सुकून से जीने की तमन्ना

ब्रिटिश राज में हिजड़ों को जबरन अपना नाम दर्ज कराना पड़ता था और अगर वे सार्वजनिक रूप से नाचते-गाते देखे जाते थे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता था. क्रिमिनल ट्राइब्स कानून ने लैंगिक और यौनगत सामान्य व्यवहार के प्रति किसी भी विरोध को आपराधिक बनाने का रास्ता साफ कर दिया.

ट्रांसजेंडर्स
ट्रांसजेंडर्स

माधवी मेनन

आज से लगभग 1,800 वर्ष पहले साहित्य, पुराण कथा और धार्मिक ग्रंथों और कामशास्त्र में न केवल किन्नरों और उनकी लैंगिकता का समाज के अंग के रूप में सहज उल्लेख मिलता है बल्कि उनमें उनके सद्गुणों को भी दर्शाया जाता रहा है. राम कथा में अनुश्रुति है कि भगवान राम जब वनवास के लिए जा रहे थे तो उन्होंने जंगल के किनारे पहुंचकर 14 वर्षों तक अपने साथ रहने को आतुर प्रजा से कहा कि सभी नर, नारी और बच्चे वापस लौट जाएं. लेकिन इनमें से किसी भी श्रेणी में न आने वाले हिजड़े उसी स्थान पर 14 वर्षों तक रुके रहे जहां वे थे और राम के लौटने का इंतजार करते रहे. उनकी इस भक्ति से अभिभूत होकर राम ने उन्हें आशीर्वाद देने की वह विशेष शक्ति प्रदान की जिसके लिए वे आज भी जाने जाते हैं.

मुगल दरबारों में हिजड़ा शब्द इस्लामिक कैलेंडर हिजरी से लिया गया है जो 622 ईस्वी में पैगंबर मोहम्मद साहब के मक्का से मदीना जाने के समय शुरू हुआ था. इस शब्द का संबंध जुल्म से दूर भागने के अर्थ में होने से हिजड़ों को ऐतिहासिक रूप से नेक इनसान के रूप में चिन्हित कर दिया गया है. यानी ऐसे लोग जो बर्बरता से बचने के लिए शरण और आजादी चाहते हैं और निर्मम राजनैतिक दबाव की स्थिति में अडिग रहते हैं. यहां इस मामले में हिजड़े वे हैं जो लिंग और यौनिकता के अत्याचारपूर्ण व्यवहार से बचकर भागते हैं.

कामसूत्र में 'तीसरी प्रकृति' के लोगों के बारे में कई जगह उल्लेख किया गया है जिनमें उनकी यौनिकता को पुरुषों और स्त्रियों के समान बताया गया है. धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष परंपराओं, हिंदू और मुस्लिम धर्म ग्रंथों और प्रचलनों में हिजड़े—भारत में जिन्हें किन्नर, कोठी, अरावनी के नाम से जाना जाता है—पूरे भारत का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत में किन्नरों को कभी भी व्यापक और व्यवस्थित रूप से या फिर सार्वजनिक रूप से प्रतिबंधित के तौर पर दुष्ट या अवांछित नहीं बताया गया है. लेकिन यह सारी स्थिति तब बदल गई जब अंग्रेजों ने 1871 का क्रिमिनल ट्राइब्स कानून बनाया.

इस कानून, जिसे 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रद्द कर दिया था, के अनुसार अन्य जनजातियों, जातियों और सामाजिक समूहों में हिजड़े जन्मजात अपराधी थे और उन्हें गैरकानूनी बनाने की जरूरत थी. किन्नरों का अपराध यह था कि वे पुरुष और स्त्री की लैंगिक श्रेणी में नहीं आते थे और उनका रहन-सहन उनसे भिन्न था. हालांकि वे शारीरिक रूप से पुरुष माने जाते थे फिर भी स्त्रियों का रूप बनाकर उनकी तरह कपड़े पहनकर नाचते-गाते थे. उनके इस तरह के व्यवहार को देखकर अंग्रेज डरते थे इसलिए उन्होंने इस सबको अपराध बना दिया.

ब्रिटिश राज में हिजड़ों को जबरन अपना नाम दर्ज कराना पड़ता था और अगर वे सार्वजनिक रूप से नाचते-गाते देखे जाते थे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता था. क्रिमिनल ट्राइब्स कानून ने लैंगिक और यौनगत सामान्य व्यवहार के प्रति किसी भी विरोध को आपराधिक बनाने का रास्ता साफ कर दिया. इन बदलावों के परिणामस्वरूप भारत में अब हम यौनगत गैर-सामान्य व्यवहार के मामले में अपरिचित स्थिति में आ गए हैं. हमारी स्मृति में ऐतिहासिक रूप से हिजड़ों का महत्व बरकरार है, फिर भी उनके अपराधी होने की धारणा बनी हुई है. अंग्रेजों ने ऐसे लोगों को व्यवस्था के लिए खतरा बताकर नागरिकता से वंचित कर दिया जिनका रहन-सहन और व्यवहार उनकी समझ के अनुरूप नहीं था.

क्या हम उसी मॉडल पर चलना चाहते हैं. या हम भिन्नता को गले लगाकर रोजमर्रा की जिंदगी जिएं जैसा कि नेहरू चाहते थे. क्या हम विभिन्न यौनिकताओं को किसी भेदभाव के बिना स्वीकार करना चाहते हैं. या हम इस बात को लेकर संतुष्ट हैं कि दूसरे लोगों को केवल इसलिए अपराधी मान लिया जाए कि उनका व्यवहार अलग है. इसका एक 'भारतीय' विकल्प यह होगा कि उस औपनिवेशिक विरासत को अलग किया जाए जिसमें किसी यौनिकता को अपराध बनाया गया था.

सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर अपने फैसले से ऐसा ही किया और एक ऐसे ब्रिटिश कानून को बदल दिया जिसे भारत में प्रचलित गैर-सामान्य व्यवहार के खिलाफ बनाया गया था. दूसरा यह कि हम समान लिंग वालों के लिए सरोगेसी पर भेदभाव जैसे मुद्दों पर उदासीन रवैया रखें. क्या हम हिजड़ों की परंपरा को स्वीकार करते हैं या हम उन्हें ट्रांसजेंडर परसंस (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल की तहों में कुम्हलाने के लिए छोड़ दें.

इस बिल में मांग की गई है कि हिजड़ों को ट्रांसजेंडर घोषित किए जाने से पहले उनकी चिकित्सा जांच होनी चाहिए. अगर हम व्यापकता के बदले पाखंड को महत्व देते हैं तो हमें यह पता होना चाहिए कि यह स्थिति केवल 248 वर्ष से भारत में रही है. इसकी शुरुआत ब्रिटिश साम्राज्य के समय से होती है. लेकिन करीब 2,000 वर्षों से हमारे समाज में अनेक लैंगिक व्यवहार प्रचलित और फलते-फूलते रहे हैं और हम उन्हें स्वीकार करते रहे हैं, लेकिन हम उन्हें समलैंगिकता और ट्रांस सेक्सुअलिटी कहते हैं.

 माधवी मेनन अशोका यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं और पुस्तक इनफाइनाइट वैरायटी: हिस्ट्री ऑफ डिजायर इन इंडिया (2018) की लेखिका हैं

***

Read more!