आपराधिक लापरवाही
गंभीर समाधान के लिए दंड प्रक्रिया की जांच जरूरी है, इसलिए किसी को ऐसे अनुसंधान का काम सौंपना समिति का पहला तार्किक कदम होना चाहिए था

मयूर सुरेश
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ‘दंड कानूनों में सुधारों के लिए समिति’ बनाई है. यह समिति दंड न्याय के तीन बुनियादी कानूनों, भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय कानून अधिनियम में बदलाव प्रस्तावित करेगी. मामूली से लेकर असाधारण तक ऐसी मिसालों की कमी नहीं, जो बताती हैं कि भारत की दंड संहिता समस्याओं से जकड़ी है.
हालिया घटनाओं से पता चला कि गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम सरीखे गैरमामूली दंड कानूनों का इस्तेमाल किस तरह असहमतियों को दबाने के लिए किया जा सकता है. आरोप से पहले गिरफ्तारी और हिरासत जैसी प्रक्रिया से जुड़े नियमित पहलुओं का मतलब यह है कि हजारों लोग पर्याप्त कारण बताए बगैर गिरफ्तार किए और महीनों तक हवालात में रखे जाते हैं.
दूसरे मुद्दे भी हैं जिनके बारे में ज्यादातर को कम ही पता है. मसलन, आपराधिक मुकदमे की औसत लंबाई क्या है? या साल-दर-साल पुलिस के हाथों गिरफ्तार लोगों की जातिगत, धार्मिक और लैंगिक बनावट क्या है? दंड प्रक्रिया की बुनियादी जानकारियां हमारे पास नहीं हैं.
ये जानकारियां नहीं होने से समिति परेशान नहीं है. उसने समस्याओं को पहचाने और शायद समझे बगैर ही उनके समाधान प्रस्तावित करना शुरू कर दिया है. समिति की वेबसाइट पर अकेली गड़बड़ी यह पहचानी गई है कि ये कानून उपनिवेश काल में बने थे और मौजूदा भारतीय परिप्रेक्ष्य में गैरमौजूं हैं. यकीनन समस्या को इससे कहीं ज्यादा स्पष्ट करने की जरूरत है.
गड़बड़ियों का गंभीरता से पता लगाने के लिए दंड प्रक्रिया की बारीकी से जांच जरूरी है, और इसलिए किसी को ऐसे अनुसंधान का काम सौंपना समिति का पहला तार्किक कदम होना चाहिए था. मसलन, मुकदमों में इतना लंबा वक्त क्यों लगता है? यह शिकायत बार-बार की जाती है और ‘समयबद्ध मुकदमा’ पक्का करने के लिए धुंधली आकांक्षाओं के अलावा देरी की वजहों के अनुभव-आधारित प्रमाण की जरूरत है. दंड कानून की जिंदा हकीकत में समिति की दिलचस्पी दिखाई नहीं देती.
यह बेरुखी समिति की अपनी बनावट और उसके काम के तरीके से भी जाहिर होती है. भारत के दंड कानूनों के एक सबसे महत्वाकांक्षी पुनर्मूल्यांकन की शुरुआत कर रही इस समिति में तमाम समुदायों का प्रतिनिधित्व होना और उसे व्यापक सार्वजनिक सलाह-मशविरा करना चाहिए था. चूंकि महामारी के बीचोबीच यह मुमकिन नहीं था, लिहाजा उसे इस काम को व्यापक सर्वे के व्यावहारिक हालात बनने तक टाल देना चाहिए था. इसके बजाए समिति ने इलेक्ट्रॉनिक 'सलाह-मशविरे’ की आसान लेकिन अलोकतांत्रिक कवायद शुरू कर दी है.
इन ‘सलाह-मशविरों’ में हिस्सा लेने के लिए या तो एक ऑनलाइन फॉर्म में कमेंट लिखने होते हैं या समिति की बेवसाइट पर रजिस्टर करके एक विशिष्ट आइडी लेनी पड़ती है, जिसके बाद समिति दंड कानून में सुधारों से जुड़ी सिलसिलेवार प्रश्नावलियां भेजेगी.
ये प्रश्नावलियां आम जनता की पहुंच से बाहर हैं और समिति दंड प्रक्रिया से जुड़े उनके अनुभवों को समझने के लिए आगे बढ़कर समाज के तमाम हिस्सों तक पहुंचने की कोई कोशिश नहीं कर रही है. ये ई-कंसल्टेशन भागीदारी को अंग्रेजी में समर्थ ऐसे लोगों तक सीमित कर देते हैं जिन्हें कंप्यूटर, इंटरनेट कनेक्शन और इस संकरी तथा अपारदर्शी प्रक्रिया में शामिल होने के दूसरे साधन सुलभ हैं.
खुद प्रश्नवालियों से भी सुधार के व्यापक लेकिन बेतरतीब तरीके की झलक मिलती है. मसलन, पहली प्रश्नावली (फिलहाल प्रश्नावली की केवल दो शृंखलाएं मौजूद हैं) के भाग ए में दो खंड हैं. एक ‘सख्त जवाबदेही’ और दूसरा सजाओं के बारे में. दंड कानून में 'सख्त जवाबदेही’ के सिद्धांत को लेकर खासा विवाद है, क्योंकि यह मंशा की परवाह न करते हुए लोगों को जिम्मेदार ठहराने की वकालत करता है. समिति ने इस प्रश्न को सामने रखने का फैसला क्यों किया, यह परिप्रेक्ष्य की गैरमौजूदगी में हैरान करने वाला है.
यही नहीं, समिति ने जटिल नैतिक मुद्दों को ऐसे प्रश्नों में बदल दिया है जिनके सरलीकृत उत्तर ही दिए जा सकते हैं. मसलन, भाग सी का प्रश्न 7 पूछता है कि 'क्या आइपीसी का (आत्महत्या को परिभाषित करने वाला प्रावधान) सक्रिय इच्छामृत्यु का अपवाद जोडऩे के लिए संशोधित किया जाना चाहिए?’
या प्रश्न 14 इस प्रकार है, ''आइपीसी के तहत (यौन हमले को आपराधिक बनाने वाले प्रावधान में) स्वीकृति का मानक क्या होना चाहिए?’ ये पेचीदा सवाल हैं जिनकी परत-दर-परत समझ जरूरी है; ये बहस की मांग करते हैं; इनका जवाब ऑनलाइन फॉर्म में नहीं दिया जा सकता.
इतनी विशालकाय—और अहम—कवायद के लिए समिति को आदेश दिया गया लगता है कि वह सामुदायिक भागीदारी को सरसरी ढंग से निपटा दे और इने-गिने लोगों को सुलभ इलेक्ट्रॉनिक प्रश्नावली पर भरोसा करे, जो वह कर रही है. जहां अन्य संस्थाओं ने दंड कानूनों में बदलाव सुझाने के लिए बरसों या दशकों तक व्यापक मशविरा और सतर्क बहसें कीं, वहीं यह समिति मानती है कि वह यह भारी-भरकम काम छह महीनों में पूरा कर सकती है.
कानूनी सुधार की प्रक्रिया के बारे में दंड संहिता के मूल मसौदा लेखक के चेतावनी से भरे शब्दों को याद कीजिए, ‘‘हम जिस काम में लगे हैं, वह अज्ञानियों और नातजुर्बेकारों को आसान और सीधा-साधा लग सकता है.’’ समिति बेहतर जानती होगी, आखिर उसे इतना भारी और दुष्कर काम जो सौंपा गया है.
मयूर सुरेश लंदन की एसओएएस यूनिवर्सिटी में कानून के लेक्चरर हैं.