वित्त मंत्री ने जब ट्रांसमिशन लाइनों और तेल तथा गैस पाइपलाइन सरीखी ऊर्जा अवसंरचना के मौद्रिकीकरण की केंद्र की मंशा का ऐलान किया, उसके हफ्ते भर पहले ही सरकार की मिल्कियत वाली ट्रांसमिशन कंपनी पावर ग्रिड ने बुनियादी ढांचे से जुड़े अपने पहले ट्रस्ट के लिए मसौदा आइपीओ (इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग) के कागजात दाखिल किए. यह पहली बार है जब सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम ने संपत्ति के मौद्रिकीकरण के लिए ऐसे एक उपकरण का इस्तेमाल किया है.

उम्मीद की जा रही है कि यह ट्रस्ट आइपीओ के जरिए 4,995 करोड़ रुपए जुटाएगा, जबकि इसकी प्रायोजक कंपनी पावर ग्रिड भी इसके जरिए 3,000 करोड़ रुपए की यूनिट बेचने का मंसूबा बना रही है, जिससे कुल अपेक्षित राजस्व करीब 8,000 करोड़ रुपए पर पहुंच जाएगा. सरकार को उम्मीद है कि वह संपत्ति मौद्रिकीकरण से उगाही गई इस रकम से पावर ग्रिड के नेटवर्क का विस्तार करने की योजनाओं को अंजाम दे पाएगी.

ट्रांसमिशन के साथ-साथ नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में कार्यरत निजी कंपनियों के लिए अच्छी खबर विकास वित्त संस्थाओं (डीएफआइ) से जुड़ी है. इस पर कामयाबी से अमल किया जाता है तो डीएफआइ रकम जुटाने के लिए बैंकों और कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार पर इन कंपनियों की निर्भरता को कम कर देगी. इस बीच, जल्द ही लॉन्च की जाने वाली अटल वितरण प्रणाली सुधार योजना, जिसका उद्देश्य बुनियादी ढांचे के निर्माण में वितरण कंपनियों की मदद करना है, कामयाबी के साथ लागू की जाती है तो यह भी निजी कंपनियों के लिए काम करना बहुत आसान बना देगी.

निजीकरण कामयाब बनाने को भारत को बिक्री के तौर-तरीकों पर विचार करना होगा. अपने मंडपों को सजा-संवारकर निवेशकों का स्वागत करना होगा. उसे ऐसा कर दिखाने वाले वालों—प्रबंधन और बैंकरों—को ताकतवर बनाना होगा, उन्हें प्रोत्साहन लाभ देने होंगे. सबसे बढ़कर, उसे सारे हितधारकों को साथ लेकर चलना होगा और चीजों को गतिरोध का शिकार होने से बचाना होगा, जैसा कि नए कृषि कानूनों के मामले में देखा गया. ठ्ठ

''हमारी नीति में विनिवेश का एक साफ-सुथरा रोडमैप दिया गया है. रणनीतिक महत्व के सेक्टरों में भी नितांत सीमित फर्मों को बनाकर रखा जाएगा.’’
निर्मला सीतारमण केंद्रीय वित्त मंत्री

‘‘सवाल इतना-सा था कि धीरे-धीरे बढऩे वाला रवैया अपनाया जाए या फिर बड़ी छलांग लगाई जाए. यह बजट भविष्य की ओर एक लंबी छलांग भरने के बारे में दिया गया स्टेटमेंट है.’’
‘‘भारत अब एक ऐसी स्थिति में है जहां हमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की संप‌त्तियों की बिक्री को लेकर बहुत जज्बाती नहीं होना चाहिए.’’
तुहिन कांत पांडेय सचिव, डीआइपीएएम
 

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