गणतंत्र दिवस 2024 : खुदाई में मिलने से संविधान में उकेरे जाने तक... भारत के 'प्रतीक चिन्ह' अशोक स्तंभ की कहानी

भारत के प्रतीक चिन्ह अशोक स्तंभ की खोज करने वाला शख्स कोई भारतीय नहीं, बल्कि एक जर्मन इंजीनियर था

अशोक स्तंभ (फोटो: ASI)
अशोक स्तंभ (फोटो: ASI)

पासपोर्ट, सरकारी दस्तावेज, पोस्टल सर्विस और यहां तक कि नोट पर भी, हर महत्वपूर्ण जगह पर हमें भारत का प्रतीक चिन्ह 'अशोक स्तंभ' दिखाई देता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसकी खोज करने वाला शख्स कोई भारतीय नहीं, बल्कि एक जर्मन इंजीनियर था.

खुदाई में जमीन के नीचे मिलने से लेकर संविधान के पन्ने पर उकेरे जाने तक, भारत के प्रतीक चिन्ह की कहानी बड़ी रोचक है. दरअसल 19वीं शताब्दी के अंत तक ब्रिटिश साम्राज्य में आर्कियोलॉजी एक पसंदीदा विषय बन चुका था. इजिप्ट से भारत तक जहां-जहां भी ब्रिटेन का शासन था, पुरातत्व संबंधी खोज शुरू हो चुकी थीं. 

इजिप्ट में जमीन के नीचे से ममी मिल रही थीं, तो भारत में भी कई राज्यों में बौद्ध स्तूप, प्राचीन मंदिर और गुफाओं जैसी चीजों की खोज होने लगी थी.

उत्तर प्रदेश में वाराणसी से करीब 10 किलोमीटर दूर सारनाथ है, जिसे बुद्ध नगरी के रूप में जाना जाता है. बिहार के बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश इसी सारनाथ में दिया था. भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) ने इसी जगह पर खुदाई की योजना बनाई और इसका काम लोक निर्माण विभाग के एक सिविल इंजीनियर और शौकिया पुरातत्वविद्, फ्रेडरिक ऑस्कर ओर्टेल को दिया गया था. ओर्टेल मूल रूप से जर्मन थे, हालांकि उनकी नागरिकता ब्रिटेन की थी. उनके लिए भारत में गर्मियों में काम करना काफी मुश्किल था. वे दिसंबर 1904 में सारनाथ पहुंचे और अप्रैल 1905 तक काम किया, लेकिन इन चार महीनों में ही उन्होंने ऐसी चीज खोज निकाली जिसकी उम्मीद शायद उन्हें भी नहीं थी. 

​ ​ फ्रेडरिक ऑस्कर ऑर्टेल की 1892 की एक तस्वीर जब वे म्यांमार की राजधानी बर्मा में थे (फोटो: विकिपीडिया) ​ ​

खुदाई के दौरान ओर्टेल को अशोक स्तंभ का एक टुकड़ा मिला. 1904-05 तक सम्राट अशोक के बारे में काफी जानकारी सामने आ चुकी थी, क्योंकि उनके कई स्तंभ बिहार, यूपी और हरियाणा में भी पुरातत्वविदों को मिले थे. NCERT की इतिहास की किताबें बताती हैं कि सबसे पहले ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता पाने वाले शख्स और ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी, जेम्स प्रिंसेप पहले ही इन स्तंभों और शिलालेखों पर लिखी बातों का अनुवाद कर चुके थे, जिससे अशोक के बारे में काफी कुछ पता चल गया था. 

ओर्टेल ने खुदाई जारी रखी और इसमें सम्राट अशोक के शासनकाल की ऐसी संरचनाएं सामने आईं, जो अब तक सबसे ज्यादा संरक्षित थीं. इसमें से एक 'अशोक स्तंभ' था. ASI के अनुसार, इसकी बनावट की बात करें तो ये लगभग 7 फीट लंबा था, जिसमें चार शेर एक-दूसरे की ओर पीठ करके बैठे थे और उनके मुंह खुले हुए थे. उनके नीचे एक आधार था, जिस पर शेर, हाथी, बैल और घोड़े की मूर्तियां बनी हुई थीं और हर मूर्ति के बीच में पहिए या चक्र की आकृति थी. इस पूरी संरचना के नीचे एक उल्टा कमल बना हुआ था. खास बात ये थी कि इसे पॉलिश बलुआ पत्थर (सैंडस्टोन) से बनाया गया था. 

​ सारनाथ की खुदाई में मिला अशोक स्तंभ ​(फोटो: ASI)

इस खोज ने दुनिया भर के पुरातत्वविदों के बीच हलचल पैदा कर दी. इसके एक साल बाद ओर्टेल ने फिर सारनाथ लौटने की कोशिश की, लेकिन उन्हें इजाजत नहीं मिली. तब तक संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) अकाल की चपेट में आ चुका था.

