
तारीख थी 21 जून 1991. शुक्रवार का दिन था. सब कुछ बहुत समान्य लग रहा था. डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने करीबी दोस्तों को लंच के लिए घर बुलाया था. अचानक सारे दोस्तों के पास पत्नी का फोन जाता है कि एक बहुत जरूरी काम आ गया है, प्लान कल के लिए टालना पड़ेगा. दोस्त मान गए और TV चलाकर बैठ गए. TV पर नई सरकार के शपथ ग्रहण का लाइव प्रसारण चल रहा था. इसी बीच एक नाम सुनाई दिया और सबके कान खड़े हो गए. एक शख्स वित्त मंत्री की शपथ ले रहा था. उसका नाम था डॉ. मनमोहन सिंह.
देश के अर्थशास्त्र की नई इबारत लिखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अब इस दुनिया में हैं. 26 दिसंबर को AIIMS, नई दिल्ली में 92 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. विभाजन की विभीषिका में अपने दादा की हत्या वाली खबर का टेलीग्राम पढ़ना, पाकिस्तान बनने के बाद परिवार का पलायन देखना, वित्त मंत्री बनकर आर्थिक सुधारों की मूरत गढ़ना और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना. मनमोहन सिंह से जुड़े आज सैकड़ों अफ़साने हैं और सबमें उनका अपना अंदाज है.
जब सदन में सुषमा स्वराज ने पूछा ‘तू इधर उधर कि न बात कर, बता कि काफिला क्यों लुटा’, तो उनका शायराना जवाब था- माना कि तेरे दीद के काबिल नहीं हू मैं, तू मेरा शौक़ देख, मेरा इंतजार देख. बहुत कोशिशें हुईं कि उनपर एक साइलेंट प्रधानमंत्री का लेबल चस्पा कर दिया जाए, लेकिन उनकी सिर्फ एक लाइन इन कोशिशों पर भारी नजर आती है- हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली.
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था, जब मनमोहन सिंह बोलते हैं तो पूरी दुनिया सुनती है, लेकिन उनकी आवाज में ये ताकत कहां से आई, इसकी कहानी एक ऐसे मोड़ से शुरू होती है जहां बड़े-बड़े धुरंधर हिम्मत हार चुके थे. मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितंबर 1932 को उस समय के संयुक्त भारत और आज के पाकिस्तान स्थित पंजाब के झेलम में हुआ. परिवार सामान्य किसान वर्ग से था. छोटी उम्र में ही मां का टायफाइड से निधन हो गया, पिता एक प्राइवेट कंपनी में क्लर्क की नौकरी के लिए पेशावर चले गए. गांव में दादा-दादी ने पालन-पोषण किया. उनकी ही सोहबत में प्राथमिक शिक्षा हासिल की.
देश को1947 में जब आजादी मिली तब मनमोहन 14 साल के थे. उसी समय रावलपिंडी में छिड़े दंगों में दादा की हत्या हो गई. चाचा ने पिता को पत्र लिखा जिसमें सिर्फ 4 शब्द थे- Father Killed, Mother Safe. मल्लिका अहलुवालिया की किताब ‘डिवाइडेड बाय पार्टिशियन एंड युनाइटेड बाय रेजिलिएंस’ में जिक्र मिलता है कि आजादी के दो तीन महीने बाद पिता ने परिवार को उत्तर प्रदेश के हल्द्वानी (उस समय हल्द्वानी उत्तर प्रदेश में था, राज्य के बंटवारे के बाद उत्तराखंड में शामिल हो गया) लाने का फैसला कर लिया, क्योंकि वहां उनके जानने वाले कुछ लोग थे जो शुरुआती दौर में मदद कर सकते थे.
