शर्म अल-शेख के चार बड़े सबक
जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने की दिशा में अब चीन और भारत जैसे देशों को अपनी जिम्मेदारियां टालना मुश्किल होगा. इन देशों के ऊपर दबाव होगा कि वे जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए ज्यादा से ज्यादा योगदान दें

चंद्र भूषण
मिस्र के शर्म अल-शेख में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के पक्षकारों के 27वें सम्मेलन (सीओपी 27) की शुरुआत कम उम्मीदों के साथ हुई थी. लेकिन अनुमानों के उलट, सम्मेलन ऐसे चार प्रमुख निष्कर्षों तक पहुंचने में सफल रहा, जिनके ऊर्जा उत्पादन में बदलाव और अंतरराष्ट्रीय जलवायु सहयोग के क्षेत्रों में दूरगामी प्रभाव होंगे.
सम्मेलन विकसित देशों को बाध्य कर सका कि वे विकासशील देशों में जलवायु आपदाओं के लिए भुगतान करने के लिए सहमत हों. इस बात को विकसित देश पिछले तीन दशकों से अस्वीकार कर रहे थे. धनी देश हानि एवं क्षति (एल-ऐंड-डी) पर किसी भी समझौते को हमेशा अटकाते रहे हैं क्योंकि इससे वे जलवायु संकट में उनके ऐतिहासिक योगदान के लिए उत्तरदायी बनते हैं. इन देशों ने शर्म अल-शेख में भी ऐसा ही किया. अंतत:, विकासशील देशों के जबरदस्त दबाव में वे एल-ऐंड-डी के लिए कई शर्तों के साथ एक नई फंडिग व्यवस्था बनाने पर सहमत हुए.
इन शर्तों में, उदाहरण के लिए, यह भी शामिल है कि यह फंड केवल जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कमजोर देशों (जिसमें भारत शामिल नहीं हो सकता) को ही सहयोग देगा और इसमें योगदान न केवल विकसित देशों का होगा, बल्कि विविध स्रोत होंगे जिसमें उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं और दक्षिणी गोलार्ध के धनी देश शामिल हो सकते हैं. फिर भी, एल-ऐंड-डी समझौते के साथ, अंतरराष्ट्रीय जलवायु सहयोग का ढांचा पूरा हो गया है—आपदा को टालने के लिए उपाय, क्षति कम करने के लिए अनुकूलन और नुक्सानों की भरपाई के लिए एल-ऐंड-डी. तीनों में से, उपायों का रास्ता चुनना सबसे सस्ता और एल-ऐंड-डी के लिए भुगतान करना सबसे महंगा है. इससे बड़े प्रदूषणकर्ता बाढ़, सूखे और चक्रवातों के लिए अरबों के भुगतान का उत्तरदायी बनने के बजाए उत्सर्जन में कटौती करने के लिए प्रेरित होंगे.
सीओपी 27 कुछ ऐसी बातों पर समझौता कर सका जिन पर संयुक्त राष्ट्र के किसी भी जलवायु सम्मेलन में पहले बात नहीं बनी थी. इनमें ग्लोबल वॉर्मिंग को सीमित करने के आवश्यक तत्व जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से बाहर करना शामिल है. और इस पर चर्चा होने का श्रेय भारत को मिलना चाहिए. पिछले साल ग्लासगो में जब सभी राष्ट्र ग्लोबल वॉर्मिंग सीमित करने के लिए कोयले का उपयोग चरणबद्ध तरीके से सीमित करने पर सहमत हुए थे, तब तेल और गैस पर निर्भर बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के दबाव में वे तेल और गैस पर चुप्पी साधे रहे थे.
इस बार भारत ने जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने की आवश्यकता की ओर संकेत किया और अमेरिका तथा यूरोपीय संघ के देशों सहित लगभग 80 देशों का समर्थन प्राप्त किया. दुर्भाग्य से सऊदी अरब और रूस के विरोध के कारण तेल-गैस का उपयोग चरणबद्ध तरीके से कम करने के मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई. फिर भी, शर्म अल-शेख ने जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, और यह केवल समय की बात है कि भविष्य की किसी सीओपी में इसे स्वीकार कर लिया जाए.
ऊर्जा उत्पादन में इस तरह का बदलाव जिसके केंद्र में आबादी हो जीवाश्म ईंधन का उपयोग घटाना—यह जीवाश्म ईंधन पर निर्भर विकासशील देशों में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में उभरा. सीओपी 27 के दौरान ही इंडोनेशिया में कोयले का उपयोग कम करने के लिए बाली में चल रही जी-20 बैठक में इंडोनेशिया और जी-7 देशों के बीच 20 अरब डॉलर का समझौता हुआ. दक्षिण अफ्रीका और जी-7 ने भी पिछले साल जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन पार्टनरशिप (जेट-पी) कहे जाने वाले 8.5 अरब डॉलर के ऐसे ही समझौते पर हस्ताक्षर किए थे.
भारत के सामने भी एक जेट-पी समझौते की पेशकश की गई थी. हालांकि भारत ने इस प्रस्ताव को भविष्य की वार्ताओं के लिए टाल दिया. जेट-पी से संकेत लेते हुए सीओपी 27 में पक्षकार अन्य विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन के उचित बदलाव के वास्ते समर्थन बढ़ाने के लिए एक संभावित समझौते पर बातचीत करने पर सहमत हुए हैं.
सीओपी 27 ने 1992 के सम्मेलन में उल्लिखित विकसित और विकासशील देशों के वर्गीकरण को भी और कमजोर किया है. एल-ऐंड-डी के लिए कौन भुगतान करे, के सवाल ने सबका ध्यान चीन पर केंद्रित किया जो सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक और ग्रीनहाउस गैसों का दूसरा सबसे बड़ा ऐतिहासिक उत्सर्जक है. कई विकसित और विकासशील देशों ने इस तथ्य पर सवाल उठाया कि चीन बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव में अरबों डॉलर लगा रहा है, लेकिन यूएनएफसीसीसी में खुद को विकासशील देश कहलाना पसंद करता है.
सऊदी अरब, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर जैसे देशों पर भी यही बात लागू होती है. यह स्पष्ट है कि अब से चीन जैसे देशों के लिए जलवायु संकट के लिए बड़ी जिम्मेदारी से बचना चुनौतीपूर्ण होगा. भारत पर भी और अधिक योगदान देने का दबाव होगा, क्योंकि यूएनएफसीसीसी में वह पारंपरिक रूप से चीन के साथ जुड़ा हुआ है. समग्र रूप से देखें तो सीओपी 27 ने अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं की प्रकृति बदल दी है. भारत सरकार के लिए इन बदलावों को पहचानना और देश के विकास तथा जलवायु एजेंडे को एक साथ आगे बढ़ाने के लिए अपनी वार्ता रणनीति पर फिर से विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है.
(लेखक इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी ऐंड टेक्नोलॉजी (आइफॉरेस्ट) के सीईओ हैं)