बिहार: महागठबंधन ने EBC से किए 10 वादे, क्या नीतीश के वोटबैंक में लगेगी सेंध?

महागठबंधन ने ‘अतिपिछड़ा न्याय संकल्प’ के जरिए बिहार के EBC समुदाय के लिए 10 अहम वादे किए हैं

राहुल गांधी (फाइल फोटो)
राहुल गांधी (फाइल फोटो)

24 सितंबर को महागठबंधन ने EBC मतदाताओं को लुभाने के लिए 10 वादे किए. इसे 'अतिपिछड़ा न्याय संकल्प' नाम दिया गया है.

बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले महागठबंधन के वादों को गेमचेंजर माना जा रहा है. अति पिछड़ा वर्ग (EBC) बिहार का एक प्रमुख सामाजिक समूह है, जिसे नीतीश कुमार की JDU का मुख्य वोटबैंक माना जाता है.

इस बार चुनाव से पहले विपक्ष नीतीश कुमार के इसी वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा है. कांग्रेस EBC को अपना मतदाता आधार बनाकर बिहार के चुनावी समीकरणों को बदलना चाहती है.

यही वजह है कि महागठबंधन के ‘अतिपिछड़ा न्याय संकल्प’ के 10 वादों में से एक वादा एससी/एसटी एक्ट की तर्ज पर अतिपिछड़ा अत्याचार निवारण अधिनियम बनाने का है. लेकिन, क्या आपको पता है कि EBC कौन हैं और इनकी आबादी कितनी है, क्या महागठबंधन के वादों का इनपर कोई असर हो सकता है?

अति पिछड़ा वर्ग (EBC) कौन हैं और इनकी कितनी आबादी है?

बिहार में अति पिछड़ा वर्ग (EBC) राज्य के अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) का एक उप-वर्ग है. इनमें सामाजिक और शैक्षणिक रूप से वंचित जातियां शामिल हैं, जिन्हें बिहार सरकार ने OBC समूह की बाकी जातियों की तुलना में ज्यादा पिछड़ा माना है.

बिहार में हाल ही में हुए जाति सर्वे में लगभग 113 जातियों या उपजातियों को अति पिछड़ा वर्ग यानी EBC माना गया है. इनमें पारंपरिक कारीगर, श्रमिक या सेवा समुदाय जैसे हज्जाम (नाई), सहनी, निषाद और केवट (मछुआरे समुदाय), लोहार (लोहार), तेली (तेल व्यापारी) और नोनिया (नमक बनाने वाले) शामिल हैं.

समय के साथ समाज के बदलते आर्थिक स्वरूप के कारण EBC समुदाय की कई जातियां व्यावसायिक रूप से विलुप्त होने के कगार पर है. उदाहरण के लिए कहार (पालकी ढोने वाले) और नालबंद (घोड़े की नाल बनाने वाले) अब आज के समय में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं.

नीतीश कुमार की सरकार ने इन जातियों के हित में कई अहम फैसले लिए हैं. जैसे- सरकारी नौकरियों और न्यायिक सेवाओं में EBC के लिए आरक्षण की सीमा को बढ़ाया. इतना ही नहीं राज्य में अति पिछड़ा आयोग का गठन किया. यही वजह है कि EBC नीतीश कुमार को अपना नेता मानने लगे.

बिहार की 13.07 करोड़ जनसंख्या में EBC 36.01 फीसदी हैं, जबकि OBC (EBC को छोड़कर) 27.12 फीसदी हैं. राज्य का सबसे बड़ा सामाजिक समूह होने की वजह से अब कांग्रेस और महागठबंधन इस समुदाय के वोट में सेंध लगाना चाहती है.

महागठबंधन के ‘अतिपिछड़ा न्याय संकल्प’ में किए गए 10 वादे

इस प्रस्ताव में महागठबंधन की ओर से अति पिछड़ा समुदाय के लिए 10 अहम वादे किए गए हैं. जो इस तरह से हैं-

