होड़ में हांफती, पिछड़ती हिंदी

लोक सेवा परीक्षा में हिंदी माध्यम के सफल उम्मीदवारों की संख्या साल-दर-साल घटती जा रही है, आखिर क्या हैं इसकी वजहें

पढ़ाई भी, लड़ाई भी : सीसैट पेपर के मामले पर दिल्ली में 2014 में हुआ छात्रों का विरोध प्रदर्शन
पढ़ाई भी, लड़ाई भी : सीसैट पेपर के मामले पर दिल्ली में 2014 में हुआ छात्रों का विरोध प्रदर्शन

विनय सुल्तान

राजस्थान के करौली जिले के दिग्गी राम बरवाला पिछले तीन बार से सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा दे रहे हैं. इसके सामान्य अध्ययन के पेपर में अच्छे अंक लाने के बावजूद वे हर बार मुख्य परीक्षा के लिए क्वालिफाइ करने से चूके हैं. इसकी वजह है: सीसैट यानी सिविल सर्विस एप्टीट्यूड टेस्ट. दिग्गी राम तीनों दफा प्रारंभिक परीक्षा में सामान्य अध्ययन के साथ होने वाले सीसैट पेपर में जरूरी 66 अंक हासिल नहीं कर पाए. इसकी वजह पूछने पर वे कहते हैं, ''सीसैट के पेपर में मुख्य रूप से गणित, भाषा और बुद्धिमत्ता व तर्कशक्ति यानी रीजनिंग संबंधी सवाल होते हैं. यह कुछ-कुछ एमबीए के एंट्रेंस टेस्ट जैसा होता है. इसके नंबर फाइनल रिजल्ट में नहीं जोड़े जाते. लेकिन इसमें क्वालिफाइंग अंक लाने में भी छात्रों के पसीने छूट रहे हैं. मानविकी विषयों की पढ़ाई करने वालों के लिए यह कठिन पेपर है.'' 

सीसैट से जुड़ी शिकायत करने वाले दिग्गी राम अकेले छात्र नहीं हैं. राजस्थान के ही फतेहपुर के आदित्य पटेल अपने अकादमिक जीवन में होनहार स्टूडेंट रहे हैं. एक सामान्य किसान परिवार से आने वाले आदित्य दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर चुके हैं. वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की तरफ से होने वाली जूनियर रिसर्च फेलो परीक्षा में छह दफे चुने गए. 2017 में वे यूपीएससी में चुने गए थे. इस परीक्षा में उनकी रैंक 919 थी. रैंक के हिसाब से उन्हें आर्म्ड फोर्सेज हेडक्वार्टर सिविल सर्विसेज के लिए चुना गया. 

2020 में उन्होंने रैंक सुधारने के लिए फिर से सिविल सर्विस परीक्षा दी, लेकिन इस बार वे प्रारंभिक परीक्षा भी क्वालिफाइ नहीं कर पाए. उनके सामान्य अध्ययन के पेपर में 106 अंक थे जो कि कटऑफ से 19 ज्यादा थे. लेकिन वे सीसैट में जरूरी अंक हासिल नहीं कर पाए. आदित्य कहते हैं, ''बहुत शिकायतों के बाद भी सीसैट के पेपर में अनुवाद के स्तर में बहुत सुधार नहीं हो पाया है. यूपीएससी का कहना है कि विवाद की स्थिति में अंग्रेजी के सवाल को ही ठीक माना जाएगा. ऐसे में हिंदी का छात्र पहले हिंदी में पर्चा पढ़ता है और उसे समझने के लिए फिर से उसी प्रश्न को अंग्रेजी में पढ़ता है. इसमें काफी वक्त लगता है. लिहाजा, कई बार सवाल छूट जाते हैं.''

सिविल सर्विस परीक्षा में सीसैट का लागू होना आजाद भारत में इन परीक्षाओं के पैटर्न में एक बड़ा बदलाव माना जाता है. हालांकि यह बदलाव और इस परीक्षा में हिंदी के साथ-साथ अन्य भाषाओं पर बात तब तक बेमानी है, जब तक कि हम सिविल सर्विस परीक्षा से जुड़े सबसे बड़े बदलाव की बात न कर लें. 

