दक्षिण कोलकाता के जोधपुर पार्क में अपने घर के बाहर जब भी किसी कार के रुकने की आहट आती है, 84 वर्षीय स्निग्धा सरकार फौरन बालकनी की ओर दौड़ पड़ती हैं. कैब से किसी अजनबी को उतरता देख, मन मसोसकर वे आसमान की ओर देखने लगती हैं, किसी चील को तब तक उड़ते निहारती रहती हैं जब तक वह बादलों में गुम नहीं हो जाती, इस भ्रम में कि कोई हवाई जहाज हो.
हवाई जहाज देखकर उनकी आंखें चमक उठती हैं क्योंकि इन दिनों आसमान में किसी हवाई जहाज के उडऩे या दूर से किसी रेलगाड़ी के गुजरने की आवाज सुनाई नहीं पड़ती. वे कहती हैं, ''कोविड ने मेरी सेहत पर बुरा असर डाला है. मेरी आंखें तो पहले ही कमजोर थीं, अब ठीक से सुनाई भी नहीं पड़ता. राजेश (सत्पथी, कोलकाता में ट्रिबेका एल्डरली केयर सर्विसेज के मैनेजर) के यह बताने पर मुझे बेहद खुशी हुई है कि अब भारत में हवाई जहाज आने लगे हैं, वरना मुझे चिंता सताती रहती कि मेरी चलाचली की बेला आए तो बाबू (उनका बेटा, जो कनाडा में रहता है) शायद यहां पहुंच ही न पाए.’’
कोविड का सबसे बुरा असर बुजर्गों पर पड़ा है. देश में 16 करोड़ बुजुर्ग हैं, जो देश की 1.3 अरब आबादी में 12 फीसद हैं. 9 जुलाई को केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से पत्रकारों से बातचीत में बताया गया कि अभी तक देश में कोविड से दर्ज 21,129 मौतों में 53 फीसद 60 वर्ष और उससे ऊपर की उम्र वाले हैं और देश में कोविड के शिकार 60 से 74 वर्ष की उम्र वाले 39 फीसद हैं.
बुजुर्गों पर बीमारी का शारीरिक ही नहीं, मानसिक असर भी काफी हुआ है. कोलकाता में मोन फाउंडेशन से जुड़े मनोचिकित्सक अनिरुद्ध देव कहते हैं, ''मौजूदा महामारी महज जीव-वैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं है. इसका मानसिक-सामाजिक असर लंबे समय तक रहने वाला है. आदमी के दिमाग पर कोविड का असर गंभीर चिंता का विषय है.’’
अगर कोई टेक्नोलॉजी से अधिक वाकिफ नहीं है तो सूचनाओं के सैलाब या उसके निपट अभाव की वजह से बुजुर्गों के लिए मौजूदा संकट बेहद भारी है. दूसरों से दूरी बनाए रखने की जरूरत और अकेलेपन से उन्हें बेइंतहा दुदुश्चिंताओं ने घेर लिया है. और किसी भी तरह का मानसिक तनाव, बकौल देव, ''शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बेहद घटा देता है, जिससे कमजोर मानसिक अवस्था वाले बुजुर्गों की हालत खराब होने का अंदेशा बना रहता है.’’
दक्षिण कोलकाता के गोलपार्क इलाके में वेदाज्ञ दंपती उम्र के आठवें दशक में हैं और सामाजिक मेलजोल में काफी सक्रिय रहते हैं. वे अगले साल शादी की 60वीं सालगिरह के आयोजन की योजना बना रहे थे मगर इधर कुछ समय से अकेलेपन और अवसाद से पस्त हैं. हर साल गर्मियों की छुट्टियों में दिल्ली से उनके पास आ जाने वाला उनका पोता दीपू इस साल कोविड की वजह से नहीं आ सका. अब दोनों पोते को सिर्फ वीडियो कॉल के जरिए देखते हैं लेकिन इससे उन्हें और हताशा घेर लेती है.
सोशल डिस्टेंसिंग की वजह से उन्हें अलग-थलग पड़े रहने की भावना गहरे परेशान कर रही है. उनकी रोजमर्रा की जिंदगी थम गई है और दोस्तों, परिजनों, घरेलू नौकरों या मददगार लोगों का उनका सामाजिक नेटवर्क टूटने से वे हैरान और बेचैन-से हैं. दिल्ली में ब्रेन ऐंड फेम क्लिनिक में मनोचिकित्सा सलाहकार डॉ. हर्षित गर्ग कहते हैं, ‘‘हम सबको बिस्तर छोडऩे के लिए कोई वजह चाहिए, चाहे दोस्तों से मिलना हो या सुबह की सैर हो या फिर बगल के बाजार या नाई की दुकान पर जाना हो. जब ये वजहें न रह जाएं तो बुजुर्ग ज्यादा लाचार महसूस करते हैं.’’
