मंजिल की आरजू, रास्तों से बेवफाई: जीवाश्म ईंधन के इर्द-गिर्द COP28 की कहानी
साल 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है. जब चुनौतियां अपने रिकॉर्ड तोड़ रही हैं तो क्या COP28 के उपाय भी उतने ही असरदार होंगे

पृथ्वी और इसके पर्यावरण को जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरों से बचाने के लिए 13 दिन तक चली मैराथन बैठकों का दौर समाप्त हो गया. संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के दुबई में 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2023 तक चलने वाला संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP28) इस वादे के साथ खत्म हुआ है कि दुनिया जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करने की तरफ आगे बढ़ेगी.
COP28 ऐसे समय में आयोजित हुआ जब ग्लोबल वॉर्मिंग नए रिकॉर्ड तोड़ रही थी. पहले ही ये बात सामने आ चुकी है कि साल 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है. इस साल कई महीने ऐसे रहे जब तापमान ने अपने सभी पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए. इस साल 80 से ज्यादा दिन ऐसे रहे जो औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में कम से कम 1.5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म दर्ज किए गए.
ये चिंता वाजिब है कि जब चुनौतियां अपने रिकॉर्ड तोड़ रही हैं तो क्या इनसे लड़ने के उपाय भी उतने ही असरदार हैं. COP28 में फिर से लक्ष्य निर्धारित हुए हैं, लेकिन इन लक्ष्यों तक पहुंचने के रास्ते अभी भी स्पष्ट नहीं हैं.
जीवाश्म ईंधन से दूर जाने पर जोर
COP28 में सबसे बड़ा मुद्दा कुछ रहा तो ये कि जीवाश्म ईंधन से दूर जाने पर 196 देशों ने सहमती जताई. इससे पहले किसी भी COP समिट के फैसले में ग्लोबल वॉर्मिंग पैदा करने में जीवाश्म ईंधन की भूमिका का जिक्र नहीं किया गया था. हालांकि इस बार देशों से जीवाश्म ईंधन से "दूर जाने" में योगदान करने का आह्वान किया गया है, ताकि 2050 तक नेट जीरो का लक्ष्य पूरा हो और तापमान वृद्धि को 1.5% सेल्सियस से कम रखा जा सके.
ये बड़ी बात है कि देशों ने जीवाश्म ईंधन को ग्लोबल वॉर्मिंग में कारक माना और इससे दूर जाने के ऊपाय के रूप में ग्रीन एनर्जी को बढ़ावा देने की बातें कहीं. लेकिन ये निकट भविष्य में संभव है या नहीं इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि फिल्हाल दुनिया की ऊर्जा जरूरतों का 80% हिस्सा जीवाश्म ईंधनों यानी कच्चा तेल, कोयला और गैस से पूरा हो रहा है.
जीवाश्म ईंधन से दूर जाने का आह्वाहन होते ही फिर पुराना सवाल खड़ा हो गया कि तेल उत्पादक देशों का क्या होगा. कई देशों के विरोध के बाद मसौदा समझौते के पहले प्रयास में इसे छोड़ भी दिया गया था. इसमें प्रमुख चिंताएं सऊदी अरब के अलावा नाइजीरिया, युगांडा, कोलंबिया जैसे देशों ने जाहिर कीं. ये देश कोयला, तेल और गैस की बिक्री से मिलने वाले पैसे से ही हरित ऊर्जा की तरफ बढ़ सकते हैं. कोलंबिया ने कहा कि जीवाश्म ईंधन से दूर जाने से, क्रेडिट एजेंसियों ने उनकी रेटिंग कम कर दी है, इसके चलते ग्रीन एनर्जी के लिए अंतरराष्ट्रीय ऋण उन्हें और महंगा पड़ेगा.
जीवाश्म ईंधन से दूर जाने की अपील में शब्दों का भी खेल है. इसमें 'ट्रांजिशनिंग अवे' का प्रयोग किया गया है. जानकारों का मानना है कि जानबूझकर 'फेज आउट' शब्द से बचा गया है. इसमें भी कोई लक्ष्या या टाइमलाइन का जिक्र नहीं है. यानी हम जीवाश्म ईंधन का प्रयोग कम करना चाहते हैं, लेकिन इसका कोई स्पष्ट तरीका नहीं सुझाया गया.
