किसानों की विधवाएं: उनकी खुदकुशी, ये रोज मर रहीं
पति के आत्महत्या करने के बाद टूट चुकीं और ससुराल से ठुकरा दी गईं विदर्भ की विधवाओं के पास न जीने को कोई ठिकाना है, न सहारे के लिए कोई कंधा.

अठारह साल की उम्र में शादी का बंधन स्वीकार कर चुकी रूपाली नागपुरे को इतनी जल्दी गृहस्थी बसा लेने का कोई गिला नहीं है. उनके पति संदीप किसान थे जो महाराष्ट्र के अकोला स्थित डोंगरगांव की अपनी दो एकड़ जमीन पर सोयाबीन और तूर (अरहर) उगाते थे. उनके पास अपना मकान भी था और पांच साल पहले बेटे शिवम के जन्म के बाद इस दंपती को यह संतोष था कि उनके पास वह सब कुछ था जो उन्होंने चाहा था. वे अमीर नहीं थे, लेकिन उनकी जिंदगी सुकून भरी थी.
चार साल पहले किस्मत का पहिया घूमा. पहले खराब मॉनसून की वजह से फसल नष्ट हो गई. साल काटने के लिए संदीप को 35,000 रु. का कर्ज लेना पड़ा. अगले साल भी मॉनसून खराब रहा और फिर से फसल नष्ट हो गई. संदीप कर्ज से लद चुके थे. निराशा में उन्होंने जिंदगी का दामन छोड़ देने का फैसला ले लिया. रूपाली इस सदमे से टूट गईं, लेकिन उन्हें इतना संतोष था कि उनके पास खेतीबाड़ी अब भी है. बदकिस्मती का सिलसिला हालांकि खत्म नहीं हुआ था. उनके ससुरालवालों ने कहा कि वे उन्हें घर में नहीं रखना चाहते. वे बताती हैं कि उनसे कहा गया कि वे उनका 'बोझ' उठाने को तैयार नहीं हैं. यह कहते हुए उनकी आंखें भर आती हैं, ''वे शिवम को चाहते थे, मुझको नहीं. उन्होंने कहा कि वे उसे पाल लेंगे. सवाल है कि आखिर मैं उसके बगैर कैसे रह पाऊंगी? ''
जुलाई, 2016 में राज्यसभा में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2015 में 3,228 किसानों ने महाराष्ट्र में खुदकुशी की. इसका एक आशय यह भी बनता है कि पिछले साल रोजाना नौ किसानों ने अपनी जान दी थी. इससे भी बुरी बात यह है कि यह संख्या देश में किसी भी साल के मुकाबले सबसे ज्यादा रही. विदर्भ और मराठवाड़ा में किसानों की आबादी 57 लाख है और राज्य में होने वाली कुल आत्महत्या में इनका हिस्सा अकेले 83 फीसदी है. इस साल की पहली छमाही में करीब 600 किसानों खुदकुशी कर चुके हैं. विदर्भ के चार जिले—अमरावती, अकोला, यवतमाल और वर्धा किसानों की कब्रगाह में तब्दील हो चुके हैं.
सतत कृषि और ग्रामीण विकास पर काम करने वाले चेन्नै स्थित एनजीओ एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन के अफसर मंदा बोंडवे कहती हैं कि लालफीताशाही इस मामले में आड़े आ जाती है. ग्रामीण महाराष्ट्र में जमीन का स्वामित्व जिस सरकारी कागजात से तय होता है, उसे 7/12 प्रॉपर्टी एक्सट्रैक्ट कहते हैं. बोंडवे बताती हैं, ''ढाई एकड़ से कम जमीन होने पर इस कागज में किसी का नाम नहीं जोड़ा जा सकता. इसीलिए विधवाएं हमेशा अपनी ससुराल की संपत्ति में उत्तराधिकारी ही बनी रहती हैं, उन्हें कभी मालिकाना हक नहीं मिल पाता. उनके पास खेतिहर मजदूर के बतौर काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. ''