सबसे अधिक जोखिम वाले तबके में होने का एहसास उन्हें निरंतर मौत और अकेले मरने के डर में डाल दिया है. हेल्पेज इंडिया के कुछ साल पहले किए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, देश के 40 फीसद बुजुर्ग अपने उम्रदराज जीवनसाथी के साथ अकेले या वृद्धाश्रमों में रहते हैं. यह चिंता भी लगतार बनी रहती है कि वक्त जरूरत पर या अंतिम संस्कार के समय उनके बच्चे उनके पास नहीं होंगे, जो देश के दूसरे हिस्सों या विदेश में रहते हैं.
कोलकाता के दक्षिणी छोर पर कमालगाजी में अपने दृष्टि-बाधित पति कुमार कांति के साथ रहने वाली छवि बागची कहती हैं, ‘‘मैं यही प्रार्थना करती हूं कि मैं अपने पति को तब तक जिंदा रख सकूं, जब तक (मेरा बेटा) आ नहीं जाता.’’ उन्हें उम्मीद है कि सिंगापुर में रहने वाला उनका बेटा जल्दी ही आकर उनकी कुछ जिम्मेदारियां बांट लेगा.
दूसरी ओर, अपने बच्चों के साथ रहने वाले भी लॉकडाउन की जबरन पाबंदियों से कैद जैसी स्थिति से नहीं तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं. देव कहते हैं, ‘‘अति देखरेख और मां-बाप पर अनुशासन लादने का असर भयानक होता है. उम्रदराज लोगों में बात न मानने और नियम तोडऩे की फितरत होती है.’’ इस फितरत से 26 जुलाई को एक त्रासदी हो गई.
कोलकाता में 91 साल के अल्जाइमर रोग से पीडि़त एक व्यक्ति (विशेष आग्रह से नाम जाहिर नहीं किया गया) एक जगह बंद रहने से ऊबकर तड़के घर से बाहर निकल गए और कई घंटे बाद सड़क किनारे मरे पाए गए. देव के मुताबिक, उन्हें रोजाना घबराहट वाले कॉल 30 फीसद बुजुर्गों और 10 फीसद उनके बच्चों से मिलते हैं. बुजुर्गों से कॉल में अक्सर अकेलेपन, दुश्चिंता, पीड़ा और कई बार गाली-गलौज वाले होते हैं.
दिल्ली में फोर्टिस हेल्थकेयर के डिपार्टमेंट ऑफ मेंटल हेल्थ ऐंड बिहैवियरल साइंसेज के डाइरेक्टर डॉ. समीर पारीख कहते हैं कि इसका हल सकारात्मक पारिवारिक वातावरण ही है. ''सबसे पहले तो बुजुर्गों को अपने कमरे में सिर्फ आराम करने और सोने ही जाना चाहिए. बाकी सभी कुछ दूसरे कमरों में होना चाहिए. कुछ वक्त निपट उनके अपने लिए होना चाहिए, जिसमें वे अपनी पसंद के टीवी शो देख सकें.
परिजनों से उन्हें वीडियो कॉल करने को कहें, ताकि वे लगाव महसूस करें. योग या घर में कुछ चहलकदमी उन्हें खुश रख सकती है.’’ लेकिन बुजुर्ग अगर अकेले रह रहे हों और उनके बच्चे उन तक नहीं पहुंच पा रहे हों तब क्या हो? वे कहते हैं, ‘‘जितना जरूरी हो वीडियो कॉल करें. पड़ोसियों या आरडब्ल्यूए या उसी शहर में रह रहे परिजनों से मदद करने को कहें.’’
कोविड के दौर में बुजुर्गों की मानसिक अवस्था को जानने के लिए एक सर्वेक्षण के तहत हेल्पेज इंडिया ने जून में 17 राज्यों और चार केंद्रशासित प्रदेशों में 5,099 लोगों से बातचीत की. सर्वेक्षण में पाया गया कि 61 फीसद लोग एक जगह बंधे हुए और सामाजिक रूप से अलग-थलग महसूस कर रहे थे, जिनमें ज्यादातर की उम्र 60 वर्ष से 69 वर्ष के बीच थी. उनमें कोविड से ग्रस्त होने का डर भी सबसे ज्यादा था. 'हम किसी आपातस्थिति में क्या करें?’ ‘हम रेडियो कैब कैसे बुक कर सकते हैं?’