  • पंचायत और नगर निकाय में आरक्षण 20 फीसदीी से बढ़ाकर 30 फीसदीी करना.
  • आबादी के अनुपात में आरक्षण बढ़ाने के लिए विधानमंडल से पारित कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डालना.
  • नियुक्तियों में 'नॉट फाउंड सूटेबल' (NFS) को अवैध घोषित करना.
  • अल्प या अति समावेशन से संबंधित मामलों को कमिटी बनाकर निपटाना.
  • अति पिछड़ा, एससी, एसटी और पिछड़ा वर्ग के सभी भूमिहीनों को शहर में 3 और गांव में 5 डेसिमल आवासीय भूमि देना.
  • प्राइवेट स्कूल में आरक्षित सीटों का आधा हिस्सा अतिपिछड़ा, एससी, एसटी और पिछड़ा वर्ग के बच्चों को दिया जाएगा.
  • 25 करोड़ रुपये तक के सरकारी ठेकों में अति पिछड़ा, एससी, एसटी और पिछड़ा वर्ग के लिए 50 फीसदीी आरक्षण.
  • निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण.
  • आरक्षण की देखरेख के लिए उच्च अधिकार प्राप्त आरक्षण नियामक प्राधिकरण का गठन किया जाएगा और जातियों की आरक्षण सूची में परिवर्तन केवल विधान मंडल की अनुमति से होगा.
  • एससी/एसटी एक्ट की तर्ज पर अतिपिछड़ा अत्याचार निवारण अधिनियम बनाया जाएगा.

बिहार में जाति आधारित आरक्षण की राजनीति

मंडल आयोग की सिफारिशों के राष्ट्रीय स्तर पर लागू होने से करीब एक दशक पहले बिहार में जाति-आधारित आरक्षण की शुरुआत हुई थी. 1978 में EBC समुदाय से आने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने समाज के सभी पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 26 फीसदी आरक्षण की घोषणा की.

इस व्यवस्था में अति पिछड़े वर्गों (EBC) को 12 फीसदीी, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 8 फीसदीी, महिलाओं को 3 फीसदीी और उच्च जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 3 फीसदीी आरक्षण दिया गया. यह कोटा मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशों पर आधारित थे, जिसने राज्य में 128 पिछड़े समुदायों की पहचान की थी. इनमें से 94 को "अति पिछड़ा" की श्रेणी में रखा गया था.

1990 के दशक में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) सरकार ने अति पिछड़ा वर्ग (EBC) के कोटे का और विस्तार किया. लालू प्रसाद यादव ने अपने कार्यकाल में इसे लगभग 14 फीसदी तक बढ़ा दिया. बाद में राबड़ी देवी ने इसे लगभग 18 फीसदी तक बढ़ा दिया.

2006 में नीतीश कुमार की सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं में अति पिछड़ों के लिए 20 फीसदी सीटें आरक्षित कीं. उनके कार्यकाल के दौरान अति पिछड़ा वर्ग (EBC) आरक्षण का दायरा नगर निकायों और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं तक बढ़ा दिया गया.

2023 में जब JDU-RJD गठबंधन की सरकार बनी तो बिहार विधानसभा ने जाति सर्वेक्षण के निष्कर्षों के अनुरूप, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अति पिछड़ा वर्ग (EBC) के लिए सामूहिक आरक्षण को 50 फीसदीी से बढ़ाकर 65 फीसदी करने वाले विधेयक पारित किए.

अति पिछड़ा वर्ग (EBC) का कोटा 25 फीसदीी तक बढ़ा दिया गया. इस हिसाब से देखें तो इस आरक्षण के लागू होते ही राज्य में कुल आरक्षण 75 फीसदीी तक हो जाता. इनमें से जाति आधारित आरक्षण का कोटा 65 फीसदी और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (EWS) के लिए मौजूदा 10 फीसदीी आरक्षण शामिल होता. हालांकि, जून 2024 में पटना हाईकोर्ट ने कोटा को असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि ऐतिहासिक इंद्रा साहनी (1992) मामले में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तय 50 फीसदी सीमा से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता.

बिहार में अति पिछड़ा वर्ग के लिए कांग्रेस, RJD का रुख

कर्पूरी ठाकुर के OBC और अति पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की घोषणा का उनकी जनता पार्टी के भीतर ही ऊंची जाति के नेताओं कड़ा विरोध किया. सीएम कर्पूरी ठाकुर को इस मामले में कांग्रेस के अप्रत्यक्ष विरोध का भी सामना करना पड़ा था.

1979 में जब ठाकुर को सत्ता से बेदखल किया गया, तो कांग्रेस समर्थित मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री ने इस नीति को रद्द नहीं किया, बल्कि आरक्षण के पुनर्मूल्यांकन के लिए दोबारा से एक नया आयोग गठित किया.

'कर्पूरी फॉर्मूले' ने 1979 में नई दिल्ली में जनता पार्टी सरकार को भी इस तरह के फैसले के लिए प्रोत्साहित किया. जनता पार्टी सरकार ने 1 जनवरी 1979 को बीपी मंडल आयोग का गठन किया.

अगले ही साल 1980 में बीपी मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार के सामने पेश की, जिसमें केंद्रीय नौकरियों और शिक्षा में 27 फीसदी ओबीसी कोटा की सिफारिश की गई थी, लेकिन कांग्रेस अपने उच्च जाति के आधार को अलग-थलग करने से चिंतित थी. इसीलिए उसने 1980 के दशक तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की.

