नए साल में कदम रखने की तैयारी में जुटे हिंदुस्तानी राजनेता का चेहरा एक अजीबोगरीब दानव-सा हो चला था. बीते साल को अपनी आगोश में समेटे जमीनी असंतोष के फैलते गुबार से बेअसर, सत्ता की संवेदनाओं की बंजर जमीन पर पकती आकांक्षा और उत्तेजना की फसल से बेखबर, उसके भीतर आत्मविश्वास आकार ले चुका था.
गलियों-चौराहों पर उबलते गुस्से का एक और दिन, बुरी खबरों से सजे दस्तरख्वान पर मीडिया की एक और दावत, खाने की मेज पर नैतिकता खखारने वालों के लिए चर्चा का एक और दिन...यह सब उसके जाने-पहचाने मंजर थे, और उसे बखूबी पता था कि सवेरा होते ही सब भुला दिया जाएगा. उसे पता था कि इस निर्लिप्त भारत के सनातनी माहौल में उसका राज कायम रहेगा. लेकिन सवेरा होता है, 2013 का पहला सवेरा, और उसकी शक्ल कुछ बदली हुई है.
उसकी आंखों में डर की परछाई है, और सियासी आवाजों के नक्कारखाने में उसके गड्डमड्ड अल्फाज का बेतरतीब शोर उसे डरा रहा है. वह रोजमर्रा की सियासत की अंधेरी सुरंग में इतने गहरे पैबस्त है कि उसे खिड़की से बाहर सड़कों पर फैलता उजाला नहीं दिखता. शायद ऐसी दुनिया की उसे आदत नहीं है. जाहिर है, उसके डरने की वजह जायज है. 2013 में सियासत का अखाड़ा एक ऐसे भारत में बनने जा रहा है जहां उसके नेताओं के सारे दांव पूरी तरह से बेमानी होकर रह जाएंगे.
क्षेत्रीय क्षत्रप और राष्ट्रीय दिग्गज
वे खांटी राजनीति की तात्कालिकता में इतने गहरे धंसे हुए हैं कि भावनाओं के उभार की व्यापकता को नहीं समझ पा रहे हैं. उनके लिए यह वक्त 2014 के आम चुनावों के लिए वही घिसे-पिटे नारे गढऩे का है, जिससे वे अपनी चुकी हुई प्रतिष्ठा पर मुलम्मे चढ़ाने की ख्वाहिश रखते हैं. आप देखिए कि कैसे कुछ बड़ी मछलियों समेत मोटी चमड़ी के छिटपुट नेता सब एक साथ खुद को कद्दावर दिखाने में लग गए हैं और प्रधानमंत्री नाम की केंचुल से अपनी काया को तौल रहे हैं.
राजनैतिक छल के बेहद झीने परदे के पार जरा ध्यान से देखिए कि कैसे तख्त पर बैठाने और तख्त पलटने की साजिशें एक साथ अंगड़ाइयां ले रही हैं. ये सारी कवायद हमारी जानी-पहचानी है, शक या भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. यह दरअसल बदनाम और भ्रम में डालने वालों के बीच की लड़ाई है; यह लड़ाई असली और नकली की है, विरासत में मिलने वाली गद्दी और उसकी छीना-झपटी करने वालों के बीच है. ये लड़ाइयां दरअसल खंडित भारतीय राजनीति के आईने में अपने अक्स के मुकाबले प्रायश्चित्त की घड़ी से ऐन पहले कहीं बेहतर दिखने की चाहत से उपजेंगी. इन सब के लिए यह वक्त साज-शृंगार का है, और ऐसा करने को वे बाध्य हैं.
अपने राज के नौवें साल में चल रही सत्तारूढ़ यूपीए के पास भविष्य की लड़ाई का सिर्फ एक चेहरा है-कभी हलकी बढ़ी दाढ़ी में छुपा तो कभी सफाचट, लेकिन हमेशा कम जाहिर. वैसे भी, खानदानी सियासत में राजीव गांधी के दौर के बाद सियासी असर कभी-भी दिखने या सुने-जाने से नहीं मापा गया. इस साल हालांकि राहुल गांधी को ज्यादा दिखना होगा और बोलना भी होगा, ताकि उन्हें सुना जा सके.
