प्रो. जीएन साईबाबा की मौत का जिम्मेदार कौन?

माओवादियों से संबंध रखने के आरोप में प्रो. जीएन साईबाबा 2014 में गिरफ्तार किया गया था और दस साल बाद उन्हें सभी आरोपों से बरी करते हुए मार्च 2024 में रिहाई दी गई थी

डीयू के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा
डीयू के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा का 12 अक्टूबर की देर रात निधन हो गया. 57 वर्षीय साईबाबा की मृत्यु गॉल-ब्लैडर की पथरी की सर्जरी के बाद हुई जटिलताओं के कारण हुई. अंग्रेजी के पूर्व प्रोफेसर साईबाबा को 5 मार्च को बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने बरी कर दिया था. माओवादियों से कथित संबंधों के मामले में उन्हें पहली बार गिरफ्तार किए जाने के करीब 10 साल बाद 7 मार्च को उन्हें नागपुर सेंट्रल जेल से रिहा किया गया था.

अब कई मानवाधिकार कार्यकर्ता आरोप लगा रहे हैं कि जेल में हुई ज्यादतियों और उनके स्वास्थ्य को लेकर हुई अनदेखी ही उनकी मौत का कारण बनी. उनकी मौत की तुलना 84 वर्षीय स्टेन स्वामी से भी की गई. उन्हें भी माओवादियों से कथित संबंध रखने के आरोप में 2020 में गिरफ्तार किया गया था. अगले साल यानी 2021 में मुंबई में इसी मामले में मुकदमे की प्रतीक्षा करते हुए न्यायिक हिरासत में मृत्यु हो गई थी. अब लोग सवाल कर रहे हैं कि अलग-अलग मामलों में जेल में बंद राजनैतिक कैदियों के साथ कैसा व्यवहार होता है.

राजनीतिक कैदी वह होता/होती है जिसे उसकी राजनीतिक गतिविधि के लिए कैद किया जाता है. राजनीतिक अपराध हमेशा कैदी की हिरासत का आधिकारिक कारण नहीं होता है.

फर्ज कीजिए कि आप पोलियो के मरीज हों और बिना व्हीलचेयर के एक गिलास पानी भी ना ले सकें. ऐसे में आपको जेल के अंडा सेल में कुछ सालों के लिए रहना पड़ जाए तो आपको कैसा लगेगा? जेल में यही हालत जीएन साईबाबा की थी. द पोलिस प्रोजेक्ट के लिए भव्या डोरे और सुखदा तटके की रिपोर्ट बताती है कि उनकी सेल में जहां पानी का घड़ा था वहां तक उनकी व्हीलचेयर नहीं जा सकती थी. ऐसे में 45 डिग्री की भीषण गर्मी में उन्हें घंटों इंतजार के बाद पानी नसीब होता था. लगातार तीन हफ़्तों के जेल प्रशासन से निवेदन करने के बाद उन्हें एक प्लास्टिक की बोतल देने के लिए प्रशासन तैयार हुआ.

यह ऐसे अनेक मामलों में से केवल एक है. बाहर की दुनिया में जो हमें ध्यान देने योग्य बात भी नहीं लगती, वही जेल के भीतर ऐश-ओ-आराम कहलाते हैं. बात सिर्फ यहीं नहीं रुकी. एक हफ्ते बाद जब उनका वकील एक पानी की बोतल लेकर आया तो पुलिस ने वह साईबाबा के पास पहुंचाने से इनकार कर दिया. वकील ने यह बात मीडिया को बताई तो जेल प्रशासन पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने दबाव बनाया. इसके बाद पुलिस ने उनकी सेल में कई बोतल रखकर फोटो खींचकर बाहर यह बताया कि उन्होंने अपनी सेल में कई बोतल जमा कर रखी हैं. साईबाबा ने खुद मीडिया को बताया कि इसके बाद उन्हें एक हफ्ते की भूख हड़ताल करनी पड़ी तब जाकर चीजें ठीक हुईं.

जो लोग साईबाबा को नहीं जानते हों,  उनको अंडा सेल और पोलियो होने के बावजूद ऐसी स्थिति में जेल में रखे जाने की बात जानकर लग सकता है कि वे कोई बड़े अपराधी या दुर्दांत गैंगस्टर जरूर होंगे जिसकी सजा उन्हें जेल में भुगतनी पड़ रही होगी. साईबाबा को 9 मई 2014 को गिरफ्तार किया गया था. उन्हें और कई अन्य लोगों को महाराष्ट्र की गढ़चिरौली पुलिस ने इस आरोप में हिरासत में लिया था कि वे प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और उसके सहयोगी समूह रिवॉल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट के सदस्य हैं. साईबाबा पर अन्य आरोपियों - जेएनयू के छात्र हेम मिश्रा और उत्तराखंड के पत्रकार प्रशांत राही - की प्रतिबंधित संगठनों के सदस्यों के साथ बैठक आयोजित कराने का आरोप लगाया गया था.