'हम कोई ऐप कैसे डाउनलोड कर सकते हैं?’ जैसे सवालों की झड़ी बुजुर्गों की देखरेख सेवा चलाने वालों के सामने लगातार लगी रहती है. दूसरे 62 फीसद लोगों ने कहा कि वे मधुमेह, रक्त चाप, दमा और कैंसर जैसी बीमारियों से ग्रस्त हैं जिनमें 42 फीसद की हालत इन तीन महीनों में बिगड़ी है. हेल्पेज इंडिया के गोवा और मुंबई अध्याय के डायरेक्टर प्रकाश बोरगांवकर कहते हैं, ''मुझे बुजुर्ग लोगों के कम से कम दर्जन भर कॉल तो आते ही हैं कि कोई डॉक्टर या चिकित्सा सुविधा मुहैया करा दीजिए.’’ सिर्फ कोविड संक्रमण लग जाने का डर ही नहीं है, दूसरी बीमारियों के इलाज या सर्जरी भी रुकी होने से बुजुर्गों की चिंताएं बढ़ रही हैं. उन्हें डर लगा रहता है कि कोविड नहीं तो और कोई बीमारी लग सकती है.
कई बुजुर्ग आर्थिक दिक्कतों से भी परेशान हैं. हेल्पेज इंडिया के सर्वे के मुताबिक, ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में 65 फीसद लोगों ने अपने रोजगार गंवा दिए हैं. हेल्पेज इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी रोहित प्रसाद कहते हैं कि ग्रामीण इलाकों और कस्बों में बड़ी संक्चया में बुजर्गों को दैनिक मजदूरी के काम अमूमन मिल जाते रहे हैं. खासकर असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूरी पर काम करने वाले अकुशल मजदूरों को लॉकडाउन में बुरी मार पड़ी है.
शहरों में रिटायर लोगों की आमदनी भी घट गई है. मुंबई में 70 साल के प्रकाश नायक कहते हैं कि ब्याज दरें घट गई हैं और उनके कुछ शेयर 80 फीसद तक घट गए हैं. नायक कहते हैं, ‘‘हमारी बड़ी चिंता यह है कि मेडिकल बीमा की किस्त बढ़ रही है. अगर किसी बुजुर्ग को 2 लाख रु. बीमा के लिए 40,000 रु. किस्त देनी पड़े तो आप हालात समझ सकते हैं. कई बुजुर्गों ने किस्त देनी बंद कर दी है. हमने अब भाग्य भरोसे छोड़ दिया है.’’
हालांकि कई लोग मदद का हाथ बढ़ा रहे हैं. बोरगांवकर कहते हैं, ‘‘हम निजी अस्पतालों से आग्रह कर रहे हैं कि बुजुर्गों के लिए घर के दरवाजे पर सेवा शुरू करें.’’ हेल्पेज इंडिया लगातार विभिन्न वृद्धाश्रमों के लोगों के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए बातचीत का आयोजन कर रही है. इसके तहत बुजुर्गों के लिए अंताक्षरी, डांस और योग के अलावा रामायण या महाभारत से सवाल-जवाब के कार्यक्रम होते हैं. 28 अप्रैल को 320 बुजुर्गों और 120 युवा आइटी प्रोफेशनल्स का भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बातचीत का आयोजन किया गया, ताकि युवा और बुजुर्गों के बीच कुछ साझापन हो सके.

ट्रिबेका ने भी स्वास्थ्य संबंधी आपातस्थितियों के लिए 'टॉक टु मी’ पहल शुरू की, जिसके तहत डॉक्टरों और मनोचिकित्सकों के साथ सलाह-परामर्श और घर पर दवा तथा गैस सिलेंडर वगैरह भिजवाने की व्यवस्था है. ट्रिबेका के डायरेक्टर तथा मुख्य अभियान अधिकारी प्रदीप सेन कहते हैं, ‘‘हमारे प्रबंधकों ने बुजुर्गों की सेवा के लिए डिलिवरी बॉय और मनोरंजन करने वालों की तादाद बढ़ा दी है. हम उन्हें सुरक्षित और संतुलित रखने के बीच तालमेल कर रहे हैं.’’
अब चार महीने से ज्यादा हो चले हैं और लोग मास्क पहनने, सैनिटाइज करने, हाथ धोने और दूरी बनाए रखने के आदी हो गए हैं. लेकिन निमहांस की एक रिपोर्ट में जैसा कि डॉ. देवांजन बनर्जी ने कहा कि महामारी के बाद के दौर में खासकर बुजुर्गों में मानसिक सेहत संबंधी मामले बढ़ सकते हैं. हमारे बुजुर्गों के लिए कोविड को हराने की तरह ही अहम है दिमागी लड़ाई को जीतना.

