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शब्‍द चित्र: शब्द वाले चित्रों में

साहित्यिक व्यक्तित्वों पर चित्रों के जरिए बात करने वाली दो किताबें. एक में रामवृक्ष बेनीपुरी केंद्र में और दूसरी में 101 शख्सियतें.

अपडेटेड 12 जून , 2012

हाल ही में महेंद्र बेनीपुरी के संपादन में श्री रामवृक्ष बेनीपुरी चित्रों में और विनय कुमार दुबे के संपादन में शब्द रंग पुस्तकें देखने को मिली हैं. किसी भी लेखक की जीवंत उपस्थिति उसकी रचना में होती है. लेकिन जब हम अपने प्रिय लेखकों की एक-एक रचना से गुजरते हुए आगे बढ़ते हैं तो लेखक कैसा दिखता है, उसका आस-पड़ोस कैसा है, वह किस तरह के लोगों के बीच में रहता है, आदि जानने की सहज जिज्ञासा से हम भर उठते हैं.

एक समय में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने कुछ मूर्धन्य लोगों के छवि संग्रह का बेहतरीन काम किया था. लेकिन अब वह ठप है. ऐसे समय में महेंद्र बेनीपुरी का यह प्रयास स्तुति योग्य है. रामवृक्ष बेनीपुरी का सक्रिय साहित्यिक जीवनकाल वही है जो भारत के आजादी के संघर्षरत समय और बनते हुए भारत का है.

बेनीपुरी साहित्य के साथ-साथ राजनीति में भी सक्रिय थे. इस कारण भी चित्रों का यह संग्रह एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन पड़ा है. बिहार और दिल्ली के राजधानी बनने के सौवें वर्ष में छपा यह संग्रह हमें यह बताने में सक्षम है कि तत्कालीन समय में राजनीति सिर्फ सत्ता प्राप्ति के लिए न थी बल्कि जीवन और समाज के धरातलीय यथार्थ से जुड़ने के लिए थी.

कला और साहित्य उस समय राजनीति से आगे की चीज थी जबकि आज वह कहीं पीछे छूट-सी गई है. इन चित्रों में बेनीपुरी के साथ जयप्रकाश नारायण, पृथ्वीराज कपूर और शिवपूजन सहाय जैसे राजनीति, कला और साहित्य के मूर्धन्यों का एक पूरा वृत्त बनता है. 21 दिसंबर, 1954 को सह्ढू हाउस (दिल्ली) में राष्ट्रीय नाट्य समारोह में अंबपाली के मंचन के बाद अंबपाली और मधूलिका का अभिनय करने वालीं शोभा सिमौर और अमला वर्मा के साथ बेनीपुरी का चित्र और बेनीपुरी की अपनी नायिकाओं पर टिप्पणी गौर तलब हैः ''शोभा नाम की छोटी-सी लड़की मुश्किल से 13-14 साल की होगी...उसने अंबपाली का पार्ट करके कमाल कर दिया.

अमला वर्मा एम.ए. की छात्रा है. मधूलिका का पार्ट उसने किया. मेरी कल्पना में मधूलिका को उसने साक्षात कर दिया. करुणा की मूर्ति.'' इस संग्रह के चित्रों से रामवृक्ष बेनीपुरी के आसपास का पूरा ग्रामीण परिवेश उभर आता है. अच्छे संपादन के अलावा इसकी छपाई भी सुंदर है.

विनय कुमार दुबे ने साहित्यकारों, महान राजनीतिज्ञों का अता-पता ढूंढ-ढांढ कर चित्र हासिल किए, फिर उनकी चित्रों से एक ऑयल पेंटिंग बनाई. इस तरह से लगभग चार-साढ़े चार सौ लोगों की अपनी बनाई ऑयल पेंटिंग्स में से 101 मूर्धन्य साहित्यकारों और हिंदी अनुरागी महान व्यक्तित्वों की ऑयल पेंटिंग्स को संक्षिप्त परिचय के साथ प्रकाशित किया.

पुस्तक में वैसे इन चित्रों को पूरे एक पन्ने पर देना चाहिए था, न कि पासपोर्ट साइज में. लेकिन हिंदी के प्रति एक कलाकार का यह अनुराग अप्रतिम है. ह्ढूफ की शोचनीय गलतियों के बावजूद साहित्य और कला के इस समन्वित व्यक्तिगत प्रयास के लिए उनकी सराहना करनी चाहिए. हिंदी से जुड़े पाठकों और प्रकाशकों को भी इस तरह के काम को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए. महेंद्र बेनीपुरी और विनय दुबे दोनों को ही अपने-अपने तरह के इस सुघड़ उपक्रम के लिए साधुवाद.

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