बीतते 2012 की आखिरी घड़ी में नौजवान भारत का गुस्सा साझा करने के लिए भारत की सबसे पुरानी महान पार्टी का युवा वारिस सड़क पर मौजूद नहीं था; इंसाफ और जिंदगी के सम्मान की लड़ाई का हिस्सा होने से उसने इनकार कर दिया. वह जुड़ा भी, तो उसके दिमाग में क्या चल रहा था, यह भारत कभी जान नहीं पाया.
अब चूंकि मां से बेटे तक सत्ता का हस्तांतरण औपचारिकता मात्र रह गया है, लिहाजा कांग्रेस के इस चुने हुए भविष्य को साबित करना होगा कि भारत का भविष्य होने के लायक वह है भी या नहीं. ऐसा होने के लिए उनके पास कोई ऐसा संदेश होना चाहिए जो उनकी पीढ़ी की आकांक्षाओं और उम्मीदों के साथ सुर में हो.
हालांकि राहुल ने अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है. क्या तुरत-फुरत की राजनीति की जरूरत से वह संदेश पैदा होगा? या फिर, 2013 में वे अपनी वैचारिक विरासत की दीवार को तोड़कर हमें चौंकाएंगे? उनके भीतर गांधी का खून है, उन्हें सत्ता में रहने के लिए किसी पद की दरकार नहीं. यह उन्हें एक विशेष किस्म की आजादी मुहैया कराता है. अब तक उन्होंने इस आजादी का चुनावी इस्तेमाल शायद ही कभी किया है.
राहुल चूंकि पार्टी के अगले सबसे बड़े नेता बनने की राह पर हैं, लिहाजा उनका असर राष्ट्रीय स्तर पर मापा जाएगा. आम चुनाव से पहले कुछ छोटी लड़ाइयां राज्यों में भी हैं जहां वे अपने कुलनाम को भुनाने का काम कर सकते हैं, मसलन, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली. उनके साथ तमाम स्वयंभू और सनकी किस्म के लोगों की बैठक होती हो तो भी क्या. इस काम में उनकी मदद को कोई नहीं आने वाला.
सिर्फ विचार ही उनकी मदद कर सकते हैं. उन्हें कुछ विचार चाहिए और जाहिर है प्रधानमंत्री या किसी दूसरे बुजुर्ग से विचार उधार लेना किसी काम नहीं आएगा. जरा कल्पना कीजिए कि राहुल गांधी दिल्ली की अचानक बदनाम हुई मुख्यमंत्री शीला दीक्षित या फिर हमेशा से बदनाम रहे अशोक गहलोत के साथ मंच पर खड़े हैं. सबक? 2013 में जो तूफान उमडऩे वाला है, उससे निबटने का एक ही तरीका है भारत के नेताओं के लिए-अलग हो जाओ या फिर बदनामी झेलो.
कांग्रेस के भीतर कुछ ऐसे नेता हैं जो राहुल के लिए मनमोहन सिंह बनने की ख्वाहिश पाले बैठे हैं. छोटे-छोटे संघर्ष उनके बीच भी देखने को मिलेंगे. उन्हें खुशफहमी है कि 2014 में कांग्रेस अगर बहुमत से कम सीटों के साथ भी सत्ता में आ गई, तो राजकुमार अपनी मां के नक्शेकदमों पर चलते हुए अपना प्रधानमंत्री चुन लेगा और सत्ता की कमान अपने हाथ में रखेगा.
इस साल अगर वे देश का भरोसा जीतने में नाकाम भी रहे तो क्या, कुछ कांग्रेसी नेता कम-से-कम देश के भविष्य यानी राहुल का भरोसा जीतने की कवायद जरूर करेंगे. देखिए, वित्त मंत्री के हावभाव अचानक ही कुछ सुधरे हुए नजर आने लगे हैं. लेकिन उन्हें जल्द ही पार्टी के भीतर से चुनौती मिलने वाली है.
सियासी गलियारे की दाहिनी ओर भी संघर्ष उतना ही जटिल है, जहां भारतीय दक्षिणपंथ के सबसे बड़े दर्शनीय ब्रांड नरेंद्र मोदी का नायकत्व गुजरात की सीमा को पार कर चुका है. बिखरे हुए जनादेश वाले एक राष्ट्र में एक प्रशासक के तौर पर असाधारण कामयाबी के बूते मोदी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा हिलोरे मार रही है. इस उपलब्धि ने उनकी पार्टी के भीतर और खुद मोदी के भीतर उनके संघर्ष को भारत की राजनीति में एक विरल दृश्य में तब्दील कर डाला है. हालांकि भारत के भविष्य के नेता के तौर पर उनकी स्वीकार्यता को उनकी लोकप्रियता से नहीं मापा जा सकता है.
