शारदा सिन्हा: विरोधों से लड़कर कैसे बनीं संगीत की ‘शारदा’?

बिहार में छठ पूजा के पहले दिन छठ गीतों की सबसे बड़ी लोक गायिका शारदा सिन्हा का निधन हो गया. 5 दशकों के उनके संगीत सफर में कई ऐसी कहानियां हैं जो रोमांचित करती हैं, चाहे वो घर में ही संगीत का विरोध होना हो या पान के प्रति उनके प्यार की कहानी

शारदा सिन्हा

‘ऊजर बगुला बिन पिपर न सोहे, कोयल बिन बगिया न सोहे ये राजा’, क्या शारदा बिन लोक संगीत सोहेगा? आंगन के किसी कोने से निकालकर मैथिली और भोजपुरी गीतों को लोगों का कंठहार बना देने वाली, बिहार कोकिला और जानी मानी लोक गायिका शारदा सिन्हा अब दुनिया में नहीं रहीं. 5 नवंबर को छठ पूजा के पहले दिन, छठ की सबसे बड़ी गायिका ने अलविदा कह दिया. लोग उन्हें बिहार की लता मंगेशकर कहते हैं, लेकिन वो बिहार की लता नहीं संगीत की शारदा हैं. ं

भोजपुरी संगीत-सिनेमा में पसरे फूहड़पन और अश्वलीलता को चुनौती देते हुए उन्होंने 50 बसंतों को लोकगीतों से रौशन किया. किसी से पूछेंगे कि छठ पूजा में सूर्य और जल के बाद क्या सबसे जरूरी चीज है, तो कोई हैरानी नहीं होगी अगर कोई कह दे शारदा सिन्हा के गीत. और आस्था का सागर इतना गहरा कि अस्पताल में भर्ती होने के बावजूद हर साल की तरह इस साल भी एक नया छठ गीत ‘दुखवा मिटाईं छठी मैया’ रिलीज किया. 

किस्सों की बात करेंगे तो कहानी वहां से शुरू होती है जब घर में ही गाने का विरोध हुआ, सास नहीं चाहती थीं कि बहु गीत गाए, फिर कहानी उस मोड़ पर पहुंचती है जब वही सास दोस्त बन जाती हैं, और साथ में गाने लगती हैं. आम के पेड़ के नीचे बैठ गोतिया-दियाद की बेटियां को जुटाकर झूमर के साथ शुरू हुआ शारदा का सिलसिला कभी नहीं थमा. बहुत से गीतकार हुए जिन्होंने अपने-अपने दौर में प्रसिद्धी पाई, लेकिन शारदा का दौर कभी खत्म नहीं हुआ. अपने संगीत के प्रति भरोसा इस कदर कि जब एक गीत को रिकॉर्ड करने के लिए कोई कंपनी तैयार नहीं थीं, गीत न चलने की सूरत में जमीन बेचकर पैसे चुकाने का वादा कर दिया. गीत रिकॉर्ड हुआ और खूब चला. शौक की सूची में पान सबसे ऊपर था. यहां तक कि पान को ही प्राण कहा. गैंग्स ऑफ वासेपुर, हम आपके हैं कौन, मैंने प्यार किया, वंस अपॉन अ टाइम इन बिहार, जैसी फिल्मों के लिए गाने गाए.



शारदा सिन्हा लंबे वक्त से बीमार थीं और 25 अक्टूबर से एम्स में भर्तीं थीं. जब बिहार में घाट सज रहे थे, उनके गाए गीत घर-घर में बज रहे थे तब वो जिंदगी की जंग लड़ रही थीं. छठ पूजा का पहला दिन यानी 'नहाय खाय का दिन' शुरू होने से ठीक पहले खबर आईं कि उनकी हालत क्रिटिकल है और वो वेंटिलेटर पर हैं. पहले दिन शाम होते होते बेटे ने कह दिया कि मां को छठी मैया ने अपने पास बुला लिया है. उनके पति बृजकिशोर सिन्हा का निधन डेढ़ महीने पहले ही 22 सितंबर को हुआ था. कहा जा रहा था कि पति की मौत के बाद से ही उनकी तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी.

2018 में इंडिया टुडे मैगजीन की साहित्य वार्षिकी में शारदा सिन्हा ने अपना संस्मरण लिखा था, इसमें अपने जीवन के कई किस्सों का जिक्र किया. जिक्र उस समय का भी मिलता है जब उन्होंने गाना शुरू किया तो पहला विरोध घर में ही झेलना पडा. वो लिखती हैं, “मुझे कहा गया कि गाना ऊना नहीं है, हमारी सास ने ही मना किया कि गाना बजाना अच्छा नहीं है. तब मेरे पति ने सास को मनाया. मैंने शादी से पहले ही शर्त रख दी थी कि शादी ऐसे व्यक्ति से हो जिन्हें संगीत से प्यार हो. गीत संगीत से रोकने वाले से हम शादी नहीं करेंगे. शादी करने के बाद ससुराल में नहीं रहेंगे या भाग जाएंगे.” 