इसी बीच उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, लेकिन हुआ ये कि विभाजन में पंजाब यूनिवर्सिटी भी दो हिस्सों में बंट गई और जो ईस्ट पंजाब यूनिवर्सिटी भारत में रही उसने फरवरी 1948 में फिर से परीक्षाएं कराईं. मनमोहन को परीक्षा के लिए दिल्ली आना पड़ा. बाद में पंजाब यूनिवर्सिटी से ही इकोनॉमिक्स में MA किया. इसी दौरान एक टीचर उनकी प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि PhD के लिए ऑक्सफर्ड जाने की सलाह दी. इसके बाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू किया, यूएन में नौकरी भी की. करियर का ग्राफ थोड़ा और ऊपर चढ़ा जब 1972 में वित्त मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार बने और फिर 1976 में उसी मंत्रालय में सेक्रेटरी बन गए. 1982 में RBI गवर्नर और 1985 में योजना आयोग कि जिम्मेदारी मिली. हालांकि सबसे ज्यादा हैरानी तब हुई जब 1991 में नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री के लिए उनका नाम सामने आया.

पद संभालने के करीब 1 महीने बाद 24 जुलाई को उन्होंने बजट पेश किया, जिसे भारत के इतिहास का सबसे चमत्कारी बजट कहा गया. उस समय अर्थव्यवस्था की हालत कितनी खराब थी इसका जिक्र इंडिया टुडे मैगजीन में 31 जुलाई 1991 के अंक में सुदीप चक्रवर्ती, जफर अगा और शहनाज अय्यर की रिपोर्ट में लिखा गया, “सरकार पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है. वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि भारत पर दुनिया का $70 बिलियन का कर्ज है. घरेलू खर्चों के दबाव में, सरकार हर साल लगभग ₹40,000 करोड़ ज्यादा खर्च कर रही है और इस घाटे को पूरा करने के लिए भारी कर्ज ले रही है या नई करेंसी छाप रही है जिसे बजट घाटा बढ़ रहा है… इन डराने वाले आंकड़ों के पीछे कई कारण हैं; सत्ता-लोलुप नौकरशाही- जो अपना आकार कम करने के लिए तैयार नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र- जो जितना कमाता है, उससे ज्यादा खर्च करता है; एकाधिकारवादी, जो रियायतों और लाइसेंसों पर पले-बढ़े हैं; और ग्रामीण अर्थव्यवस्था, जो सरकारी सब्सिडी पर फल-फूल रही है. वित्त मंत्री इन सभी समस्याओं को खत्म करना चाहते हैं”
नीचे लगे ग्राफ में आप देख सकते हैं कि 1991 में अर्थव्यवस्था का हाल कैसा था. वित्तीय घाटा, उधार, केंद्र सरकार के आंतरिक ऋण और विदेशी कर्ज के कुल बकाया की तस्वीर इससे साफ होती है.

उस दौर में जब भारत निर्यात में बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे था, सरकार के सामने दोहरी चुनौती थी. एक तरफ दिवालिया हो रही अर्थव्यवस्था को संभालना था दूसरी तरफ इन सुधारों से महंगाई बढ़ने का भी अंदेशा था. कंप्यूटर, रसायन और परिवहन से जुड़े उद्योगों की तरफ से कीमतें बढ़ाने की संभावानएं थीं. कोयले के दाम बढ़ने से रेल भाड़े में बढ़ोतरी की संभावना थी और उद्योगों को दी जाने वाली बिजली भी महंगी होने अंदेशा था.
ऊपर से ऐसी बातें भी होने लगी थीं कि अगर मनमोहन सिंह की कड़वी दवाई चुनौतियां खड़ी करती है तो तुरंत उन्हें बली का बकरा बना दिया जाएगा. मनमोहन सिंह शायद जानते थे कि इतनी चुनौतियों से निपटना सुस्त रवैये के साथ संभव नहीं था. वो इस बात को समझ भी रहे थे. इंडिया टुडे मैगजीन में जिक्र मिलता है कि उन्होंने दफ्तर संभालते ही आठ बड़े अधिकारियों के साथ मीटिंग की. ये सभी विभागों के सचिव थे. उन्होंने बड़े शांत भाव से कहा कि मुझे आपकी प्रतिष्ठा और निष्ठा पर पूरा भरोसा है, लेकिन अगर किसी को ये लगे कि वो सरकार की नई नीतियों को लागू नहीं कर सकता तो उसे ये बात बता देनी चाहिए. उन्होंने इस छोटे से वाक्य के साथ अपनी बात खत्म की, “मुझे आप सभी की मदद चाहिए.”