हालांकि बॉम्बे हाई कोर्ट की जस्टिस विनय जोशी और जस्टिस वाल्मीकि एस. ए. मेनेजेस की बेंच ने उन पर लगाए गए आजीवन कारावास की सजा को खारिज कर दिया और मामले में पांच अन्य आरोपियों को भी बरी कर दिया. अदालत का आधिकारिक बयान है कि वह सभी आरोपियों को बरी कर रही है क्योंकि पुलिस के पास संदेह के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं जिससे इनका गुनाह साबित हो सके.

जेल से बाहर आने पर उन्होंने कहा था, ''जमानत अवधि को छोड़कर, जो कुल मिलाकर डेढ़ साल से भी कम समय तक चली, मैंने यह पिछला दशक अंडा सेल में बिताया है.'' अंडा सेल में आमतौर पर एक सेल में केवल एक कैदी होता है, लेकिन जेल अधिकारियों ने साईबाबा के दो सह-आरोपी, पांडु नरोटे और महेश तिर्की को उनके साथ सेल साझा करने और उनकी मदद करने के लिए कहा क्योंकि वे व्हीलचेयर के बिना कोई भी मूवमेंट करने में असमर्थ थे. जब वे पांच साल के थे, तब पोलियो संक्रमण के कारण उनकी कमर के नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था.

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने जीएन साईबाबा के निधन के बाद फ्रंटलाइन मैगजीन के लिए एक लेख लिखा और कहा, "हमें लगता है कि साईबाबा की मौत अन्याय है. सरकार और न्यायपालिका के हाथों अन्याय झेलने के बाद साईबाबा को संयोग से आज़ादी मिली और उनका आज़ाद जीवन सिर्फ़ सात महीने ही चल सका. उनकी मौत से जो सदमा लगा है, वह इस दोहरे अन्याय की भावना के कारण है. पहले तो उन्हें झूठे आरोपों में आठ साल से ज़्यादा समय तक जेल में रखा गया और फिर उन्हें अपनी कड़ी मेहनत से हासिल की गई आज़ादी भोगने का वक्त भी नहीं मिल सका."

इसी तरह सितंबर 2022 में जेल में बंद सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक आनंद तेलतुंबड़े ने अर्जी लगाई कि तलोजा सेंट्रल जेल में मच्छरों की वजह से हालत बुरी है. तेलतुंबड़े भीमा कोरेगांव केस में जेल में बंद हैं. उसी जेल में बंद गौतम नवलखा, वरनॉन गोंसाल्वेस समेत दूसरे कैदियों ने भी मच्छरों की शिकायत जेल प्रशासन से की और मच्छरदानी की मांग की जिसे जेल प्रशासन ने नामंजूर कर दिया.

स्टेन स्वामी को पार्किंसन की बीमारी थी और वे हाथ से पानी का गिलास उठाकर पीने में भी सक्षम नहीं थे क्योंकि बीमारी की वजह से उनका हाथ बहुत बुरी तरह से कांपता था. 83 की उम्र में उन्हें कड़ी मशक्कत करनी पड़ी तब जाकर जेल प्रशासन ने उन्हें एक सिपर दिया. पहले जेल प्रशासन की तरफ से कहा गया कि उनके पास सिपर है ही नहीं. फिर एक महीने के बाद जाकर किसी तरह सिपर मिल सका. मच्छरदानी, पानी की बोतल और सिपर की कीमत मुश्किल से हजार रुपए भी नहीं पहुंचेगी.

यहां ध्यान देने वाली बात है कि ये सभी राजनैतिक कैदी हैं और लगभग सभी पर सरकार ने यूएपीए लगा रखा है. ज्यादातर लेखक, प्रोफेसर और अकादमिक जगत से जुड़े लोग हैं. ज्यादातर पर कोई केस साबित नहीं हो पाता और 8-10 साल की कैद के बाद न्यायालय से बरी हो जाते हैं.

न्यायिक जगत में एक प्रसिद्ध कथन है - जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड अर्थात देर से मिला न्याय भी अन्याय के सामान है. एक ऐसा ही मजेदार कथन और है कि 'बेल इज रूल, जेल इज एक्सेप्शन' यानी जमानत नियम है और कैद अपवाद. फिर क्यों यूएपीए के तहत जेल में बंद उमर खालिद को अपनी चिट्ठी में लिखना पड़ता है कि "एक कानून के रूप में, यूएपीए सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी का मज़ाक उड़ाता है कि ज़मानत नियम है और जेल अपवाद. यूएपीए इस सिद्धांत को उलट देता है, जिसमें आरोपी व्यक्ति को अपनी बेगुनाही साबित करने की जरूरत होती है और इस तरह ज़मानत देने के लिए भी दोषी होने की धारणा पर आगे बढ़ना होता है. वह भी बिना किसी ट्रायल के."

खालिद 14 सितंबर, 2020 से जेल में हैं. उन पर 2020 में हुए दिल्ली दंगों में 'मुख्य साजिशकर्ता' के रूप में कथित भूमिका के लिए यूएपीए, भारतीय दंड संहिता की धाराओं सहित राजद्रोह और शस्त्र अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए थे. यूएपीए मामला खालिद के खिलाफ दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज किए गए दो मामलों में से एक है.