यह सन् 1979 की बात है. आपातकाल के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने सिविल सर्विस परीक्षा में सुधार के लिए दौलत सिंह कोठारी समिति का गठन किया था. इस समिति ने दो मुख्य सिफारिशें दी थीं. पहली, परीक्षा को त्रिस्तरीय बनाया जाए. मतलब कि एक प्रारंभिक परीक्षा हो, जिसमें अपेक्षाकृत कम गंभीर छात्रों की छंटनी हो जाए. दूसरी सिफारिश थी कि सिविल सर्विस परीक्षा में अंग्रेजी के अलावा किसी भारतीय भाषा में जवाब लिखने की छूट दी जाए. इस समिति की सिफारिशों के बाद ही हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों के लिए सिविल सर्विस परीक्षाओं के लिए दरवाजे खुले. इससे पहले सिविल सर्विस परीक्षा का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी हुआ करता था.

2010 तक यूपीएससी की परीक्षा में हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में पेपर देने वाले छात्रों का प्रतिनिधित्व 40 से 50 प्रतिशत तक था. संघ लोकसेवा आयोग की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, हिंदी माध्यम से मुख्य परीक्षा देने वाले छात्रों की तादाद 2008 में 45, 2009 में 42 और 2010 में 35 फीसद थी. हालांकि यहां 2010 को एक अपवाद माना जाना चाहिए क्योंकि इसके पहले सालों तक हिंदी माध्यम से मुख्य परीक्षा देने वाले छात्रों की तादाद 40 फीसद से ऊपर ही रही है.

2010 में ही दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के मद्देनजर संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के उपाध्यक्ष एस.के. खन्ना के नेतृत्व में एक समिति बनाई गई थी. इस समिति ने सुझाव दिया कि सभी छात्रों को समान अवसर देने के लिए परीक्षा के ढांचे में बदलाव की जरूरत है. 2011 से पहले प्रीलिम्स (प्रारंभिक परीक्षा) में सामान्य अध्ययन के साथ-साथ एक वैकल्पिक विषय का पेपर भी होता था. उस समय छात्रों की शिकायत होती थी कि उनके वैकल्पिक विषय से छात्र कम चुने जा रहे हैं. इस समस्या से निबटने के लिए खन्ना समिति ने प्रीलिम्स से वैकल्पिक विषय का पेपर हटाकर उसकी जगह सीसैट लागू करने की सिफारिश की. मुख्य परीक्षा में भी वैकल्पिक विषयों की संख्या दो से घटाकर एक कर दी गई. तब दावा किया गया कि इन बदलावों से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में पढ़ाई करने वाले गांव-देहात के छात्रों को फायदा मिलेगा.

लेकिन सीसैट मॉडल के लागू होते ही हिंदी के छात्रों के प्रदर्शन में भारी गिरावट देखी गई. जहां हिंदी माध्यम में मुख्य परीक्षा देने वाले छात्रों की तादाद 2008 में 45, 2009 में 45 और 2010 में 35 फीसद थी,  2011 में यह आंकड़ा 15 फीसद पर आ गया. 2013 में यूपीएससी ने एक और फैसला करते हुए परीक्षा का सिलेबस बदल दिया. इस साल हिंदी माध्यम से मुख्य परीक्षा देने वालों का प्रतिशत 10 पर सिमट गया. 

2013 के परीक्षा परिणाम के बाद हिंदी माध्यम के छात्रों का सब्र जवाब दे गया. जून, 2014 में दिल्ली में यूपीएससी परीक्षा की तैयारी का गढ़ माने जाने वाले मुखर्जी नगर में छात्र सड़कों पर उतर गए. इसके अलावा प्रयागराज, बनारस, जयपुर और इंदौर में भी छात्रों ने प्रदर्शन किया. छात्रों का कहना था कि सीसैट का फॉर्मेट हिंदी और दूसरे भारतीय भाषा माध्यम के छात्रों के खिलाफ है और यह सीधे तौर पर इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पृष्ठभूमि से आए छात्रों की मदद करता है. छात्रों का यह भी आरोप था कि प्रश्नपत्र में मशीनी अनुवाद होता है. लिहाजा, हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए सवाल समझना ही अबूझ पहेली बना हुआ है. उस समय इंडिया टुडे से बात करते हुए एक आंदोलनकारी छात्र अभिषेक कश्यप ने बताया था, ''जहां आधे प्रश्न हिंदी वालों की समझ में ही नहीं आ रहे हैं, वहां सीसैट के लिए क्वालिफाइंग अंक 70 फीसद रखे हैं. यानी भारतीय भाषाओं और ग्रामीण छात्रों को आइएएस (अफसर) न बनने देने का पुख्ता इंतजाम किया गया है.''

