क्या है 'एग्जाम स्ट्रेस' की बाराखड़ी और इसे समझना क्यों जरूरी है?
‘एग्जाम स्ट्रेस’ का साइंस समझकर इससे निपटना काफी आसान हो सकता है

फरवरी का महीना और मार्च आते-आते स्कूलों में परीक्षाएं शुरू हो जाएंगी, लेकिन परीक्षा की आहट के साथ ही एक और चीज शुरू हो जाती है- तनाव.
कोई अपनी तैयारी को लेकर परेशान दिखता है, कोई नंबर्स की चिंता में डूब जाता है तो किसी को परिवार के दबाव में पड़ोसी के बच्चों से ज्यादा नंबर लाने होते हैं. कारण कुछ भी हो, तनाव इन सभी परिस्थितियों में होता है.
तनाव का विज्ञान
साइंस की भाषा में कहें तो तनाव का सारा कंट्रोल व्यक्ति के एंडोक्राइन सिस्टम से होता है. इसे हाइपोथैलेमिक-पिट्यूटरी-एड्रेनल (HPA) एक्सिस भी कहा जाता है (हाइपोथैलेमिक- मस्तिष्क का एक हिस्सा, पिट्यूटरी- मस्तिष्क के निचले हिस्से में मौजूद एक ग्रंथि, एड्रेनल – एक हार्मोन). साधारण भाषा में कहें तो ये मस्तिष्क का कमांड सेंटर है जो कई तरह की चीजें कंट्रोल करता है, जैसे- मूड, शरीर का तापमान, हृदय गति, भोजन, सेक्स ड्राइव, ऊर्जा, प्यास और नींद. ये हार्मोन रिलीज करने की प्रक्रिया को भी कंट्रोल करता है.
जब मस्तिष्क को किसी तनाव का एहसास होता है चाहे वो कोई शारीरिक परेशानी हो, किसी कारण से मूड खराब हो, कोई बुरी खबर हो या रोजमर्रा का तनाव, तो हाइपोथैलेमस CRH (कॉर्टिकोट्रोफिन-रिलीजिंग हार्मोन) रिलीज करता है, जो एंडोक्राइन सिस्टम के कंट्रोल रूम तक संदेश पहुंचाता है.
इसके बाद जैसा आपने रिले रेस में देखा होगा, एक व्यक्ति अगले खिलाड़ी तक कोई चीज पहुंचाता है, वैसे ही मस्तिष्क में पिट्यूटरी ग्रंथि संदेश मिलने पर एक दूसरा मैसेज एड्रेनोकॉर्टिकोट्रॉपिक हॉर्मोन के जरिए एड्रेनल ग्लैंड तक पहुंचाता है. यही तनाव प्रबंधन का असली सेंटर है. यहां तक संदेश पहुंचने पर, एड्रेनल ग्लैंड कॉर्टिसोल हार्मोन रिलीज करता है जिससे तंत्रिका तंत्र सक्रिय होती है. इस दौरान हृदय गति बढ़ जाती है, ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है और सांसें तेज हो जाती हैं. इस समय मस्तिष्क और खून में ज्यादा ऑक्सीजन और ग्लूकोज जाने लगता है, जिससे शरीर को तनाव से निपटने के लिए ऊर्जा मिलती है. परेशानी खत्म होने पर कॉर्टिसोल का स्तर कम हो जाता है और शरीर सामान्य स्थिति में आ जाता है.
एग्जाम स्ट्रेस
गुड़गांव स्थित ऑर्टेमिस हॉस्पिटल में मनोचिकित्सा विभाग के प्रमुख डॉ राहुल चंडोक एग्जाम स्ट्रेस को समझाते हुए कहते हैं, "जीवन में जब भी कोई व्यक्ति कोई एक्टिविटी करता है तो उसके लिए मेहनत करनी पड़ती है और जब मेहनत करते हैं तो प्रेशर लगता है जिसे फिजिक्स में स्ट्रेस कहा जाता है. यही मेहनत अगर एग्जाम के लिए की जाए तो इसे एग्जाम स्ट्रेस कहते हैं, लेकिन होता ये है कि जब आपने तैयारी शुरू से नहीं की है, या कोई ऐसा लक्ष्य चुन लिया है जो आपकी क्षमता से परे है तो सिर्फ प्रेशर रह जाता है."
डॉ. राहुल एक केस का उदाहरण देकर बताते हैं, "एक लड़की मेरे पास आई. उसे आर्कियोलॉजी पढ़नी थी जो आर्ट्स का विषय है, लेकिन घरवालों के दबाव में उसने साइंस ले लिया. बाद में वो लड़की डिप्रेशन में चली गई और अच्छा परफॉर्म न कर पाने के चलते उसके अंदर खुदकुशी की भावनाएं आने लगीं. जैसे तैसे 11वीं कक्षा पास की, लेकिन 12वीं में हालत और खराब हो गई. अंत में घरवालों को मानना पड़ा कि वो इस क्लास की पढ़ाई दोबारा करेगी." एग्जाम स्ट्रेस को आम तौर पर तीन चरणों में देखा जाता है-
परीक्षा से पहले
परीक्षा से पहले का तनाव खासकर उन छात्रों में देखने को मिलता है जिन्होंने पूरे साल ध्यान से पढ़ाई न की हो और अंत के कुछ दिनों में जोर लगा रहे हों. डॉ राहुल कहते हैं कि इन छात्रों के पास अंत में सिलेबस ज्यादा होता है और तैयारी के लिए समय कम, इसलिए दबाव महसूस करते हैं. छात्र टूटने की कगार पर खड़े होते हैं. वे आगे कहते हैं कि जिन्होंने पूरे साल पढ़ाई की हो वो बच्चे इस समय में रिवीजन के फेज में होते हैं, इसलिए उनके आत्मविश्वास में वृद्धि होती है.
