बिहार विधानसभा चुनाव फिर सिर पर हैं. बीजेपी-जेडीयू गठबंधन, कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन और जनसुराज हर मोर्चे पर सक्रिय हैं. सीटों का बंटवारा हो चुका है, नामांकन शुरू हो गए हैं और गठबंधन की रणनीतियां सार्वजनिक हो रही हैं. विकास, सड़क, स्वास्थ्य, बिजली और रोजगार के वादे बड़े जोर-शोर से किए जा रहे हैं. लेकिन इस शोर में एक महत्वपूर्ण मुद्दा नजरअंदाज किया जा रहा है : मैथिली का शास्त्रीय भाषा का दर्जा.
मैथिली भाषा बिहार की सांस्कृतिक और भाषाई धरोहर है. भारत और नेपाल दो देशों में इसे नौ करोड़ से अधिक लोग बोलते हैं. यह साहित्य, पत्रकारिता, शिक्षा, और डिजिटल मीडिया में कायम है. इसकी व्याकरणिक स्वतंत्रता, विस्तृत साहित्य और समृद्ध प्रिंट संस्कृति इसे बिहार की एकमात्र गृहस्थीय भाषा बनाती है.
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि यह भाषा पहले से ही साहित्य अकादेमी में मान्यता प्राप्त है और आठवीं अनुसूची में भी शामिल है. इसके बावजूद, केंद्र ने इसे शास्त्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिया. बिहार सरकार को इसे केवल प्रतीकात्मक मान्यता तक सीमित न रखते हुए, और अधिक प्रभावी और प्रतिष्ठित स्थान देना होगा, ताकि इसकी सांस्कृतिक और शैक्षणिक महत्ता को वास्तव में संबल मिले.
मिथिला का चुनावी महत्व
मिथिला का चुनावी महत्व सिर्फ विकास या कल्याण तक सीमित नहीं है. बिहार में यह क्षेत्र अकेले 100 से ज्यादा विधानसभा सीटें देता है, इसलिए राजनीतिक दृष्टि से निर्णायक माना जाता है. और मैथिली इन सीटों की सांस्कृतिक धड़कन है. इसे नजरअंदाज करना अब केवल भाषा की उपेक्षा नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति में भी बड़ी चूक बन सकता है.
अगर मैथिली को शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिल जाता है, तो शिक्षा, शोध और सांस्कृतिक संरक्षण में केंद्रीय समर्थन मिलेगा. इससे सरकारी और सार्वजनिक जीवन में मैथिली की उपस्थिति मजबूत होगी. साथ ही यह स्पष्ट संदेश भी जाएगा कि बिहार अपनी भाषा और संस्कृति को गंभीरता से मानता है.
राजनीतिक उपेक्षा का इतिहास
राजनीतिक उपेक्षा का इतिहास मैथिली के साथ लंबा और निरंतर रहा है. पहले एक मैथिल मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र ने उर्दू को प्राथमिकता दी और मैथिली को केवल दूसरी भाषा का दर्जा दिया, जिससे इसकी सामाजिक और शैक्षणिक मान्यता सीमित रह गई. बाद में लालू प्रसाद यादव के समय, मैथिली को बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) से हटा दिया गया. इन फैसलों ने भाषा को प्रशासनिक, शैक्षणिक और सरकारी मंचों पर कमजोर कर दिया.
परिणाम यह हुआ कि मैथिली ने अपनी पहचान केवल जनता, साहित्यकारों और विद्वानों की अथक मेहनत, प्रयास और संघर्ष से कायम रखी. राजनीतिक नेतृत्व ने इसे कभी गंभीरता से प्राथमिकता नहीं दी. अब समय आ गया है कि इस लंबी और नुकसानदेह चूक को सुधारा जाए, भाषा को वह मान्यता और सम्मान मिले, जिसकी वह सदा से हकदार रही है.
2025 का चुनाव एक मौका है
आगामी विधानसभा चुनाव एक अवसर है. राजनीतिक दलों को समझना होगा कि सांस्कृतिक पहचान और भाषा का मुद्दा अब केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि चुनावी रूप से भी महत्वपूर्ण है. मिथिला के मतदाता अपनी भाषा, संस्कृति और भविष्य के मुद्दों के प्रति संवेदनशील हैं. ऐसे में चुनावी रणनीति में भाषा और सांस्कृतिक सवालों को शामिल करना न केवल सम्मान की बात है, बल्कि राजनीतिक समझदारी भी.
