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अमेरिका के नए राष्ट्रपति के भारत के लिए मायने

अमेरिका को अगर नया राष्ट्रपति मिलता है तब भी डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट नीति को पलटने के आसार नजर नहीं आते.

23 अक्तूबर को फाइनल प्रेसीडेंशियल डिबेट के दौरान ट्रंप और बाइडेन (एएनआइ)
23 अक्तूबर को फाइनल प्रेसीडेंशियल डिबेट के दौरान ट्रंप और बाइडेन (एएनआइ)
अपडेटेड 2 नवंबर , 2020

पिछले कुछ महीनों से मथे जा रहे इस सवाल का जवाब मिलने में ज्यादा वक्त नहीं रह गया हैः अमेरिका का राष्ट्रपति कौन होगा-डोनॉल्ड ट्रंप या जो बाइडेन ? नजदीकी मुकाबले की भविष्यवाणी के बीच इंडस्ट्री और पॉलिसी के पर्यवेक्षक नजरें गड़ाए हुए हैं. अभी तक चुनाव पूर्व विश्लेषणों को देखा जाए तो वे डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी जो बाइडेन के पक्ष में जाते दिखते हैं.  

अमेरिका के चुनाव नतीजों का भारतीय कारोबार के लिहाज से क्या महत्व है? ज्यादातर विशेषज्ञ इससे सहमत हैं कि अगर सत्ता परिवर्तन होता है तब भी ट्रंप के दौर में जारी नीतियां यथावत रहेंगी. अगर डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जीत भी जाए तो भी ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति जारी रहेगी जिसे उन्होंने साल 2016 के चुनावों में प्रचारित किया और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (अमेरिका को फिर महान बनाओ)’ जैसे नारे गढ़ दिए. दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज ऐंड प्लानिंग के प्रोफेसर बिस्वजीत धर कहते हैं, “ट्रंप ने अपने ‘अमेरिका फर्स्ट’ अभियान से लंबे समय तक टिके रहने वाला योगदान अमेरिका की राजनीति में दिया है. ऐसे वक्त में जब अर्थव्यवस्था से उछाल गायब है और कोविड-19 की दूसरी लहर की आशंका है, बिडेन इस अफसाने से दूर नहीं जा सकेंगे. ”  

अपने कार्यकाल में ट्रंप ने अमेरिका को बड़ी मैन्युफैक्चरिंग शक्ति बनाने के अभियान में कई बार चीन के साथ व्यापार घाटे का मसला उठाया और इससे दोनों देश करीब-करीब व्यापार युद्ध के नजदीक पहुंच गए. मुंबई के थिंट टैंक गेटवे हाउस की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर मनजीत कृपलानी कहती हैं, “ग्लोबलाइजेशन से चीन को सचमुच फायदा हुआ. वह बहुत शक्तिशाली हो गया. इसने न केवल पुरानी उत्पादन वाली अर्थव्यवस्था में निवेश किया बल्कि तकनीकी वाली अर्थ्व्यवस्था में भी चीन ने पैसा लगाया.” चीन ने अमेरिका और यूरोप में वैश्विकता के तरफदारों को संरक्षण दिया. कृपलानी कहती हैं, "दुर्भाग्य से डेमोक्रेट यथास्थितिवादी बनकर रह गए हैं."  

यूनाइटेड स्टेट्स ट्रेड रिप्रजेंटेटिव (यूएसटीआर) के दफ्तर के मुताबिक, चीन ने 2019 में अमेरिका से 308.8 अरब डॉलर के ट्रेड सरप्लस का आनंद लिया. जवाब में अमेरिका ने सिर्फ 163 अरब डॉलर की सामग्री और सेवाएं चीन को निर्यात की, लेकिन उसने 471.8 अरब डॉलर के बराबर के सामान और सेवाएं चीन से आयात कीं. 2019 में चीन अमेरिका का तीसरा सबसे बड़ा गुड्स ट्रेडिंग पार्टनर रहा. इसके बाद दोनों देशों के बीच प्रतिबंधों की जंग छिड़ गई. पिछले साल 10 मई को अमेरिका ने 200 अरब डॉलर के चीनी सामान पर टैरिफ 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया. इसका असर चीन से आने वाले इंटरनेट मोडम, राउटर्स, प्रिंटेड सर्किट बोर्ड, फर्नीचर और बिल्डिंग मटेरियल जैसे 5,700 उत्पादों पर पड़ा. वाशिंगटन में चीनी उप राष्ट्रपति लू हे और अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटथेजर के बीच लंबी व्यापार वार्ता के बावजूद चीन झुका नहीं. 13 मई को चीन ने अमेरिका से आयात होने वाले सामान पर 60 अरब डॉलर का जवाबी टैरिफ लगा दिया. इसके तहत बीयर, शराब, स्विमसूट, शर्ट, लिक्विफाइड नेचुरल गैस जैसे सामानों पर टैरिफ 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 20-25 प्रतिशत कर दिया. कृपलानी का कहना है, “ट्रंप ने चीन के प्रति हमारी सोच हमेशा के लिए बदल दी. हर कोई समझता है कि चीन के मसले में वापस जाना मुमकिन नहीं.”