स्वीकारोक्ति बनाम तुष्टीकरण
साल 2013 मोदी के लिए एक मौका है कि वे बीजेपी के मानवीय चेहरे के तौर पर खुद को सामने रखें और मध्यमार्ग की राजनीति करें, जैसा अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था. राजनीति में यह मेकओवर सबसे ज्यादा फायदेमंद साबित होगा और इसके लिए बस इतना करने की जरूरत है कि वे 2002 की बर्बर घटनाओं के लिए माफी मांग लें. यह गलती को स्वीकारने जैसा कुछ नहीं होगा, बल्कि अपना कद बड़ा करने की ओर एक कदम होगा जो उन्हें स्वाभाविक तौर पर बीजेपी का सबसे बड़ा स्वीकार्य नेता बना देगा.
मध्यवर्गीय भारत का दिल जीतने के लिए 2013 में मोदी को बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण पेश करना होगा: जब तक मोदी खुद को नहीं बदलेंगे, किसी भी बदलाव का कोई मतलब नहीं होगा.
बदलाव को आज नया अर्थ दिए जाने की जरूरत है और फिलहाल भारतीय राजनीति के पास इसका कोई तरीका नहीं है. सामाजिक न्याय के तथाकथित ठेकेदार बदलाव की बुनियाद से काफी दूर निकल आए हैं. आज वे क्षेत्रीय सियासत के सौदागर बन कर रह गए हैं, जिनका समर्थन सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले को जाएगा. लेन-देन की यही सनातन राजनीति है जो मायावती, मुलायम सिंह और करुणानिधि जैसे नेताओं को कमोबेश टिकाए हुए है.
सौदेबाजी के ये उस्ताद हैं, और बदला, गठजोड़ या तुष्टिकरण का कोई सौदा कितनी दूर तक जाएगा, यह समझौते की मेज पर उनकी स्थिति से ही तय होगा. उत्तर प्रदेश की सियासत में दोनों सनातन प्रतिद्वंद्वी 2013 में यूपीए की बुरी किस्मत में अपनी गोटियां चमकाने की भरसक कोशिश करेंगे. अपने दूसरे फीके कार्यकाल के बाद मनमोहन सिंह रिटायरमेंट की तैयारी भले कर रहे हों, लेकिन अपनी खोई हुई चमक को थोड़ा ही सही, वापस हासिल करने को वे बेताब हैं. 2013 में उनकी कमजोरी ही दूसरों को सियासी मौके मुहैया कराएगी.
अब सवाल यह है कि टीवी कैमरों के सामने खड़े और भ्रष्ट नेताओं की तरफ उंगली उठाते आखिरी आम आदमी अरविंद केजरीवाल भी कहीं उन्हीं में एक तो नहीं बन जाएंगे? देश का सबसे नया नेता और पिछले साल सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहने वाला यह रुष्ट व्यक्ति नए साल पर कुछ मुरझाया-सा दिख रहा है. नई पीढ़ी के साथ कदमताल करने के लिए उसे मीडिया प्रिय खोजी राजनीति के पार जाना होगा.
ग्राम स्वराज का जो यूटोपियाई विकल्प (आदर्श राज्य या राम राज्य) वे दे रहे हैं, सड़क पर उतरा हुआ गुस्साया नौजवान उसके प्रति असहज है. केजरीवाल के साथ भी किसी दूसरे नेता की तरह ही अप्रासंगिक कर दिए जाने का खतरा लगा हुआ है. सियासत जब पक्के से कच्चे रास्तों की ओर बल खाती है और जब मर्सिए की जगह यहां उत्साह के गीत गाए जाते हैं तो वह एक तरह से मुक्ति का पल बन जाता है.
नए साल की बेरौनक पूर्व संध्या के हैंगओवर के साथ भारत 2013 की यात्रा पर जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, सड़क पर आ चुकी आजादी की लड़ाई में उसके पास सिर्फ एक औजार बचा है और वह है उम्मीद.