सबसे बुरी बात यह है कि उसके जैसे लोगों के लिए सरकारी मदद न के बराबर है, सिवाए एक योजना के जिसका नाम है संजय गांधी निराधार योजना (एसजीएनवाइ), जिसके अंतर्गत विधवा और बुजुर्ग लोगों को मासिक 900 रु. की पेंशन मिलती है. वनमाला को वैसे भी सरकार पर भरोसा नहीं है. वे 19वीं सदी के शेगांव के संत गजानन महाराज की भक्त हैं और दैवीय ताकत में भरोसा करती है. वे कहती हैं, ''ईश्वर हमारी मदद करेगा. ''
26 साल की दुर्गा रामगड़े यवतमाल जिले के यरद गांव की हैं और 100 रु. की दिहाड़ी पर खेतिहर मजदूरी करती हैं. उनके दो बच्चे हैं. घर चलाने के लिए उन्होंने एक लघुवित्त कंपनी से 10,000 रु. का कर्ज लिया है. वे कहती हैं, ''मुझे 630 रु. हर हफ्ते चुकाने होते हैं. ऐसा न कर पाने पर कंपनी भारी ब्याज वसूलती है. '' दुर्गा को रोज काम नहीं मिल पाता. अक्सर कई हफ्ते वह कर्ज की किस्त नहीं चुका पाती है. पुराना कर्ज चुकाने के लिए उसे नया कर्ज लेना पड़ता है. वे कहती हैं, ''और क्या विकल्प है मेरे पास? हर कोई यही करता है. ''
ग्रामीण महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाले एनजीओ संपदा ट्रस्ट के वसंत कोर्डे बताते हैं कि कम से कम 17 लघुवित्त कंपनियां यवतमाल में काम कर रही हैं. वे बताते हैं, ''इस धंधे में बड़े बैंक जैसे एचडीएफसी, आइसीआइसीआइ, रत्नाकर बैंक और एलऐंडटी भी हैं. ये औरतें कर्ज के चक्र में फंसती जा रही हैं. कर्ज से उन्हें अपनी समस्याएं सुलझाने में कोई खास मदद नहीं मिलती. ''
अमरावती के सावल की 40 वर्षीया विधवा सोनाली सायवान के पति गजानन ने चार साल पहले 41 वर्ष की उम्र में खुदकुशी कर ली थी. उसके बाद उनकी जिंदगी लगातार रसातल में चली गई है. खुदकुशी के तुरंत बाद उनके ससुर ने घर छोडऩे को कह दिया क्योंकि वे अपने दूसरे बेटे संजय को यह मकान और तीन एकड़ जमीन देना चाहते थे. फिलहाल 100 रु. की दिहाड़ी पर खेतिहर मजदूरी करने वाली सोनाली अपने 13 साल के बेटे विशाल और 10 साल की बेटी रोहिणी के साथ किराए के मकान में रहती हैं. वे आरोप लगाती हैं कि उनकी ससुरालवालों ने राशन कार्ड में से उनका नाम कटवा दिया, जिससे उन्हें सब्सिडीयुक्त खाद्यान्न और ईंधन मिलना बंद हो गया. वे कहती हैं, ''मेरे ससुरालवालों से ज्यादा तो मेरे पड़ोसी मददगार सिद्ध हुए हैं. राशन कार्ड में नाम जोडऩे के लिए जो जरूरी कागजात चाहिए थे, वे मैं राजस्व कार्यालय में जमा नहीं करवा सकी. सरकारी अफसर कहते हैं कि पहले टैक्स भरो, तब कागजात ले जाना. '' उनके बच्चे स्थानीय जिला परिषद स्कूल में पढ़ते हैं लेकिन अगले साल से उनके बेटे को पढ़ाई के लिए 10 किमी दूर धमनगांव तक जाना होगा क्योंकि मौजूदा स्कूल केवल आठवीं तक है. वे कहती हैं, ''इससे मेरा खर्च बढ़ जाएगा. पता नहीं, मैं संभाल पाऊंगी या नहीं. ''
इस कहानी की शुरुआत में हमने जिस रूपाली नामक महिला की बात की थी, उसे भी अपने बच्चों को पढ़ाने में दिक्कत आ रही है. शिवम की पढ़ाई पर उसे सालाना 3,600 रु. खर्च करने पड़ते हैं. उसे कॉपी में अंग्रेजी का 'बेबी' लिखते दिखाते हुए वे कहती हैं, ''वह पढऩे में तेज है. अगर मुझे खेती की जमीन का मालिकाना हक मिल गया, तब या तो मैं खुद खेती करूंगी या फिर उसे बेचकर शिवम की पढ़ाई पूरी करवाऊंगी. ''
एक एकड़ जमीन की कीमत यहां करीब 25 लाख रु. है, लेकिन उसे पाने की पहली शर्त यह है कि कानून उसके हक में हो.