शारदा बिहार उस दौर में अपने पांव संगीत में रख रही थीं जब परदे-घूंघट से बाहर आना, मंच पर नाचना गाना बड़ा चैलेंज था. वो भी खासकर उत्तरी बिहार में. शारदा की शादी 1970 में हुई थी. उनका ससुराल बेगुसराय में था, जो उस समय मुंगेर जिले में पड़ता था. पति संगीत में साथ देते गए. बाद में शारदा समस्तीपुर आ गईं, वहां एमए में एडमिशन हुआ और सीताराम दांडेकर से क्लासिकल संगीत सीखा. इसके बाद धीरे-धीरे सास भी उनकी दोस्त बनने लगीं. ऐसी दोस्त कि पुराने राग समझने के लिए शारदा ने अपनी सास से ही गंवाना शुरू कर दिया. वो लिखती हैं, “मैंने लोकगीतों को खोजने का काम शुरू किया. मैं अपनी सास से पूछती थी कि आप लोग कैसे गाती थीं. वो कहती थीं, तुमसे नहीं होगा, लेकिन जोर देकर उनसे गवाते थे. उनके गाए गानों को लिखा और रिकॉर्ड किया.” 

शारदा 8 भाइयों में एक बहन थीं. 6 भाई उनसे बड़े थे और 2 छोटे थे. मां थोड़ी रुढ़िवादी थीं, लेकिन पिता ने खूब सपोर्ट किया. उनके पिता बिहार और झारखंड में शिक्षा विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर थे. घर पर एक म्यूजिक टीचर आता था. शारदा अपने पिता के बारे में लिखती हैं कि “अगर वे नहीं होते तो संगीत मुझते दूर रहता.”

शारदा शुरुआती दिनों में मैथिली और भोजपुरी में ही ज्यादा गाती थीं. अपने संस्मरण में वो लिखती हैं कि आम के पेड़ के नीचे बैठते थे तो गांव के लोग, गोतिया दियाद की बेटियां मिल जाती थीं. जुटान होती थी. उसी में कभी झूमर शुरू हो जाता था. शारदा का पुराने गीत और राग खोजने का तरीका भी अनूठा था. वो गांव की महिलाओं और रिश्तेदारों से जिद करके गाना गाने को कहती थीं. वो देखती थीं, कि महिलाएं गाते समय कैसे रेघा रही हैं, उसे ही वो अपने अंदाज में ढ़ालती थीं. ऐसे ही एक प्रयोग का जिक्र करते हुए वो लिखती हैं, “चुमाउं का गीत था ‘सोना के रे डलवा में हरिहर पान हे’, इसमें अंतरा नहीं होता था. एक तरह से कैसे गा सकते हैं? इसका अंतरा बनाया, मैथिली सुनने वाले लोग थे, उन्होंने खूब पसंद किया. मैंने छोटे-छोटे बदलाव किए.” 

शारदा सिन्हा की एक पुरानी तस्वीर

शारदा ने लोकगीत को उस तरह से गाया कि बुजुर्गों से लेकर आज की पीढ़ी तक को समझ आए. जिस तरह से देवी-देवताओं के साथ सीता मिथिला की पेंटिंग्स में हैं, उसी तरह देवी, छठ पूजा और सूरज का जिक्र शारदा की गायकी में दिखता है.

विद्यापति का लिखा एक प्रसिद्ध दुर्गा वंदना है- जय जय भैरवी . मिथिलांचल में इसे गोसौनी कहते हैं. शारदा जब ये गीत गाना चाहती थीं, तो इसे रिकॉर्ड करने के लिए कोई कंपनी तैयार नहीं थी. कहा गया कि ये भारी गीत है रिकॉर्ड करने में परेशानी होगी, लेकिन शारदा ने कहा कि “अगर ये गीत लोकप्रिय नहीं होगा तो मैं अपनी जमीन बेचकर पैसे दे दूंगी. बाद में ये गीत रिकॉर्ड हुआ और काफी लोकप्रिय हुआ. इसके बाद मैथिली में रिकॉर्डिंग होने लगी. इसी गीत ने भोजपुरी और मैथिली को जोड़ने का काम किया.”  

लोकगीतों में एक मुकाम हासिल कर चुकीं शारदा फिल्मों से उतनी ही नजदीकी रखी, जितने से उनका लोकगीत प्रभावित न हो. भोजपुरी फिल्म माई में पहला उनका गेस्ट अपीयरेंस था. उन्होंने दगाबाज बलमा और सजना हमार में गाया. सांची पिरितिया भोजपुरी सीरियल में गाया. भोजपुरी फिल्मों के लिए शारदा ने ज्यादा गाने नहीं गाए  वो कहती हैं, “भोजपुरी गानों के ऑफर बहुत थे, लेकिन अच्छे गाने नहीं थे. मुझे फिल्म में गाने का ज्यादा क्रेज नहीं था, मंच ही ज्यादा प्रिय रहा. जिस मंच पर बिस्मिल्लाह खान शहनाई बजा रहे हैं, उनसे पहले वहां मुझे गाने का मौका मिल रहा था. उस मंच पर हम अपनी लोकसंस्कृति को लेकर जा रहे थे.”   