मनमोहन सिंह का काम सिर्फ अधिकारियों को भरोसे में लेने से नहीं चलने वाला था, बल्कि इनमें विपक्ष के साथ-साथ कांग्रेस के नेता भी शामिल थे. उस वक्त के पेट्रोलियम मिनिस्टर बी शंकरानंद से जब वे सरकारी तेल कंपनियों में डिसइन्वेस्टमेंट की बात करने गए तो शंकरानंद ने इन कंपनियों को नेहरू के बनाए ‘मंंदिर’ कहकर अपनी अनिच्छा जाहिर कर दी. प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव खुद कांग्रेस की उस पुरानी पीढ़ी के नेता थे जो मानती थी कि सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुखता बनी रहे और बाजार पर सरकार का पूरा कंट्रोल रहे. हालांकि अपनी रिपोर्ट में सुदीप चक्रवर्ती नरसिम्हा राव के बारे में लिखते हैं, “ऐसा लगता है कि वास्तविकताओं ने इस शख्स को बदल दिया है, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अब उनका पाला ऐसी अर्थव्यवस्था से पड़ा है जो एकदम खस्ताहाल है और इससे उस व्यवस्था की असफलता जाहिर होती है जिसके वे चार दशकों से पक्षधर रहे हैं.”
उस दौर में पुरानी पीढ़ी के कई नेता नई नीतियों के साथ खड़े थे. कृषि मंत्री बलराम जाखड़ ने खुले तोर पर इसका समर्थन किया. मानवसंसाधन मंत्री अर्जुन सिंह भी अपने मंत्रालय से नाखुश बताए जाते थे, लेकिन उन्होंने आर्थिक सुधारों का समर्थन करने का फैसला लिया. ज्यादातर विपक्ष के नेता भी सरकार के साथ थे. भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का कहना था कि वे भी दूसरी पार्टियों की तरह आदर्श रूप में उदारीकरण के विरुद्ध नहीं है. हालांकि वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास जाने के सरकारी तरीके के भी आलोचक रहे. उन्होंने कहा, उन्होंने “बिना किसी हील-हुज्जत के मुद्रा कोष की हर बात मान ली और बातचीत की जरा भी कोशिश नहीं की.”
इसी अंक में शहनाज अय्यर के साथ मनमोहन सिंह का एक इंटरव्यू भी छपा मिलता है, जिसमें पूछा गया कि क्या विपक्ष आपको समर्थन दे रहा है. उनका जवाब था, “हम संकट की स्थिति का सामना कर रहे हैं अनेक मोर्चों पर भारत को नई सोच की जरूरत है. सोच का पुराना तरीका हमें कहीं भी नहीं ले गया है. उलटे हमारी स्थिति बदतर हुई है. 1960 में प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत और दक्षिण कोरिया करीब-करीब बराबरी पर थे. आज कोरिया अमीर देशों के क्लब ‘ओईसीडी' में जाने की बात कर रहा है. आज बाहर ऐसी शक्तियां बैठी हैं जो भारत की मदद करना चाहती हैं. लेकिन वे आश्वस्त हो जाना चाहती हैं कि भारत खुद अपनी मदद करना चाहता है.”
