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सब्सिडी घालमेल: लूट का माल, छूट में

समस्या की जड़ वे लोग हैं जिन्हें दरअसल गरीबी रेखा से ऊपर होना चाहिए लेकिन जो बीपीएल में ही रहना चाहते हैं. किसी को सस्ता या मुफ्त माल मिले तो वह बाजार मूल्य क्यों चुकाए.

अपडेटेड 17 मार्च , 2012

बर्नार्ड शॉ ने कहा था कि जोसरकार पीटर को लूटकर पॉल को देती है, वह हमेशा पॉल के समर्थन पर भरोसा कर सकती है. लेकिन असल समस्या वह नहीं है. सरकार पीटर को लूटकर पीटर को ही देती है और पीटर को यह बात समझ में नहीं आती.  सब्सिडी की यही फितरत है.

लैटिन भाषा में इसकी उत्पत्ति बिहाइंड शब्द यानी 'पीछे' से जुड़ी मानी जाती है. सब्सिडी की मार आपको सीधे तौर पर कुछ नहीं दिखेगी. वह पीठ पीछे से वार करती है. 2007-08 में कुल टैक्स/जीडीपी अनुपात 17.7 प्रतिशत था जिसमें केंद्र का हिस्सा 12 फीसदी था. आज यह प्रतिशत घटकर क्रमशः 15.4 फीसदी और 10 फीसदी रह गया है.

टैक्स में छूट भी सब्सिडी ही तो है. 2006-07 के बाद से ही केंद्रीय बजट में इस बात का जिक्र होता है कि कितना राजस्व गंवाया गया है. लब्बोलुआब यह कि अगर छूट नहीं होती तो टैक्स/जीडीपी अनुपात 5.5 फीसदी ज्‍यादा होता. अर्थशास्त्र, संसाधनों के इस्तेमाल का लेखा-जोखा है. हर संसाधन का कोई और इस्तेमाल हो सकता है.

सब्सिडी की गणना करना मुश्किल होता है क्योंकि सभी सब्सिडी साफ नजर नहीं आतीं. थोड़े से पुराने हो गए आंकड़ों को देखें तो सब्सिडी सकल घरेलू उत्पाद का 14 प्रतिशत है. यह वह पैसा है जिसको और कहीं खर्च किया जा सकता था. इसे सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचे और कानून-व्यवस्था पर खर्च किया जा सकता था.

इस तरह आप समझ सकते हैं कि सब्सिडी के नाम पर जो पैसा लोगों तक पहुंचाया जा रहा है, वह उन्हीं का पैसा है. यानी पीटर को लूटकर पीटर को दिया जा रहा है. केंद्र या राज्‍य के किसी वित्त मंत्री ने यह नहीं कहा, ''यह पैसा अगर मैं यहां खर्च करता हूं तो मैं इसे वहां खर्च नहीं कर सकता. ये हैं मेरी प्राथमिकताएं. और यही कारण है कि मैं इस पर खर्च करने जा रहा हूं.''

सब्सिडी को वर्गीकृत करने के अलग-अलग तरीके होते हैं- लोकहित में दी जाने वाली सब्सिडी, आवश्यकतानुसार सब्सिडी (जिससे सकारात्मक अंतर नजर आए) और इसके बाद गैरजरूरी सब्सिडी (गैर-प्राथमिकता). ऐसा कुछ नहीं है जो वाजिब तौर पर सार्वजनिक हित में हो पर इसको भी छोड़ दीजिए. जरूरी सब्सिडी के उदाहरण प्राथमिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सीवेज निपटान, सड़क और पुलों को सब्सिडी मुहैया कराना है.

इस वर्गीकरण के साथ जरूरी वस्तुओं और सेवाओं को भी सब्सिडी दी जानी चाहिए, न कि गैरजरूरी वस्तु और सेवाओं को. गैरजरूरी वस्तु और सेवाओं के पूरे शुल्क उपयोगकर्ता से वसूले जाने चाहिए. केंद्र सरकार के खर्चों पर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस पॉलिसी का एक अध्ययन बताता है कि गैरजरूरी सब्सिडी का भुगतान जरूरी सब्सिडी के भुगतान का करीब 8 गुना है. जिस पर सब्सिडी दी जानी चाहिए, उसके बजाए सब्सिडी उस पर दी जा रही है जिस पर नहीं दी जानी चाहिए.