परीक्षा के दौरान
परीक्षा के दौरान का तनाव औसत और कमजोर दोनों तरह के छात्रों पर हो सकता है. डॉ. राहुल आगे कहते हैं कि ऐसा संभव है कि किसी छात्र ने पूरे साल पढ़ाई की हो, लेकिन जैसे ही एग्जाम पेपर हाथ में आया तो परफॉर्मेंस एंग्जायटी में वो ब्लैंक हो जाए. इस स्थिति में दिल की धड़कन बढ़ने लगती है और पसीना छूटने लगता है. अगर परीक्षा मौखिक है तो छात्र जवाब पता होते हुए भी ऐसी हालत में कुछ बोल नहीं पाता. दूसरी तरफ जिन छात्रों ने पढ़ाई नहीं की या किसी कारण से तैयारी नहीं हो पाई तो उन्हें परीक्षा के दौरान ही बाद के परिणाम सताने लगते हैं.
परीक्षा के बाद
परीक्षा के बाद का स्ट्रेस समाज और परिवार द्वारा दिया जाने वाला दबाव होता है. ये समस्या खासकर नंबर या रैंक को लेकर तुलना से खड़ी होती है. डॉ. राहुल कहते हैं, "इस दौरान छात्रों के अंदर तुलना की भावना भी आने लगती है. अगर किसी के 100 में से 70 अंक आए हैं तो वो अपने किसी दोस्त के 80 अंक आने से परेशान हो सकता है या गिल्ट में डूब सकता है.” वे इसका उपाय बताते हुए कहते हैं, "ऐसे में छात्रों को तुलना जरूर करनी चाहिए लेकिन किसी और से नहीं बल्कि अधिकतम अंक से. अगर किसी छात्र के 100 में से 100 अंक आ जाते हैं तो फिर उसे खुद को टॉपर समझना चाहिए, और 10 छात्रों के भी 100 में से 100 अंक आने पर भी उसे खुद को ही टॉपर समझना चाहिए, क्योंकि किसी और के पूरे नंबर आने से उसके प्रदर्शन पर फर्क नहीं पड़ता."
तनाव से निपटने के लिए क्या करें?
शिक्षण संस्थान 'लाइटहाउस लर्निंग' में सेंटर ऑफ वेल-बीइंग की प्रमुख सचु रामलिंगम तनाव से निपटने के कई उपाय बताती हैं-
- लक्ष्य निर्धारण: सबसे पहले छात्र को लक्ष्य निर्धारित करते समय ध्यान रखना चाहिए कि उसकी क्षमता क्या है. अपनी क्षमता से ज्यादा बड़े लक्ष्य चुनते समय तनाव होता है. परिवार को भी अनावश्यक दबाव से बचना चाहिए.
- पर्याप्त नींद : छात्रों का परीक्षा के समय पर्याप्त नींद लेना जरूरी है. इससे वे ताजा महसूस करते हैं और पढ़ा हुआ ध्यान में रहता है.
- स्वस्थ भोजन : स्वस्थ भोजन अच्छा महसूस करने और स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है. खासकर परीक्षा के समय खाने को लेकर लापरवाही बीमार कर सकती है.
- व्यायाम : व्यायाम से शरीर फुर्तीला और दिमाग ज्यादा एक्टिव रहता है.
- अपनी हॉबी जरूर फॉलो करें : छात्र को इस दौरान अपनी हॉबी से जुड़ी चीज जैसे खेलना, डांस करना, गाना या खाना बनाने जैसी चीजें जरूर करनी चाहिए. इससे व्यक्ति उतने समय के लिए तनाव से बिल्कुल दूर चला जाता है और जब लौटता है तो पूरी तरह ताजा होता है.
इन बातों के अलावा डॉ. राहुल कहते हैं, "टीचर्स को ये बात जरूर समझनी चाहिए की बच्चों में भी एंग्जायटी या डिप्रेशन होना संभव है. उसके लक्षण अध्यापकों को पता रहना चाहिए. उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए कि कोई बच्चा पहले पढ़ता था, अब नहीं पढ़ रहा है, या उदास रहने लगा है, या चुप रहता है. ऐसी हालत में बच्चे से बात करनी चाहिए." डॉ. राहुल के मुताबिक हैं बच्चों में जब तनाव के लक्षण दिखने लगें तो उसे समझने के लिए हमें ज्यादा से ज्यादा दो हफ्ते चाहिए. जैसे बुखार आने पर चार दिन में ही लोग डॉक्टर के पास जाते हैं वैसे ही तनाव में भी दो हफ्ते का समय फॉलो करते हुए डॉक्टर को दिखाना चाहिए और इसे गंभीरता से लेना चाहिए.