अंग्रेज अधिकारियों या पुरात्तवविदों में एक आदत थी. भारत में जो भी पुरातन चीज मिलती थी उसे वे अपने गार्डन की शोभा बढ़ाने के लिए इंग्लैंड लेकर चले जाते थे. हालांकि सारनाथ इस मामले में बचा हुआ था. अशोक द्वारा 280 ईसा पूर्व में बनावाया गया ये स्तंभ सारनाथ म्यूजियम में रखा गया है.

संविधान में कैसे मिली जगह?

इसकी खोज होने के चार दशक बाद भारत के आजाद होने का समय आया. हर देश का अपना एक प्रतीक चिन्ह होता है, ऐसे में भारत को भी अपने लिए एक प्रतीक तलाशना था. आजादी की तारीख से कुछ दिन पहले 22 जुलाई 1947 को प्रधानमंत्री नेहरू ने संविधान सभा में प्रतीक चिन्ह का जिक्र करते हुए अशोक स्तंभ का सुझाव दिया. इसी भाषण में नेहरू ने कहा, "अपनी ओर से, मुझे बेहद खुशी है कि हमने अपने ध्वज के साथ न केवल इस प्रतीक (अशोक चक्र)  को जोड़ा है, बल्कि एक अर्थ में अशोक का नाम भी जोड़ा है. अशोक न केवल भारत के इतिहास में बल्कि विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण हैं. अब क्योंकि मैंने अशोक के नाम का उल्लेख किया है, मैं चाहूंगा कि आप यह सोचें कि भारतीय इतिहास में अशोक काल मूलतः एक अंतर्राष्ट्रीय काल था. यह वो समय था जब भारत के राजदूत सुदूर देशों तक विदेश जाते थे. वे विदेश में साम्राज्यवाद के रूप में नहीं, बल्कि शांति, संस्कृति और सद्भावना के दूत बनकर जाते थे."

नेहरू के सुझाव पर लगभग सभी सहमत थे कि देश के पास एक अच्छा राष्ट्रीय प्रतीक होना चाहिए. ये प्रतीक अशोक स्तंभ ही होगा ये भी तय था. अब संविधान सभा को एक ऐसे इलस्ट्रेशन की जरूरत थी जो अशोक स्तंभ के सार को दर्शाए, लेकिन जिसे आसानी से रबर स्टाम्प के रूप में लेटर हेड पर छापा भी जा सके. यहां दीनानाथ भार्गव की एंट्री होती है.

दीनानाथ भार्गव शांतिनिकेतन में 21 साल के कला के छात्र थे. संविधान में क्रेडिट पेज पर दी गई जानकारी से पता चलता है कि उनके गुरू नंदलाल बोस को मूल संविधान के डिजाइन और इलस्ट्रेशन का काम सौंपा गया था, जबकि दीनानाथ को राष्ट्रीय प्रतीक के इलस्ट्रेशन का काम मिला.

​ मूल संविधान में इसका डिजाइन तैयार करने वालों का वर्णन ​

2022 में दीनानाथ के परिवार ने मीडिया में बयान दिया, जिसमें बताया गया कि वे प्रतीक चिन्ह के इलस्ट्रेशन के लिए शेरों को देखने कोलकाता ज़ू चले जाते थे और 3 महीने तक ये चलता रहा. उनके बनाए डिजाइन को भारत के मूल संविधान के कवर पर लगाया गया. ये उनके लिए भी बड़ी उपलब्धि थी. 1986 में जब वे रिटायर हुए तो ऑल इंडिया हैंडलूम बोर्ड के डायरेक्टर पद पर थे. उनका बनाया डिजाइन ही आज दस्तावेजों पर प्रयोग होता है. 

भारत के मूल संविधान के कवर का इलस्ट्रेशन और कैलीग्राफी

 

मूल संविधान में हाथ से बनाई गई राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह 'अशोक स्तंभ' की तस्वीर

अशोक के स्तंभों में चार शेरों के मुंह खुले रहना इस बात का प्रतीक माना जाता है कि वे बुद्ध के संदेश को चारों दिशाओं में फैला रहे हैं. चारों शेर- शक्ति, साहस, आत्मविश्वास और गौरव को दर्शाते हैं. हालांकि कागज पर छपे वर्जन में 3 ही शेर दिखाई देते हैं. प्रतीक में मांडूक्य उपनिषद का 'सत्यमेव जयते' (सत्य हमेशा विजयी होता है) शब्द शामिल हैं. 26 जनवरी 1950 को, जिस दिन भारत गणतंत्र बना और अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में संवैधानिक तौर पर अपना लिया गया.

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