पर्यावरण मामलों पर लिखने वाले और पत्रकार हृदयेश जोशी कहते हैं, "जलवायु संकट जिस रफ्तार से बढ़ रहा है और क्लाइमेट एक्शन के लिये वक्त की बहुत छोटी सी खिड़की बची है, उस हिसाब से दुबई सम्मेलन में जीवाश्म ईंधन में कटौती का कोई गंभीर इरादा नहीं दिखा. लघुद्वीपीय और गरीब देशों के पास बहुत सीमित विकल्प हैं और भारत के तटीय शहरों और हिमालयी क्षेत्र में भी आपदाओं की संख्या बढ़ेगी. क्लाइमेट एक्शन के अभाव में गरीबी बढ़ना और पलायन जैसे संकट अधिक विकराल होना तय है."
नवीकरणीय ऊर्जा
नवीकरणीय ऊर्जा पर भी COP28 में चर्चा हुई. नवीकरणीय ऊर्जा की वैश्विक क्षमता को तीन गुना करने और ऊर्जा दक्षता में वार्षिक सुधार को दोगुना करने के लिए देशों से योगदान देने का आह्वान किया गया है. ये दो उपाय अभी से 2030 तक लगभग 7 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम कर सकते हैं.
लेकिन यहां समस्या ये है कि ट्रिपलिंग एक ग्लोबल टारगेट है और हर देश के लिए अपनी वर्तमान स्थापित क्षमता को व्यक्तिगत रूप से तीन गुना करना जरूरी नहीं है. ऐसे में ये स्पष्ट नहीं है कि ट्रिपलिंग कैसे सुनिश्चित की जाएगी. कोई देश यदि अपनी नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता को तीन गुना नहीं बढ़ा पाया तो क्या होगा और जो देश बढ़ा पाने की स्थिति में नहीं है उनकी मदद कैसे की जाएगी.
मीथेन कुल उत्सर्जन का लगभग 25 प्रतिशत है और CO2 के अलावा सबसे व्यापक ग्रीनहाउस गैस है. ग्लोबल वॉर्मिंग में इसकी क्षमता CO2 से लगभग 80 गुना ज्यादा है. इसलिए मीथेन उत्सर्जन में कटौती से बड़ा लाभ मिल सकता है, लेकिन भारत सहित कई देश मीथेन में कटौती का विरोध कर रहे हैं. मीथेन उत्सर्जन में कटौती से कृषि पैटर्न में बदलाव हो सकता है जो भारत जैसे देश में बेहद संवेदनशील है.
पैसे की दरकार
डोनेट करने वाली 8 सरकारों ने अल्प विकसित देशों के कोष और विशेष जलवायु परिवर्तन कोष के लिए अब तक 174 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ज्यादा की नई घोषणाएं की हैं. हालांकि, जैसा कि वैश्विक स्टॉकटेक से पता चलता है, ये वित्तीय मदद विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन और उनकी राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं को लागू करने में मदद करने के लिए काफी कम है.
COP28 में, विकासशील देशों की जरूरतों और प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए, 2024 में 'जलवायु वित्त पर एक नया सामूहिक मात्रात्मक (quantified) लक्ष्य' बनाने की बात कही गई जो हर साल 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बेस लाइन से शुरू होगा. अभी 31 देश मिलकर केवल 12.8 बिलियन डॉलर दे रहे हैं. 100 बिलियन डॉलर तक पहुंच हो पाएगी या ये टेबल पर ही रह जाएगा, ये तो अब अलगे साल ही पता चलेगा.
COP28 में कुछ नए लक्ष्य निर्धारित किए और कुछ पुराने लक्ष्यों को तय समय में हासिल करने की बात दोहराई गई, लेकिन इसके लिये जो उपाय किये जाने चाहिए उनकी रफ्तार धीमी है और मदद के लिए धरती की पुकार काफी तेज.