अनुवाद के स्तर का अनुमान आप इस उदाहरण से लगा सकते हैं कि उस साल के पेपर में 'टैबलेट कंप्यूटर' का अनुवाद 'गोली कंप्यूटर' किया गया था. पर्यावरण से जुड़ी अंग्रेजी टर्म 'गो ऐंड नो गो जोन (खनन की अनुमति और उसके लिए निषिद्ध क्षेत्र)' का अनुवाद 'हां या नहीं अवधारणा' किया गया था और 'स्टार परफॉर्मर' का अनुवाद 'नायककर्ता'. 

छात्रों की दूसरी बड़ी नाराजगी सीसैट में अंग्रेजी को दी गई तवज्जो से थी. 80 सवालों वाले पेपर का दस फीसद हिस्सा छात्रों की अंग्रेजी की योग्यता परखता था. ये सवाल हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए कठिन थे. जहां एक-एक अंक के लिए जद्दोजहद हो, वहां भारतीय भाषा माध्यम के छात्रों पर ये सवाल बेहद भारी पड़ रहे थे.

हालांकि ऐसा नहीं था कि सीसैट लागू करके यूपीएससी ने छुट्टी पा ली थी. 2011 में आयोग के पूर्व चैयरमेन अरुण एस. निगवेकर की अध्यक्षता में इस नए पैटर्न की समीक्षा के लिए एक समिति बनाई गई थी. अपनी रिपोर्ट में निगवेकर समिति ने खराब अनुवाद पर सवाल खड़े किए. समिति का कहना था कि सीसैट पैटर्न शहरी पृष्ठभूमि के छात्रों को फायदा पहुंचा रहा है, जबकि ग्रामीण छात्र इसमें पिछड़ रहे हैं. निगवेकर समिति ने पाया कि सीसैट फॉर्मेट इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के छात्रों को सीधा फायदा पहुंचा रहा है और मानविकी विषयों से आए छात्रों को समान अवसर नहीं देता. हालांकि आयोग ने इस समिति की सिफारिशों को कोई तवज्जो नहीं दी.

27 जून 2014 को हजारों छात्रों ने राजघाट से प्रधानमंत्री आवास के लिए पैदल मार्च किया, लेकिन पुलिस ने उन्हें बीच में ही रोक लिया. हालांकि कुछ सौ छात्र फिर भी प्रधानमंत्री आवास तक पहुंच गए, जिन्हें पुलिस वैनों में भरकर वापस मुखर्जी नगर छोड़ आई. इस घटना के बाद छात्र और भड़क गए. 

कुछ ही दिन पहले सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार के सामने छात्रों का यह पहला बड़ा प्रदर्शन था. कार्मिक मामलों के राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह से चली वार्ता के बाद छात्रों की मांग मान ली गई. 2014 की सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेजी के आठ प्रश्नों के अंक नहीं जोड़े जाने की घोषणा की गई. 

2015 की मई में छात्रों को बड़ी राहत देते हुए सरकार ने सीसैट एग्जाम को क्वालिफाइंग बना दिया. अब छात्रों को इस पेपर में महज 33 फीसद अंक लाना जरूरी था. इसके अलावा सरकार ने इस मामले को लेकर 1967 बैच के आइएएस अधिकारी बी.एस. बासवान के नेतृत्व में अगस्त, 2015 में एक समिति बनाई. इस समिति ने अपनी रिपोर्ट अगस्त, 2016 में सरकार को दे दी. इस समिति की सिफारिशों पर अभी फैसला लिया जाना है. 