इसलिए राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे मैथिली को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने का स्पष्ट वादा करें. इसे अपने चुनावी घोषणापत्र और प्रचार अभियान में प्रमुखता से शामिल किया जाए. यह केवल एक सांकेतिक कदम नहीं होगा, बल्कि मतदाताओं के बीच भाषा के महत्व को मान्यता देने जैसा प्रभाव भी डालेगा.
इसके साथ ही, इसे शैक्षणिक और प्रशासनिक ढांचे में शामिल करना जरूरी है. स्कूलों और कॉलेजों में मैथिली को पढ़ाने का व्यापक कार्यक्रम लागू किया जाए. प्रतियोगी परीक्षाओं और सरकारी कार्यालयों में इसकी उपस्थिति सुनिश्चित की जाए, ताकि भाषा केवल जीवित न रहे बल्कि सार्वजनिक और प्रशासनिक जीवन में सक्रिय रूप से उपयोग हो.
मीडिया, पत्रकारिता और सांस्कृतिक संस्थानों में भी मैथिली को बढ़ावा देना आवश्यक है. रेडियो, टीवी, समाचार पत्र और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर इसकी सक्रिय उपस्थिति सुनिश्चित की जाए. यह कदम भाषा को रोज़मर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनाएगा और सांस्कृतिक चेतना को मजबूत करेगा.
साथ ही, विद्वानों, लेखकों और समुदाय के नेताओं के साथ निरंतर संवाद बनाए रखना महत्वपूर्ण है. वादों को केवल शब्दों तक सीमित न रहने दें, बल्कि उनके क्रियान्वयन के लिए ठोस योजना बनाई जाए. यह सुनिश्चित करेगा कि चुनावी वादे वास्तविक कार्यक्रमों में बदलें और मैथिली को उसका उचित स्थान मिले.
अन्य राज्यों से सबक
अन्य भारतीय राज्यों से हमें यह स्पष्ट सीख मिलती है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और लगातार प्रयास से भाषा को शास्त्रीय मान्यता दिलाई जा सकती है. तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलुगु, ओड़िया, पंजाबी और संस्कृत को यह दर्जा इसलिए मिला क्योंकि राज्य सरकारों, राजनीतिक दलों और विद्वानों ने मिलकर लगातार अभियान चलाया और सार्वजनिक समर्थन बनाया.
बिहार में भी यही रणनीति अपनाई जा सकती है. अगर राजनीतिक दल और प्रशासन मिलकर सक्रिय पहल करें, तो मैथिली को भी इसी तरह केंद्रीय मान्यता दिलाई जा सकती है. यह न केवल भाषा और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण होगा, बल्कि बिहार की सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक दृष्टि से भी सही समय पर ठोस कदम साबित होगा.
एक स्पष्ट संदेश
मैथिली हर दृष्टि से एक समृद्ध और संपन्न भाषा है, किसी भी अन्य भारतीय भाषा से कमतर नहीं. यह केवल बिहार की सांस्कृतिक धरोहर नहीं, बल्कि राज्य की पहचान, इसकी आवाज़ और गर्व का प्रतीक भी है. इसे राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लाना अब केवल सांस्कृतिक दायित्व नहीं, बल्कि रणनीतिक जरुरत भी बन गई है. मतदाता इसका ध्यान रख रहे हैं, वे यह देखते हैं कि कौन से दल उनकी भाषा और संस्कृति को गंभीरता से लेते हैं और कौन इसे नजरअंदाज करते हैं.
यह चुनाव बिहार के लिए एक निर्णायक अवसर है कि वह अपनी भाषाई और सांस्कृतिक विरासत को नीति, शिक्षा और प्रशासन में वास्तविक महत्व दे. राजनीतिक दलों के लिए यह स्पष्ट संदेश है कि मैथिली को नजरअंदाज करना अब महंगा साबित हो सकता है.यही मिथिला समेत पुरे बिहार की पहचान और इसकी सांस्कृतिक आत्मा की रक्षा का समय है.
(आशुतोष कुमार ठाकुर बिहार में मधुबनी–जनकपुर के सीमांत इलाके से आते हैं और साहित्य–संस्कृति के अध्येता हैं)