निष्कर्ष एक ही है कि ट्रंप भारत समेत ज्यादातर देशों से ट्रेड सरप्लस चाहते हैं और इस मसले को वे हर मौके पर उठाते हैं. यूएसटीआर के मुताबिक, भारत ने 2019 में अमेरिका से 28.8 अरब डॉलर के ट्रेड सरप्लस का आनंद लिया. भारत ने 87.4 अरब डॉलर (6.5 लाख करोड़ रुपए) के सामान और सेवाएं 2019 में अमेरिका को निर्यात कीं जबकि 58.6 अरब डॉलर (4.4 लाख करोड़ रुपए) की सामग्री और सेवाएं अमेरिका से आयात कीं. धर कहते हैं, “यहां काफी असहज स्थिति पैदा हो रही है. परंपरागत रूप से डेमोक्रेट्स ज्यादा संरक्षणवादी और रिपब्लिकन ज्यादा व्यापार सहयोगी रहे हैं. इस समय स्थिति उलट गई है.” वे कहते हैं कि अगर डेमोक्रेट चुने गए तो सिर्फ एक ही बदलाव आएगा कि प्रशासन विवादों में कम रहेगा. 

ट्रंप की ओर से अमेरिका की आव्रजन नीति को सख्त करने के फलस्वरूप वहां काम कर रहे भारतीयों में काफी असंतोष है. उनका आखिर डंडा इस साल जून में चला जब उन्होंने एच1बी वीजा और एल1 और अन्य अस्थायी वर्क परमिट यह कहकर निलंबित कर दिए कि कोरोनावायरस के कारण बेरोजगार हुए लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया गया है. यहां तक कि अमेरिका के प्रौद्योगिकी उद्योग ने भी इस फैसले की आलोचना की और कहा कि इससे नवाचार प्रभावित होगा और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के उबरने में भी विलंब होगा. लेकिन ये विषय चुनावी मुद्दे बने हुए हैं ठीक 2008 की तरह जब बराक ओबामा राष्ट्रपति चुने गए थे. अमेरिका की अर्थव्यवस्था पिछले दो दशकों से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रही है और इसी वजह से कंपनियां लगातार खर्च घटाते हुए आउटसोर्सिंग कर रही हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि एच1बी वीजा का मुद्दा कोई सरकार अभी नहीं छूने वाली है.  

कई वर्षों से अमेरिका खुद भारत के कृषि उत्पादों के बाजार में बेहतर तरीके से कदम रखना चाह रहा है. धर कहते हैं, “भारत एक चीज अमेरिका से चाहेगा और वह है जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंसेज (जीएसपी). जीएसपी सबसे बड़ा और सबसे पुराना यूएस ट्रेड प्रिफरेंस प्रोग्राम है. इसे देश विशेष के आर्थिक विकास के लिए तैयार किया गया है जिसके तहत उस देश से हजारों उत्पादों को करमुक्त प्रवेश दिया जाता है. पिछले साल जून में ट्रंप ने जीएसपी के तहत लाभ पाने वाले देश के तौर पर भारत का प्रिफरेंशियल दर्जा खत्म कर दिया था क्योंकि भारत ने बदले में अमेरिका को अपने बाजार में बराबर की पहुंच नहीं मंजूर की थी.” अमेरिका से आयात पर ज्यादा कर लगाने से ट्रंप भारत पर बरस पड़े थे. इसमें सबसे चर्चित उदाहरण हर्ले डेविडसन मोटरसाइकिलों का उन्होंने दिया था. पिछले साल जून में ट्रंप ने कहा था, “उन्होंने (मोदी) एक फोन कॉल पर इसे (आला दर्जे की मोटरसाइकिलों पर इंपोर्ट ड्यूटी) 50 प्रतिशत तक घटा दिया. मैंने कहा यह मानने लायक नहीं है क्योंकि 50 प्रतिशत कुछ भी नहीं है.” 

लेकिन कृपलानी की तरह अन्य लोग महसूस करते हैं कि भारत को ट्रंप के राज में ज्यादा फायदा हुआ और अब हमें अपना कारोबारी माहौल आगे ले जाने की जरूरत है. इसमें कोई शक नहीं है कि चीन से दुनिया के मुंह मोड़ने का फायदा भारत को हुआ और खास तौर पर ट्रंप से जिन्होंने चीन को बाहर किया. कृपलानी का कहना है, गूगल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां महसूस करती हैं कि उन्होंने भारत में सही तरीके से निवेश नहीं किया है जबकि यहां बौद्धिक संपदा अधिकार ज्यादा सुरक्षित हैं. गूगल यहां एक स्थापित रास्ते से आई है और वह है रिलायंस जियो का. अब हमें आगे जाने के लिए अपने स्टार्टअप में निवेश करने की जरूरत है.

अनुवादः मनीष दीक्षित

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