2015 में सीसैट के क्वालिफाइंग होने के बाद उम्मीद थी कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषा माध्यम के छात्रों के प्रदर्शन में आशाजनक सुधार होगा. लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं. 2015 के साल में जरूर हिंदी माध्यम के छात्रों के प्रदर्शन में आंशिक सुधार हुआ. तब हिंदी माध्यम से मुख्य परीक्षा देने वाले छात्रों का प्रतिशत 13.5 से बढ़कर 17 पर पहुंच गया. लेकिन अगले ही साल यह गिरकर 9 फीसद पर आ गया. 2020 आते-आते हिंदी माध्यम से मुख्य परीक्षा देने वालों की तादाद घटकर 4.7 फीसद पर आ गई. यही नहीं, अन्य भारतीय भाषा माध्यम मसलन उर्दू, तेलुगु, तमिल, गुजराती वगैरह से परीक्षा देने वाले छात्रों की तादाद दो फीसद भी नहीं बची.

इसकी एक वजह है भारतीय भाषा माध्यम से आने छात्रों का सीसैट क्वालिफाइ नहीं कर पाना. आदित्य पटेल कहते हैं, ''यूपीएससी ने इसे इसलिए क्वालिफाइंग रहने दिया ताकि छात्रों की विश्लेषण की क्षमता को आंका जा सके. तब कहा गया कि इसमें 10वीं के स्तर का गणित पूछा जाएगा. लेकिन पिछले तीन साल से सीसैट का पेपर बेहद कठिन आ रहा है. मानविकी छोड़िए, इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके आए छात्रों तक के पसीने छूट रहे हैं. ऊपर से अनुवाद की समस्या पहले जैसी बनी हुई है.''

दिल्ली के निर्माण आइएएस कोचिंग के संचालक कमल देव सिंह हिंदी माध्यम के छात्रों को आ रही समस्याओं को थोड़ा और विस्तार में बताते हैं, ''सामान्य अध्ययन के पेपर में भी करंट अफेयर और पर्यावरण संबंधी विषयों पर हिंदी के अखबारों में न के बराबर खबरें छपती हैं. अंग्रेजी के जिन अखबारों में ऐसी खबरें छपती हैं, वे हिंदी के छात्रों की पहुंच से दूर हैं. दूसरी समस्या सीसैट की है. इस पेपर के मुख्यत: तीन भाग हैं. गणित, रीजनिंग और कॉम्प्रिहेंशन. यहां अंग्रेजी माध्यम के इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट बैकग्राउंड के छात्र बाजी मार ले जाते हैं जबकि सिलेबस में इंट्रापर्सनल स्किल और डिसीजन मेकिंग को भी शामिल किया गया है. ये टॉपिक मानविकी विषय के छात्रों के लिए अपेक्षाकृत आसान हैं. लेकिन इन पर सवाल पूछे ही नहीं जाते.''

लेकिन दृष्टि आइएएस कोचिंग के संस्थापक और संचालक डॉ. विकास दिव्यकीर्ति इस मामले में मुख्तलिफ राय रखते हैं. वे कहते हैं, ''परीक्षा के पैटर्न में बदलाव के बाद यह सही है कि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषा माध्यमों के छात्रों के प्रदर्शन में गिरावट देखी गई है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसके पीछे जान-बूझकर की गई कोई भाषागत साजिश है. यह योग्यता की पहचान को लेकर नजरिए का संकट ज्यादा है.''

सीसैट से पहले प्रीलिम्स परीक्षा में सामान्य अध्ययन (150/450) के अलावा एक पेपर वैकल्पिक विषय का होता था और उसका वजन 66.6 फीसद (300/450) था. हर वैकल्पिक विषय से बराबर अनुपात में चयन होता था. हिंदी माध्यम और मानविकी पृष्ठभूमि के बच्चे इतिहास, राजनीति विज्ञान जैसे विषय लेकर सफल हो जाते थे. 2011 में प्रीलिम्स के ढांचे को बदल दिया गया और वैकल्पिक विषय हटाकर सीसैट लाया गया. अब सामान्य अध्ययन और सीसैट 200-200 अंकों के हो गए. 2014 के बाद सीसैट को क्वालिफाइंग कर दिया गया, लेकिन वह पेपर इतना मुश्किल होता है कि अभी भी अधिकांश बच्चे उसे क्वालिफाइ नहीं कर पाते. 