1990 में ही वी.पी. सिंह की जनता दल सरकार ने मंडल की सिफारिशों को लागू किया, जिससे ऊंची जातियों के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए. सामाजिक न्याय पर देशव्यापी मंथन शुरू हुआ.

इस दौरान कांग्रेस ने एक अनिर्णायक रुख अपनाया. कांग्रेस ने न तो OBC कोटा का समर्थन किया और न ही उसका खुलकर विरोध किया.

इसके विपरीत 1990 के दशक में लालू की RJD ने OBC और EBC के अधिकारों का सक्रिय रूप से विस्तार किया. मुस्लिम-यादव आधार को मजबूत करते हुए लालू ने छात्रावासों, शैक्षिक छात्रवृत्तियों, सरकारी भर्तियों में कोटा विस्तार कर हाशिए पर पड़े EBC समुदाय के हितों को भी आगे बढ़ाया.

OBC और EBC पर कांग्रेस का रुख धीरे-धीरे बदलता गया क्योंकि उसका राज्य में ऊंची जातियों के बीच आधार कम होता गया. 1990 और 2000 के दशक में चुनावी मजबूरियों ने उसे जातिगत आरक्षण को और स्पष्ट रूप से स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया.

2010 के दशक तक कांग्रेस ने EBC आरक्षण के विस्तार, राज्य स्तर पर जातिगत सर्वेक्षण और 50 फीसदी की सीमा में संशोधन का समर्थन करना शुरू कर दिया. 2020 के दशक में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के दबदबे का मुकाबला करने के लिए EBC को पूरी तरह से आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हो गई है.

क्या इन वादों के जरिए नीतीश के वोटबैंक में लगेगी सेंध?

पॉलिटिकल एक्सपर्ट रशीद किदवई के मुताबिक, इस वक्त बिहार में महागठबंधन का पूरा ध्यान नीतीश कुमार की JDU को कम से कम सीटों तक सीमित करने पर है. अगर JDU 25-30 सीटों तक सिमटती है, तो NDA के लिए सरकार बनाना मुश्किल हो जाएगा.

यही कारण है कि महागठबंधन के प्रमुख दल, कांग्रेस और RJD, नीतीश के पारंपरिक EBC वोटबैंक पर नजर रखे हुए हैं. हालांकि, यह अनुमान लगाना कठिन है कि महागठबंधन अपने वादों के जरिए इस वोटबैंक को कितना अपनी ओर आकर्षित कर पाएगा.

महागठबंधन के लिए EBC वोटबैंक को आकर्षित करना इसलिए भी मुश्किल है, क्योंकि नीतीश सरकार ने इस समुदाय के लिए कई अहम फैसले लिए हैं. इसके अलावा सरकार ने चुनाव से पहले बिहार के लोगों के लिए कई लोकलुभावन योजनाएं शुरू की हैं. इनमें महिलाओं, बुजुर्गों और युवाओं के खातों में नकद हस्तांतरण शामिल है.

NDA, विशेष रूप से BJP और JDU, कल्याणकारी योजनाओं के जरिए एंटी-इनकंबेंसी को प्रो-इनकंबेंसी यानी सरकार विरोधी लहर को सरकार के समर्थन में बदलने में माहिर है. हरियाणा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र इसका उदाहरण है. 

बिहार चुनाव पर इंडिया टुडे हिंदी की ये डेटा स्टोरी भी पढ़िए- 

बिहार: हर आदमी पर 24 हजार रु. से ज्यादा का कर्ज, अब हजारों करोड़ की चुनावी स्कीमों का क्या होगा असर?

दिल्ली चुनाव डेटा स्टोरी

केंद्रीय वित्त मंत्रालय के मुताबिक, मार्च 2024 में बिहार पर कुल कर्ज 3.19 लाख करोड़ रुपए था, जो अब और बढ़ गया होगा. ऐसे में चुनाव से पहले फ्रीबीज के ऐलान से यहां की अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा? यहां क्लिक कर पूरी स्टोरी पढ़िए. 

बिहार का 'शोक' कहलाने वाली कोसी को नीतीश की लाइफलाइन क्यों माना जाता है?

बिहार चुनाव 2025

कोसी नदी क्षेत्र के 12 विधानसभा सीटों पर अति पिछड़ा वर्ग यानी EBC की आबादी अच्छी खासी है. इनमें से 11 विधानसभा सीटों पर 2020 में नीतीश कुमार की JDU और BJP को जीत हासिल हुई थी. यहां क्लिक कर पूरी स्टोरी पढ़िए. 

Read more!