इसमें कोई दोराय नहीं कि 17 देशों में फैले 20 करोड़ से ज्यादा लोगों के बीच प्रचलित भोजपुरी भाषा को अश्लीलता और फूहड़ता का तमगा दिलाकर उसे जमाने भर में रुसवा कर दिया गया. इसी फूहड़पने के खिलाफ 2020 में जब फिल्ममेकर अनुभव सिन्हा ने मोर्चा खोला तो शारदा ने खुलकर समर्थन दिया. उन्होने कहा कि “भोजपुरी पर हो रहे अत्याचार को नजरअंदाज किया जा रहा है. इसके सिनेमा और गानों से पैसा कमाने के लिए सेक्स बेचा जा रहा है. ऐसी फिल्मों की वजह से समाज में भाभी सरीखे रिश्ते के स्थान को गिरा दिया गया है. इसके लिए फिल्म बनाने और देखने वाले दोनों जिम्मेदार हैं.” 

शारदा ने कई हिंदी फिल्मों के लिए भी गया. सलमान खान की फिल्म मैंने प्यार किया के गाने ‘कहे तोसे सजना’ और गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने ‘तार बिजली से पतले हमारे पिया’ जैसे गाने खूब पसंद किए गए. बात पसंद की हुई तो शारदा सिन्हा को संगीत के अलावा पान खाना बहुत पसंद था. वो खुद कहती हैं कि पान प्राण हैं. सालों से खाती आ रही हूं. एचएमवी में जब उनका एडमिशन हुआ तो बेगम अख्तर को पाने खाते हुए देखा, पन्ना देवी को पान खाते देखा, बड़े उस्ताद भी पान खाते थे. जब शादी हुई पति पाने खाते थे. उन्होंने मीठा पान खिलाना शुरू किया. बाद में तंबाकू की भी आदत लग गई. बीबीसी में एक इंटरव्यू के दौरान उन्हें कहा गया कि पान खाइए, और पान खाने के बाद जो क्रंची आवाज निकलती है उसे सुनाइए. वो आवाज सुनाने के लिए शारदा ने गाया- 'पान खाएं सैयां हमार…' वो खुद कहती हैं कि हम जब भी उदास हुए, या जब भी खुश हुए, पान खाया. 

शारदा ने मणिपुरी डांस भी सीखा. डांस का सिलसिला काफी लंबा नहीं चल पाया, लेकिन 1974 में दरभंगा के दुर्गापूजा पंडाल से शुरू हुआ संगीत का सफर कभी नहीं थमा. ये उनका पहला प्रोफेशनल प्रोग्राम था. साल 1991 में उन्हें पद्मश्री और 2018 में पद्म भूषण से नवाजा गया.  इसके अलावा “भिखारी ठाकुर सम्मान”, “बिहार गौरव”, “बिहार रत्न” और “मिथिला विभूति” जैसे कई अवॉर्ड्स मिले. उन्हें “बिहार कोकिला” और “भोजपुरी कोकिला” जैसे खिताबों से भी नवाजा गया. उन्हें ये सारी उपलब्धियां रातोरात नहीं मिलीं. इसके पीछे रियाज की एक गहरी तपस्या है. 

शारदा के लिए सबसे बड़ा सम्मान करोड़ों लोगों की आस्था का माध्यम बनना है. चाहे विवाह का मौका हो या छठ का. उनके संगीत के बिना बिहार इन चीजों की कल्पना नहीं कर सकता. केलवा के पात पर, हो दीनानाथ, उठहु सुरुज भइले बिहान, हे छठी मइया, पहिले पहल हम कईनी छठ के बारतिया, अरग के बेर.. और इस लिस्ट में उनते जितने गीत जोड़ लेंगे हर गीत आस्था और भक्ति का पर्याय बन चुका है. कोरोना से जब पूरी दुनिया जूझ रही थी तो तो उनका गीत आया, अइसन बिपतिया आएल. मोह लेलखिन सजनी मोर मनवा और बाबुल का घर जैसे गीतों के बिना बिहार की शादियां अधूरी मानी जाती हैं.

शारदा सिन्हा का कोई एक दौर नहीं रहा. बल्कि हर दौर में वो प्रासंगिक बनी रहीं. वक़्त के मीटर पर एक लंबे अरसे तक उनकी आवाज़ लोगों के दिलो-दिमाग़ में घरौंदे बनाती रही. घर-घर की जो बन गईं वो शारदा अब नहीं रहीं. लेकिन बचे हुए हैं उनके हज़ारों गानें, उनकी आवाज़, उनकी साज़ की धुन. जो अलग-अलग मौकों पर हमारे बीच गूंजती रहेंगी. जिन लता मंगेशकर का नाम शारदा सिन्हा के नाम से, सम्मान में जोड़ा जाता है, वही लता मंगेशकर गा गई हैं-

नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है
ग़र याद रहे…

अलविदा शारदा सिन्हा

Read more!