लेकिन सीसैट अकेली वजह नहीं है. वह तो प्रीलिम्स का मसला है. अंग्रेजी से इतर हिंदी सहित दूसरे भाषा माध्यम के उम्मीदवारों के प्रदर्शन में कमी की उससे बड़ी वजह है 2013 में मुख्य परीक्षा का पैटर्न बदलना. अब इसमें दो वैकल्पिक विषयों की जगह एक विषय रह गया. पहले मुख्य परीक्षा में वैकल्पिक विषयों का वजन 60 फीसद (1200/2000) था, जो अब घटकर 28.5 फीसद (500/1750) रह गया. दूसरी तरफ, सामान्य अध्ययन का वजन 30 फीसद (600/2000) से बढ़कर 57 फीसद (1000/1750) हो गया. पहले होता यह था कि हिंदी माध्यम के छात्र वैकल्पिक विषयों की अच्छी तैयारी करते थे और सामान्य अध्ययन के कम स्कोर की भरपाई वहां से कर लेते थे. अब वह संभव नहीं रहा.

लेकिन भाषा की चुनौती सिर्फ प्रीलिम्स तक सीमित नहीं है. 30 मई, 2022 को यूपीएससी ने सिविल सर्विस परीक्षा-2021 के नतीजे घोषित किए. श्रुति शर्मा इसमें अव्वल रहीं. श्रुति मूलत: पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर की रहने वाली हैं, लेकिन उनकी पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में और अंग्रेजी माध्यम से हुई है. श्रुति को यह सफलता उनके पहले प्रयास में नहीं मिली. वे चार साल से तैयारी कर रही थीं. पिछले साल भी उनका प्रीलिम्स क्वालीफाइ हो गया था, लेकिन मुख्य परीक्षा में वे महज एक अंक से चूक गई थीं. एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने बताया, ''पिछली बार फॉर्म भरने के दौरान मैंने गलती से अंग्रेजी की जगह हिंदी माध्यम चुन लिया था. इसकी वजह से मेरा चयन रुक गया था.'' 

श्रुति अकेली नहीं हैं, जिनके साथ ऐसी घटना घटी है. गौरव सोगरवाल को भी ऐसे ही हादसे से गुजरना पड़ा था. राजस्थान के भरतपुर के गौरव को यूपीएससी की 2015 की परीक्षा में 99वीं रैंक हासिल हुई थी और वे हिंदी माध्यम के टॉपर थे. गौरव की इच्छा आइएएस अफसर बनने की थी. लेकिन उन्हें भारतीय पुलिस सेवा के लिए चुना गया. वे आइपीएस ट्रेनिंग के लिए जा रहे थे. उन्होंने अपने दोस्त को फोन मिलाया और एक बार फिर से फॉर्म भरने के लिए कह दिया. गौरव को उम्मीद थी कि इस प्रयास में अगर उनका प्रदर्शन सुधरता है तो वे शायद आइएएस के लिए चुन लिए जाएं. लेकिन यहां एक गड़बड़ हो गई. गौरव की पढ़ाई-लिखाई हिंदी माध्यम में हुई थी. लेकिन उनके दोस्त ने गलती से उनका माध्यम अंग्रेजी चुन लिया. 

गौरव के लिए यह नई चुनौती थी. यह उनका आखिरी अवसर था और तैयारी के लिए महज दो महीने का वक्त. गौरव ने इस चुनौती को स्वीकार किया. उनका वैकल्पिक विषय संस्कृत था. लेकिन सामान्य अध्ययन और निबंध के पर्चे उन्हें अंग्रेजी में ही देने थे. उन्होंने अपनी परीक्षाएं अंग्रेजी में ही दीं. हालांकि अब भी उनका अंग्रेजी पर वह अधिकार नहीं था जो हिंदी पर हुआ करता था. लिहाजा उन्हें सफल होने की बहुत उम्मीद नहीं थी. गौरव याद करते हैं, ''मैं अंग्रेजी में कच्चा नहीं था, लेकिन मेरी स्कूली पढ़ाई हिंदी में हुई थी. मैं जितना हिंदी में सहज था, उतना अंग्रेजी में नहीं. मैंने अपने जवाब अंग्रेजी में लिख जरूर दिए, लेकिन मैं उनसे बहुत संतुष्ट नहीं था. लेकिन जब नतीजे आए तो मैं खुद भी चौंक गया. मैंने बेहद संक्षिप्त और बिंदुवार जवाब लिखे थे. शायद एग्जामिनर को यही पसंद आया.''