इसके बाद मनमोहन सिंह के करियर में दूसरा सरप्राइजिंग मोमेंट 2004 रहा, जब उनका नाम अचानक प्रधानमंत्री पद के लिए सामने आ गया. सब कुछ सोनिया गांधी के हिसाब से चल रहा था. माना जा रहा था कि वो देश की प्रधानमंत्री हो जा रही हैं, लेकिन सोनिया के फैसले ने तमाम राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणियों को एक झटके में किनारे लगा दिया. वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला, 31 मई 2004 को इंडिया टुडे मैगजीन में छपे अंक में लिखते हैं, “सोनिया की ‘ना’ ने देश को हिलाकर रख दिया. प्रधानमंत्री न बनने का सोनिया का फैसला आधे-अधूरे मन से नहीं लिया गया बल्कि सोच-समझकर उठाया गया रणनीतिक कदम था, जिसने संघ परिवार के हमले की धार कुंद कर बतौर नेता उनका कद बढ़ा दिया."
मनमोहन सिंह के बारे में प्रभु चावला लिखते हैं कि “वे भले ही सोनिया की पहली पसंद हैं, लेकिन पार्टी की दूसरी पसंद हैं. मनमोहन की ताजपोशी की राह में कई लोगों के अहं को धक्का लगा है. ऐसे लोग उस विश्वास को डिगाने का मौका देखेंगे जिसकी वजह से उन्हें यह पद मिला है.” जिन लोगों के अहं को धक्का लगने की बात प्रभु चावला कर रहे हैं उनमें दो नाम प्रमुख थे- प्रणब मुखर्जी और अर्जुन सिंह, लेकिन सोनिया की कप्तानी का नतीजा था कि कोई बड़ी बगावत नहीं हो पाई.
2004 से 2014 तक वे देश के प्रधानमंत्री रहे. वैश्विक मंदी के दौर में भी उनकी नीतियां ढ़ाल बनकर विकास और प्रगति की रक्षा करती रहीं. उनके 10 सालों के दौरान GDP 7.7 के औसत से बढ़ी. मनमोहन सिंह की विदेश नीति का असर था कि भारत अमेरिका के बीच न्यूक्लियर डील हो पाई. मनरेगा जैसी स्कीम उनके ही कार्यकाल में लागू हुई. RTI का कानून, शिक्षा का अधिकार कानून, मंगलयान, Food Security Act ये सब उनकी सरकार की ही देन है.
अभिव्यक्ति के अधिकारों के वे कितने बड़े समर्थक थे, इसका एक उदाहरण 2005 में सामने आता है. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) में मनमोहन सिंह नेहरू की प्रतिमा का लोकार्पण करने गए थे. छात्रों ने उनकी नीतियों का विरोध करते हुए काले झंडे दिखाए और खूब प्रोटेस्ट किया. कई मीडिया रिपोर्ट्स में इसका जिक्र मिलता है कि उस विरोध पर उनके शब्द थे- “मैं हो सकता है आपसे सहमत नहीं हूं, लेकिन आपको अपनी बात रखने का अधिकार है और मैं मरते दम तक इस अधिकार की रक्षा करूंगा.” बाद में कहा जाता है कि खुद PMO की तरफ से फोन गया कि जिन छात्रों ने विरोध किया है उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई न की जाए.
जब भी उन लोगों की सूची बनेगी जिन्हें शायद अपने काम के लिए याद किया जाएगा, तो मनमोहन सिंह का जिक्र शीर्ष के नामों में होगा. इतिहास उन्हें कैसे याद रखेगा, इसपर उनके कहे एक वाक्य की रील्स आज भी वायरल होती है, जिसके शब्द थे- इतिहास मेरे लिए मीडिया से ज्यादा उदार रहेगा. 1991 के बजट में मनमोहन सिंह के आखिरी शब्द थे, "धरती पर कोई भी शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है और दुनिया में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में भारत का उदय ऐसा ही एक विचार है.” मनमोहन अब नहीं रहे, लेकिन उनकी नीतियां उनके इस विचार को साकार करने का दम अब भी रखती हैं.