अप्रैल 2021 में, एक सत्र अदालत ने उसे दिल्ली दंगों में कथित तोड़फोड़ और आगजनी के एक अलग मामले में जमानत दे दी थी. इसके बावजूद, दंगों के पीछे की साजिश से संबंधित मामले में उसकी कथित संलिप्तता के कारण वे जेल में है. हालांकि इस मामले में 4 साल से सुनवाई ही नहीं हुई है.

उमर खालिद, शरजील इमाम, हैनी बाबू, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबड़े और ना जाने कितने ही लोग ऐसे मामलों में बंद हैं जिनकी सुनवाई सालों से लंबित है और इनकी जमानत याचिका पर फैसला तो छोड़िए सुनवाई ही टलती चली जाती है. होना तो यह था कि सुनवाई होती तो दोषियों को सजा सुनाई जाती और बेगुनाह बरी हो जाते मगर सुनवाई का ना होना और जेल अवधि का अनिश्चितकाल तक बढ़ते चले जाना ही सजा में तब्दील हो गई है.

तिसपर भारतीय जेलों की हालत. श्री बृजलाल की अध्यक्षता वाली गृह मामलों की स्टैंडिंग कमिटी ने 21 सितंबर, 2023 को "जेल-स्थितियां, बुनियादी ढांचा और सुधार" पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी. इसके मुताबिक, भारतीय जेलों में 70 प्रतिशत से अधिक कैदी विचाराधीन यानी अंडरट्रायल हैं. जेल प्रशासन अंडरट्रायल कैदियों को जेल में रखने पर उनकी रिहाई के लिए आवश्यक जमानत राशि से अधिक धन खर्च करता है. एनसीआरबी के अनुसार, 2022 में भारतीय जेलों में दर्ज 1,773 प्राकृतिक मौतों में से 1,670 मौतें बीमारी के कारण और 103 मौतें उम्र बढ़ने के कारण हुईं.

एनसीआरबी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, अंडरट्रायल कैदी केवल इसलिए जेलों में सड़ रहे हैं क्योंकि उनके पास अपनी कठोर सजा को चुनौती देने के लिए साधन नहीं हैं. एनसीआरबी की कुछ रिपोर्टों के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत की जेलों में ज़्यादातर युवा पुरुष और महिलाएं ऐसे हैं जो अशिक्षित या अर्ध-शिक्षित हैं और समाज के सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों से आते हैं. विचाराधीन कैदियों में से 65 प्रतिशत से ज़्यादा एससी, एसटी और ओबीसी श्रेणियों से आते हैं. उनमें से ज़्यादातर इतने ग़रीब हैं कि वे ज़मानत शुल्क भी नहीं चुका सकते.

इंडिया टुडे में मुकेश रावत अपनी 2022 की रिपोर्ट में लिखते हैं, "1978 में भारत की कुल कैदियों की आबादी में 54 प्रतिशत अंडरट्रायल कैदी थे. 2017 तक यह आंकड़ा बढ़कर 68 प्रतिशत हो गया. अंडरट्रायल कैदियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में भी कोई बदलाव नहीं आया है - उनमें से अधिकांश युवा, कम पढ़े-लिखे और गरीब हैं. यह लगातार बनी रहने वाली शर्मनाक स्थिति एनसीआरबी की नवीनतम रिपोर्ट में दिखती है, जो दर्शाती है कि 2017 के अंत तक कम से कम 3.08 लाख लोग भारतीय जेलों में बंद थे, भले ही उन्हें किसी भी अदालत ने दोषी नहीं ठहराया हो. यह आंकड़ा भारत में दोषियों की संख्या से कहीं अधिक था."

वहीं इंडिया टुडे हिंदी की ही रिपोर्ट में नॉर्वे की जेलों के बारे में बताते हुए आकाश लिखते हैं, "जेल में कैदियों को टॉर्चर करने के बजाय नॉर्वे अपनी सारी क्षमता उन्हें सुधारने और बेहतर इंसान बनाने पर खर्च करता है. वहां काला पानी की सज़ा दे देने की अवधारणा काम नहीं करती. यही वजह है कि हर जेल उन सारी सुविधाओं से लैस है जो किसी पांच सितारा होटल में होती हैं. मसलन टीवी, डाइनिंग रूम से लेकर पार्क में साइकिल चलाने तक की व्यवस्था रहती है. हर कैदी का अपना अलग कमरा है, यानी सेल. जेल प्रशासन हर कैदी को उसके सेल की चाबी दे देता है."

सुप्रीम कोर्ट ने 40 साल पहले टिप्पणी की थी कि अंडरट्रायल कैदियों को लंबे समय तक जेल में रखना "न्याय व्यवस्था के लिए शर्मनाक बात है". 40 साल बाद भी इस कथन पर अमल होता तो नहीं दिखता, और निकट भविष्य में भी इसकी कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही.

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