श्रुति और गौरव को एक ही किस्म की गलती के दो अलग-अलग नतीजे मिले. जहां एक तरफ श्रुति महज एक अंक से इंटरव्यू के लिए रह गईं. वहीं गौरव को माध्यम बदलने का फायदा मिला. उनके अंक और रैंक दोनों सुधरे. 

कमल देव सिंह इस विसंगति को समझाते हुए कहते हैं, ''यूपीएससी परीक्षाओं में एक बड़ी दिक्कत कॉपी जांचने के पैटर्न में है. अक्सर एक ही एग्जामिनर हिंदी और इंग्लिश, दोनों की कॉपी जांचता है. समस्या यहां है कि जिन लोगों की तरबियत हिंदी में लिखने और पढ़ने की नहीं है, वे जवाब का ठीक मूल्यांकन कैसे कर पाएंगे?'' 

सिविल सेवा परीक्षा की प्रणाली की समीक्षा के लिए 1989 में सतीश चंद्र के नेतृत्व में बनी समिति ने मुख्य परीक्षा के मूल्यांकन को पारदर्शी बनाने के लिए लिखित परीक्षा की उत्तर पुस्तिका दो अलग-अलग एग्जामिनर से जांच करवाने की बात कही थी. वहीं 2012 में निगवेकर समिति की सिफारिश थी कि हिंदी माध्यम के छात्रों की कॉपी की जांच हिंदी भाषा के जानकारों से ही करवाई जाए. यूपीएससी की तरफ से अब तक ऐसा कोई सर्कुलर जारी नहीं हुआ है जिससे पता चले कि उसने इन समितियों की सिफारिशों को माना है. 

क्या हिंदी माध्यम के छात्र मुख्य परीक्षा और इंटरव्यू में भी पिछड़ रहे हैं? कम से कम आंकड़े तो यही कहते हैं. मसलन, 2017 में कुल 2,564 उम्मीदवारों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. इनमें से 2,271 छात्रों ने इंटरव्यू के लिए अंग्रेजी माध्यम को चुना जबकि 248 छात्रों ने हिंदी को. 49 उम्मीदवारों ने अन्य भारतीय भाषाओं में इंटरव्यू देना पसंद किया. इस लिहाज से देखा जाए तो तकरीबन 10 फीसद उम्मीदवारों ने हिंदी माध्यम का चुनाव किया. यूपीएससी अपने अंतिम परिणाम में उम्मीदवार के माध्यम का जिक्र नहीं करता, इसलिए चुने गए उम्मीदवारों का माध्यम के आधार पर सटीक आंकड़ा नहीं मिलता.

लेकिन लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (एलबीएसएनएए) के आंकड़े सूरतेहाल की एक झलक दे देते हैं. यह संस्थान तमाम ऑल इंडिया सर्विस के लिए चुने गए उम्मीदवारों को चार महीने का फाउंडेशन कोर्स करवाता है. इसके आंकड़ों से पता चलता है कि जहां 2017 में इंटरव्यू के लिए बुलाए गए कुल उम्मीदवारों में हिंदी माध्यम के छात्रों का प्रतिशत दस था. इनमें से अंतिम रूप से चुने छात्रों ने 2018 के फाउंडेशन कोर्स में ट्रेनिंग ली. संस्थान द्वारा उपलब्ध करवाए गए आंकड़ों के मुताबिक, ट्रेनिंग के लिए आए कुल 370 चयनित उम्मीदवारों में से हिंदी भाषा में ट्रेनिंग लेने वालों की संख्या 8 थी. इसका मतलब यह कि इंटरव्यू के लिए आए हिंदी माध्यम के 10 फीसद छात्रों में महज दो फीसद उम्मीदवार ही अकादमी पहुंच पाए. लेकिन इसकी वजह क्या है?

