यूनिवर्सल हेल्थ: सबको स्वास्थ्य का लक्ष्यहीन सफर
सार्वभौमिक स्वास्थ्य के मामले में भारत की स्थिति पड़ोसी और ब्रिक्स देशों से बेहद खराब है. ऐसे में लक्ष्य के बिना भारत सरकार का यूएचसी का सफर कैसे होगा पूरा?

अगर सरकारी आंकड़ों (एनएसएसओ-2014) पर ही ऐतबार कर लिया जाए तो आज करीब 10 लाख लोग धन की कमी या स्वास्थ्य ढांचे के अभाव में इलाज की सुविधा नहीं ले पाते. जबकि करीब 8 करोड़ आबादी हर साल इलाज के भारी-भरकम बोझ की वजह से अपनी संपत्तियों को बेचकर गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं. जबकि 30 करोड़ लोग पहले ही बीपीएल हैं जो इलाज पर खर्च की वजह से और गरीब होते जा रहे हैं.
भारत में सिर्फ सरकार नहीं, बल्कि आम जनता भी स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति जागरुक नहीं है. यही वजह है कि चुनावों में बिजली, सड़क, पानी की बात होती है, लेकिन स्वास्थ्य प्रमुखता के साथ नहीं आता. लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री गांवों को बिजली युक्त करने की बात तो करते हैं लेकिन कभी उनकी बात नहीं होती जो स्वास्थ्य पर खर्च की वजह से बीपीएल हो जाते हैं या जो पैसे के अभाव में स्वास्थ्य सुविधा नहीं लेते. हालांकि शायद यह पहला मौका है जब किसी राजनैतिक दल ने अपने चुनाव घोषणापत्र में यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज की बात की. 2014 के चुनाव में भाजपा ने यूएचसी की बात तो की, लेकिन लोगों को खुद नहीं पता कि यूएचसी है क्या? देश के हर नागरिक को प्राथमिक से हर स्तर की सभी जरूरी स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना ही यूएचसी है जिसमें सबको सहज, सुलभ और गुणवत्तापूर्ण सुविधा मिल सके. यूएचसी की शुरुआत 19वीं सदी में जर्मनी से हुई थी, जहां मजदूर अपने जीवन स्तर में सुधार केलिए आंदोलरत थे. तब जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क ने रणनीति अपनाई. युवाओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी ताकि अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को बढ़ाया जा सके और औपनिवेशिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए मजबूत सैन्य बल मिले. फिर 1948 में ब्रिटेन ने नेशनल हेल्थ सर्विस की शुरुआत की. उस समय निजी क्षेत्र स्वास्थ्य में हावी था, लेकिन तत्कालीन क्लामेंट एटली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री एन्यूरिन बेवन ने सरकार और निजी क्षेत्र के साथ मिलकर इस योजना को आगे बढ़ाया. ब्रिटेन की सोच थी कि बीमारी के डर से लोगों में परिवार के भविष्य को लेकर जो असुरक्षा की भावना रहती है वह दूर हो जाएगी. यानी इन देशों ने अपने लोगों के स्वास्थ्य के बाद सैन्य शक्ति की ओर ध्यान दिया. लेकिन भारत और रूस ऐसे देश हैं जहां रक्षा बजट सबसे ज्यादा है. स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार में बनाने की मांग उठने लगी है. लेकिन राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति- 2017 भी स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकार में लाने की बात पर अपनी कमियों को स्वीकार करता है. नीति में लिखा है, ''स्वास्थ्य के अधिकार को तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक स्वास्थ्य ढांचा जैसे डॉक्टर-मरीज, रोगी-बिस्तर, नर्स-रोगी अनुपात अनुकूल हो और सारे देश में एक समान सुविधा हो.''
स्वास्थ्य ढांचे के मामले में कमजोरी को सरकार खुद कबूल रही है. लेकिन भारत जिस तरह से दुनिया में अपनी धमक जमा रहा है, उसे अपनी आबादी की स्वास्थ्य सुरक्षा की ओर भी लक्ष्य बनाकर ध्यान देना होगा. लांसेट के एक अध्ययन के मुताबिक, स्वास्थ्य पर निवेश करने से 10 गुणा रिटर्न मिलता है. अगर स्वास्थ्य सुविधा बेहतर होने से व्यक्ति की उम्र में एक साल का इजाफा होता है तो उत्पादकता बढऩे से जीडीपी में 4 फीसदी की सालाना बढ़ोतरी होती है. नीति आयोग में सभी राज्यों के मुख्य सचिवों के समक्ष 10 जुलाई को स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने प्रजेंटेशन में बताया है कि निदान की जाने वाली बीमारियों और गैर संक्रामक रोगों से होने वाली मौतों का आर्थिक आकलन किया जाए तो 2030 तक वह भारत की मौजूदा जीडीपी के दोगुने से ज्यादा होगी.
लक्ष्य बिना कैसे यूएचसी का सफर?
आंकड़े बताते हैं कि आज भी देश में इलाज पर लोग अपनी क्षमता से बाहर 70 फीसदी खर्च करने को मजबूर हैं. हालांकि दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने इस मामले में अच्छी पहल की है. दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में वेटिंग होने पर निजी अस्पतालों में मुक्रत सर्जरी की सुविधा, फ्री जांच होगी. केंद्र सरकार ने भी कई योजनाओं के साथ यूएचसी की दिशा में कदम बढ़ाया है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा इंडिया टुडे से कहते हैं, ''मोदी सरकार में स्वास्थ्य शीर्ष प्राथमिकताओं में है. नई स्वास्थ्य नीति में हम रोग से निरोग की ओर बढ़े हैं. हमारी सरकार अंतिम व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध है.'' लेकिन विडंबना है कि अब स्वास्थ्य पर 2.5 फीसदी खर्च का लक्ष्य सरकार ने रखा है, लेकिन 2002 में भी नीति बनाते वक्त 2010 तक इसे 2 फीसदी करने का लक्ष्य रखा था, लेकिन आज भी 1.2 फीसदी तक ही है. संस्थागत प्रसव में दोगुनी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन मृत्यु दर गिरावट का अनुपात उतना नहीं है. हालांकि सरकारी खर्च को 2.5 फीसदी तक पहुंचाने के मामले में केंद्र-राज्य दोनों की जिम्मेदारी बनती है. लेकिन यूएचसी का लक्ष्य कब तक पूरा होगा, सरकार इस पर मौन है. जवाब है—अभी यूएचसी का सफर शुरू हुआ है, कोई समय सीमा तय नहीं. तो सवाल है कि कब तक लोग अभाव में मरते रहेंगे?