अगर सब्सिडी कीमतों में अराजकता पैदा करती है तो वे उत्पादन (निर्यात सहित) और उपभोग संबंधी फैसलों को प्रभावित करती है. इसलिए उनसे बचा जाना चाहिए.  केंद्र की प्रमुख सब्सिडियों (खाद्य, उर्वरक, पेट्रोलियम उत्पादों) और राज्‍यों की (बिजली, सड़क) की यही हकीकत है.

इन मानक केंद्रीय सब्सिडियों के अलावा हमारे पास खाद्य सुरक्षा विधेयक और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान भी होगा. हम जानते हैं कि 2011-12 के लिए बजट लक्ष्य, खास तौर पर खाद्य और पेट्रोलियम उत्पादों के, पूरे नहीं हो पाए हैं. लेकिन फिर भी अगर बजट अनुमानों को ही लेकर चलें और बाकी सब्सिडी को छोड़ भी दें तो भी यह 14.4 खरब रु. है जिसे और कहीं खर्च किया जा सकता था.

सब्सिडियों का एकमात्र उचित मामला पुनर्वितरण हो सकता है. कोई गरीब को सब्सिडी देना चाहता है. यह उपभोग की सब्सिडी है. लेकिन फिर भी इसमें दखल जरूरी है. क्या कामकाजी आयु वर्ग में समर्थ शरीर वाले गरीब होने के इच्छुक हैं? वे गरीब होते हैं क्योंकि भौतिक और सामाजिक बुनियादी ढांचे, कानून और व्यवस्था, भूमि बाजार, वित्तीय उत्पादों, विपणन नेटवर्क, प्रौद्योगिकी के उपयोग के मामले में बाजार आधारित अवसरों तक उनकी पहुंच नहीं होती है.

यही असली समावेशी एजेंडा है जिसको सार्वजनिक और निजी प्रावधान के जरिए ठीक किया जाना है. बुजुर्गों, विकलांगों और महिला मुखिया वाले परिवारों के लिए यह अपवाद हो सकता है. इनके लिए, और हाशिए पर मौजूद तथा उपेक्षित लोगों के लिए सब्सिडी का एजेंडा हो सकता है. फिर भी सीधे नकदी हस्तांतरण का सिद्धांत ज्‍यादा बेहतर है क्योंकि इससे खपत के फैसले विकृत नहीं होते.

हालांकि, हम गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) रहने वालों और सब्सिडी के लाभार्थियों की पहचान के लिए एक ही घेरे में लगातार घूमे जा रहे हैं. बर्बादी और अक्षमता के अलावा भी ऐसे कई सबूत हैं जो जाहिर करते हैं कि मौजूदा सब्सिडी व्यवस्था अमीर समर्थक और गरीब विरोधी है.

यूआइडी इस समस्या को हल नहीं कर पाएगा. यह केवल एक साधन है. गरीबी रेखा से नीचे वालों की पहचान करना मुश्किल काम नहीं है. विकेंद्रीकृत पहचान एक विकल्प है. और न ही गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) की पहचान करना मुश्किल काम है. समस्या की जड़ बीच में है. जो बीपीएल में रहना चाहते हैं, पर वास्तव में वे गरीबी रेखा से ऊपर होना चाहिए.

केंद्र और राज्‍य सरकारें उन्हें अलग नहीं करना चाहतीं और सब्सिडी का चक्र चलता रहता है. कोई उस चीज का बाजार मूल्य क्यों चुकाना चाहेगा जो उसे मुफ्त या सब्सिडी की दरों पर मिल रही है? सब्सिडी की संस्कृति के साथ यह समस्या है. एक बार जब यह शुरू होती है, तो फिर इसे वापस लेना मुश्किल होता है.

इस बीच, गैर-जरूरी सब्सिडी के तथाकथित लाभ फौरन मिल जाते हैं. जबकि इस तरह संसाधन लुटाने का असली प्रभाव मध्यम अवधि में नजर आता है. हम सब निकट दृष्टि दोष के शिकार हैं. अकेले राजनीतिक तबके को ही दोष क्यों?

बिबेक देबरॉय सेंटर फार पालिसी रिसर्च, दिल्ली में प्रोफेसर हैं

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