सिविल सर्विस परीक्षा में आखिरी चरण—इंटरव्यू या व्यक्तित्व परीक्षण काफी फिसलन भरा है. यूपीएससी हर साल इंटरव्यू के लिए अलग-अलग बोर्ड बनाता है. कई बोर्ड छात्रों के मूल्यांकन में उदारता बरतते हैं तो कुछ सख्ती से भी पेश आते हैं. ऐसे में उम्मीदवार को कौन-सा बोर्ड मिला है, यह उसके अंतिम परिणाम पर काफी असर डालता है. इस विसंगति को ध्यान में रखते हुए निगवेकर समिति ने तीन दिन के इंटरव्यू की सिफारिश की थी. समिति का कहना था कि उम्मीदवार का सभी बोर्ड में इंटरव्यू होना चाहिए. अंतिम परिणाम में तमाम बोर्ड से मिले अंकों का औसत जोड़ा जाना चाहिए. इतना ही नहीं इस समिति ने हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के छात्रों के लिए इंटरव्यू के दौरान सहज माहौल बनाने पर जोर दिया था. समिति ने यह भी कहा था कि हिंदी माध्यम के छात्रों का इंटरव्यू वही लोग लें, जिन्हें खुद हिंदी आती हो. हालांकि समिति की इन सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया.

2013 में सिविल सर्विसेज एग्जाम के सिलेबस का बदलना भी भारतीय भाषा माध्यम के छात्रों के लिए किसी मुसीबत से कम नहीं था. छात्रों की आम शिकायत थी कि उन्हें पढ़ने के लिए सामग्री नहीं मिलती है. लेकिन अब हालात बहुत अलग हैं. पतंजलि आइएएस के संचालक धर्मेंद्र कहते हैं, ''2015-16 तक हिंदी में भी पाठ्य सामग्री आसानी से मिलने लगी. अब हालात पूरी तरह से बदल गए हैं. एक-एक विषय पर इतना मटीरियल है कि स्टुडेंट कुछ भी कायदे से नहीं पढ़ पाता. चूहों की दौड़ है. हिंदी के ज्यादातर छात्र रद्दी जुटाने में खुद को खपा दे रहे हैं.'' 

वहीं यूपीएससी के चेयरमैन रह चुके दीपक गुप्ता अपनी किताब द स्टील फ्रेम: अ हिस्टरी ऑफ द आइएएस में हिंदी और दूसरी भारतीय भाषा माध्यम के छात्रों के साथ हो रहे भेद-भाव के आरोपों को बेबुनियाद बताते हैं. वे लिखते हैं, ''अंग्रेजी माध्यम के उम्मीदवारों को बाकियों के मुकाबले अगर कोई भी फायदा मिलता था तो संपूर्ण परीक्षा का जो वर्तमान ढांचा है, उसने कई तरह से इसे ठीक कर दिया है, जैसे—प्रश्नपत्र अब हिंदी और अंग्रेजी, दोनों माध्यमों में आते हैं, उत्तर आठवीं अनुसूची में दी गई किसी भी भाषा में लिखा जा सकता है, व्यक्तित्व परीक्षण (साक्षात्कार) भी पसंद की भाषा में दिया जा सकता है. यहां तक कि अंग्रेजी के कॉम्प्रिहेंशन (बोधगम्यता) का स्तर भी काफी नीचे रखा गया है.''

हालांकि सिविल परीक्षा के नतीजे और दीपक गुप्ता के तर्कों के बीच बड़ा विरोधाभास दिखाई देता है. खन्ना समिति की सिफारिशों के बाद सिविल सर्विस परीक्षा में हुए सुधारों को एक दशक का वक्त बीत गया है. आंकड़े गवाही देते हैं कि इस एक दशक में न सिर्फ हिंदी बल्कि दूसरी भारतीय भाषाओं के छात्रों का प्रदर्शन लगातार गिर रहा है. सफल उम्मीदवारों में हिंदी और देसी भाषाओं के छात्रों की भागीदारी पांच फीसद भी नहीं है. ऐसे में इस पैटर्न का मूल्यांकन भी जरूरी है.

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